संस्कारों की कमी ही पतन का कारण
वर्तमान समय में आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर हम अपने संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं।संयुक्त परिवार की व्यवस्था समाप्त होती जा रही है और एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं, रही सही कमी इंटरनेट और मोबाईल ने पूरी कर दी जिसके प्रभाव से घर के चार सदस्य भी एक कमरे में बैठने के बाद भी अपने अपने मोबाइलों में व्यस्त होकर एक दूसरे से बातचीत करना तो दूर एक दूसरे को देख भी नहीं पा रहे हैं। परिवार के बड़े लोग ही जब इस स्थिति में हैं तो वे बच्चों को क्या समझायेंगे। स्कूली शिक्षा भी आज संस्कारों से दूर हो गई है, जिसमे बड़े स्कूल, मिशनरी स्कूल की स्थिति तो और भी अलग है वहाँ तो संस्कारों और नैतिक व्यावहारिक ज्ञान का कोई स्थान ही नहीं है, मात्र किताबी ज्ञान तक ही शिक्षा सीमित हो गई है। थोड़ी बहुत कमी रही थी तो वह फिल्मों और टी वी सीरियलों ने पूरी कर दी होकर बच्चों, युवाओं और महिलाओं की मानसिकता ही बदल दी है। इन सबसे आज हमारा समाज पतन की गर्त में जा रहा है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आज समय रहते हम नहीं संभले तो आने वाला समय और भी विकट हो सकता है।
गृहस्थी का आधार ही कमजोर होता जा रहा है, जिसके मूल में कोई नहीं जा रहा। जिससे आज हर दिन किसी न किसी घर में विवाद हो रहे हैं, तनाव और मनमुटाव बढ़ रहा है। गृहस्थ जीवन को बिगाड़ने में संस्कार विहीन शिक्षा के साथ आधुनिकता, झूठा घमंड और अहंकार के साथ ही परिवारजन से दूरी और आपसी तालमेल का आभाव तो है ही, इसके अलावा सहनशक्ति की कमी, कटुवचन के साथ वाद विवाद, स्त्रीपक्ष के मायकेवालों के साथ परिवार के बाहर वालों का हस्तक्षेप भी इसका कारण है। मोबाईल और इंटरनेट के चलते घर गृहस्थी की तरफ से भी ध्यान हट गया है। पहले बड़े और संयुक्त परिवार हुआ करते थे, आपस में मेलजोल रहा करता था, एक दूसरे में प्रेम के साथ ही रिश्तों की मर्यादा और जवाबदारियाँ रहती थी, समाज का भय भी रहता था जिसके चलते एक दूसरे को निभा कर चलते थे। एकल परिवार ने उन सब स्थितियों को समाप्त कर दिया।
पहले विवाह आदि के लिए लड़के का चालचलन, कामधाम देखा जाता था किन्तु आजकल बड़ा पैकेज, गाड़ी बंगला मुख्य हो गया है। उसी प्रकार से पहले लड़की वाले अपनी बेटी को गृहकार्य में दक्ष करते थे और बड़े ही गर्व से बताते थे कि उनकी बेटी गृहकार्य में दक्ष है किन्तु अब यह कहा जाता है कि हमारी बेटी बड़े नाजों में पली एक तिनका भी नहीं उठाया है तो वह बेटी विवाह उपरांत ससुराल में काम कैसे करेगी। बेटी को उसके मायके में यदि घर के कामकाज की शिक्षा नहीं दी, परिवार संचालन के संस्कार नहीं दिए, बड़ों के प्रति आदरभाव करने की समझ नहीं दी तो वह ससुराल में अपने आप को स्थापित कैसे करेगी। माताएं अपनी खुद के घर की रसोई से अधिक बेटी की रसोई में क्या बना उस पर ध्यान देने लगी हैं। सारा दिन मोबाईल की व्यस्तता और उसमे से समय मिल जाये तो टी वी सीरियल के साथ ही आस पड़ोस में बतियाने के लिए तो समय है किन्तु अपने परिवारजन से दो बोल बोलने का समय नहीं है।
