क्रांतिकारी वीरांगना कनकलता बरुआ

हम भाग्यशाली हैं जो हमारा जन्म आजाद देश में हुआ बोलने, खेलने, घुमने, फिरने से लेकर कार्य व्यवसाय चुनने करने आदि सभी की आजादी है किन्तु पहले ऐसा नहीं था, तब तो बच्चे के जन्म से ही संघर्ष प्रारम्भ हो जाता था। गुलामी की दीवारों में बचपन, जवानी, बुढ़ापा सब खिलकर मुरझा जाते थे। उस ज़माने में प्रत्येक स्वाभिमानी व्यक्ति के समक्ष एक ही प्रश्न होता था - आजादी। आजादी के दीवाने उन लोगों को किसी उम्र, जाति, लिंग अथवा क्षेत्र के बंधन में नहीं बांधा जा सकता था, हर वर्ग के लोगों ने आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया है किन्तु कुछ जानकारी में रहे तथा कुछ गुमनामी के अंधेरों में खो गए।  केवल 17 वर्ष आयु की बलिदानी कनकलता बरुआ अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से छोटी रही हों किन्तु त्याग और बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं है।
असम के जिला दारंग के बारंगबाड़ी गांव के कृष्णकांत बरुआ और कर्णेश्वरी देवी की पुत्री कनकलता बरुआ का जन्म 22 दिसंबर 1924 को हुआ था। कनकलता के दादाजी धनाकांत बरुआ उस क्षेत्र के नामी शिकारी थे। बचपन में ही कनकलता के माता पिता का निधन हो गया था और नानी ने उनका लालन पालन किया था। कनकलता जब सात वर्ष की थी तब पास के ही एक गांव में कुछ क्रन्तिकारियों का आगमन हुआ वहाँ स्कूली बच्चों ने एक सभा आयोजित की थी, जिस सभा में कनकलता अपने मामा देवेंद्र नाथ और यादराम बोस के साथ गई तभी से उसके बालमन में स्वाधीनता आंदोलन के प्रति झुकाव निर्मित हो गया था। उस सभा के अध्यक्ष के गाये गीतों से कनकलता काफी प्रभावित और प्रेरित हुई और उसके मन में राष्ट्र भक्ति का बीज अंकुरित हो उठा। इस सभा में भाग लेने वालों  को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया, इस घटना से क्रांति की अग्नि सम्पूर्ण असम में फ़ैल गई।

कनकलता के घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव बना रहे थे और वह पुरे मन से आंदोलन में लगी हुई थी।  अंग्रेजों भारत छोडो आंदोलन ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ देश के कोने कोने में फैल गया था, पुलिस के अत्याचार बढ़ गए थे, स्वतंत्रता सेनानियों से जेलें भर गई। शासन के दमन के साथ आंदोलन भी बढ़ता गया। इसी बीच कनकलता के घर से 82 मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराने का निर्णय एक सभा में लिया गया। कनकलता दोनों हाथों में तिरंगा थामकर उस जुलुस का नेतृत्व करते हुवे चल दी। नेताओं को आशंका थी कि कनकलता और उसके साथी रास्ते में से ही लौट न जाये, संदेह को भांपकर कनकलता गरज कर बोली कि हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिये, नाशवान तो शरीर है आत्मा अमर है और हम किसी से क्यों डरें, करेंगे या मरेंगे के नारे लगाते हुवे थाने की ओर बढ़ चली। 

जुलुस के गगनभेदी नारों के साथ आत्म बलिदानी जत्था थाने के करीब जा पहुंचा। जुलुस में सम्मिलित सभी लोग इतने मतवाले हो रहे थे कि हर व्यक्ति पहले झंडा फहराना चाह रहा था। थाना प्रभारी पी एम सोम जुलुस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ और बोला कि आगे मत बढ़ना वरना गोली चल जाएगी। मतवाली कनकलता बोली हम आपसे लड़ने नहीं आये हैं हम तो सिर्फ थाने पर झंडा फहरा कर चले जायेंगे। थाना प्रभारी ने पुनः चेतावनी दी कि अब एक इंच भी  बढ़े तो गोलियों से उडा दिए जाओगे। लेकिन आजादी के मतवाले कहाँ सुनते वे तो बढ़े। सबसे आगे कनकलता थी, वह बोली तुम गोली चला सकते हो किन्तु हमें रोक नहीं सकते। उसके आगे बढ़ते ही पुलिस ने गोलियों की बौछार कर दी।  पहली गोली कनकलता के सीने पर लगी, दूसरी  गोली साथी मुकुंद काकोति को लगी।  दोनों की तत्काल मृत्यु हो गई, इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियां चलना बंद नहीं हुई।

कनकलता का साहस और बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर बलिदानी युवक आगे बढ़े। गोलियाँ चलती रही लोग घायल होते रहे एक के बाद एक गिरते रहे किन्तु झंडे को झुकने नहीं दिया और आगे बढ़ते रहे, आखिर में साथी रामपति राजखोवा ने तिरंगा फहरा दिया। शहीद साथी मुकुंद की लाश तो तेजपुर नगरपालिका के लोग उठा ले गए और गुप्त रूप से अंतिम संस्कार कर दिया किन्तु कनकलता की देह क्रांतिकारी ले जाने में सफल रहे और कनकलता के गाँव में ले जाकर अंतिम संस्कार किया। कहा जाता है कि जिस सिपाही ने कनकलता पर गोली चलाई थी उसे अपने ही देश की १७ वर्षीय क्रांतिकारी कन्या को मारने की इतनी अधिक ग्लानि हुई कि उसने भी एक कुए में कूदकर अपनी जान दे दी।  हमारे देश की ऐसी जांबाज क्रांतिकारी वीरांगना कनकलता बरुआ को शत शत नमन।  जय हिन्द जय भारत - दुर्गा प्रसाद शर्मा।  

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