संयुक्त परिवार के सिमट जाने के बाद सबसे अधिक दुर्दशा यदि हुई तो बुजुर्गों की। बुजुर्गों को तो सिर्फ चौकीदार समझा जाता है तो कई जगह तो उन्हें बोझ समझा जाता है। कुत्ते बिल्ली पाले जाते हैं उनके लिए समय निकाल लेते है किन्तु बुजुर्गों के लिए और परिवारजन के लिए समय नहीं है। परिवार एक जगह बैठकर एकसाथ भोजन तक करने की स्थिति में नहीं हैं। अधिकांश बुजुर्ग उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं तो कुछ के लिए घर में स्थान ही नहीं है और उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाता है। बच्चे बुजुर्गों का सम्मान करने की बजाय उपेक्षा करते हुवे उनका अनादर तो करते ही है साथ ही कटूवचन बोलकर उनका तिरस्कार भी करते हैं। कई बच्चे तो अपने कामकाज के सिलसिले में विदेशों में बस जाते हैं और उनके वृद्ध परिजन एकाकी जीवन जीते हुए कब काल के गाल में समा जाते हैं यह मालूम ही नहीं पड़ता है।
आधुनिकता के इस दौर में महिलाएं सर्वाधिक प्रभावित हुई हैं, हालाँकि यह बात सभी महिलाओं के लिए नहीं है अपवादस्वरूप कई महिलाएं इस प्रभाव से दूर भी है, उन्हें सादर प्रणाम इसलिए कि उन्होंने संस्कारों का दामन नहीं छोड़ा। दिनभर मनोरंजन, मोबाईल, घूमना फिरना बाजार में शॉपिंग करना और ब्यूटी पार्लर जहां भले ही घंटो लाइन लगाना पड़ जाये, मंजूर है किन्तु घर के कामों और भोजन बनाने तथा परिवार के लिए समय ही नहीं है। होटल ढाबे पर खाना एक आम बात होता जा रहा है भले ही वहां भोजन की सामग्री और क्वॉलिटी कैसी भी हो और वह भोजन स्वास्थ्य के लिए ठीक है या नहीं इससे कोई मतलब नहीं। होटलबाजी से ही तो आधुनिक दिखेंगे। जबकि होटल से कम खर्च में घर में उससे अधिक मात्रा और शुद्धता वाला भोजन तैयार करके परिवार के साथ आनंदपूर्वक किया जा सकता है।
वैवाहिक कार्यक्रमों में पहले सस्कारों के साथ कुछ मर्यादाएं और जवाबदारियां हुआ करती थी, आज वे लुप्तप्राय होती जा रही है और दिखावा, फूहड़ता, फैशन के नाम पर बेशर्मी का तमाशा बनता जा रहा है। जो महिलायें घर में काम करने में बीमार हो जाती है वे इन कार्यक्रमों में घंटो अपने नृत्य की प्रतिभा का प्रदर्शन करने के बाद भी कतई नहीं थकेंगी। घूँघट या साड़ी हटना तो ठीक अब तो छोटे छोटे और कटे फटे देह दर्शन वाले कपडे फैशन के नाम पर धारण किये जा रहे है। शर्म हया की कोई गुंजाईश ही नहीं है। वरमाला के समय फूहड़ता और तमाशा आज आम हो गया है और हम भी मौन रहकर तमाशबीन बने हुए हैं। माता पिता अपनी बच्ची को शिक्षा तो दिलवा रहे किन्तु उस शिक्षा के पीछे उनकी सोच परिवार को शिक्षित करने की नहीं बल्कि यह है कि कहीं तलाक वलाक हो जाये तो अपने पांव पर खड़ी हो जावे और खुद कमा ले। जब ऐसी अनिष्टकारी सोच और आशंका पहले से ही है तो परिणाम भी वैसा ही सामने आना है। अकेले जिंदगी जी लेगी वाली सोच ही गलत है। विवाह कार्यक्रमों में पहले महिलाएं गृहकार्य में हाथ बटाने के लिए जाती थी और आज वह बात ही लुप्त हो गई है।
संतान सभी को प्यारी होती है किन्तु इतना लाड़ प्यार भी मत करो कि उनका जीवन ही ख़राब हो जाये। पहले महिला तो छोडो पुरुष भी थाने कोर्ट कचहरी जाने से घबराते थे और शर्म करते थे किन्तु आज तो फैशन बन गया है, युवा पीढ़ी तलाकनामा तो मानो जेब में लिए घूम रही है। पहले परिवार के विवाद में समाज के बुजुर्ग रिश्तेदारों से राय मशवरा लिया जाता था आज समाज को छोडो, माता पिता को औलाद कुछ नहीं समझती है। भाषा और जुबान बेलगाम होती जा रही है, सहनशक्ति रही नहीं और झुकना सीखा ही नहीं। सभी लोग वर्चस्व के लिए लड़ रहे हैं। वाणी दिनोदिन कटु और कठोर होती जा रही है और चुप रहना अपने आप को कमजोर माना जाने की श्रेणी का हो गया है। समझना कोई नहीं चाहता है, सोच को बदलना कोई नहीं चाहता है।
प्रायः घर में किसी महिला के गर्भवती होने के समय बड़े बूढ़ों को कहते हुए सुना होगा कि प्रसूता को खुश रखो, उसके साथ अच्छा व्यवहार और बातचीत करो, धार्मिक कथा श्रवण कराओ, उसके कमरे में सुन्दर शिशु अथवा भगवान के बालस्वरुप की तस्वीर लगाओ ताकि शिशु सुन्दर, स्वस्थ, संस्कारी और प्रसन्नचित्त हो। इसका सीधा मतलब तो यह है कि हमारी सोच से भविष्य तय होता है, तो हम अपनी सोच को क्यों नहीं बदल सकते। आज कई चैनल जो महिलाओं के हित की बात तो करते हैं किन्तु पुरुष को अत्याचारी बताने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं, हर पुरुष एक से नहीं होते इस कारण समाज में सन्देश तो गलत ही जा रहा है ना। आज एक पुरुष सुबह से शाम तक अपने परिवार की खुशहाली के लिए दौड़ता रहता है, खुद कोई सपने नहीं देखते हुए पत्नी की ख़ुशी और बच्चों के उज्जवल भविष्य के सपने देखता है तो क्या उसे उसकी पत्नी और बच्चो का समर्थन नहीं चाहिए ?
इस बात से इंकार नहीं है कि पुराने ज़माने में नारी अबला थी, माँ बाप से एक चिट्ठी तक के लिए मोहताज हुआ करती थी और ऊपर से बड़े परिवार के काम का भी बोझ हुआ करता था, किन्तु उसमें भी एक अलग ही आनंद हुआ करता था जो आज के एकल परिवारों में नहीं है। आज एकल परिवार होने, मनोरंजन के लिए टीवी, कपडे धोने की मशीन, मसाला पीसने के लिए मिक्सर, रेडीमेड पैक्ड आटा, राशन, मोबाईल, घर का काम करने के लिए नौकर चाकर, घूमने फिरने के लिए दो पहिया या चार पहिया वाहन के साथ ही सर्व सुविधाएँ उपलब्ध होने के बाद भी आजादी के नाम पर क्या चाहते हो ? दो या चार लोगो का परिवार, घर में कोई काम नहीं बचा फिर भी रोटी बनाना अखर जाता है क्यों ? घूमने फिरने, मूवी देखने, किटी पार्टी में शामिल होने, मोबाईल पर गपशप करने आदि समस्त काम के लिए समय है किन्तु परिवार के लिए समय नहीं ऐसा क्यों ?
आखिर इस मृग तृष्णा का अंत कब और कैसे होगा इस बारे में किसी ने कोई विचार किया ? आज के जो हालात हमारे सामने दिख रहे हैं उन सबके पीछे कहीं न कहीं संस्कारों की कमी तो दिखाई दे रही है, जिस कारण ही परिवार टूट रहे हैं, परिवार बिखर रहे हैं। परिवार न्यायालय में विवादों का अम्बार बढ़ता ही जा रहा है। इंसान के जीवन से ख़ुशी लुप्त हो चुकी है। इन सबके बारे में आज नहीं सोचा तो आने वाली पीढ़ी कहाँ, कैसे और किन परिस्थितियों में रहेगी इसका अंदाज भी लगाना कठिन है और हमें किन हालातों में अपना जीवन व्यतीत करना होगा यह तय कर पाना भी अत्यंत ही जटिल है। इसलिए आज इस संकल्प की अनिवार्य आवश्यकता है कि हम अपनी प्राचीन सभ्यता, परम्परा, संस्कार और हमारे बुजुर्गों द्वारा निर्धारित नियमों का स्वयं भी पालन करें और अपने बच्चो को भी उनकी शिक्षा देकर उनसे भी पालन करावें और इस अनमोल जीवन को आनंद और ख़ुशी के साथ व्यतीत कर एक आदर्श स्थापित करें। ईश्वर आप सभी को इस संकल्प को पूरा करने की शक्ति प्रदान करें, इसी मंगल कामना के साथ आप सभी को दुर्गा प्रसाद शर्मा का जय श्री कृष्ण।
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