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Showing posts from 2023

नव निधियाँ

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। मानव जीवन में सुख, सम्पत्ति, यश, वैभव, ऐश्वर्य आदि की उपलब्धि मानव की मेहनत से कहीं अधिक भाग्य और प्रारब्ध पर निर्भर करती है।  प्रायः हम देखते हैं कि कुछ लोगों को काफी अल्प प्रयास करने पर भी काफी कुछ मिल जाता है तो कई ऐसे भी लोग देखने को मिल जायेंगे, जो काफी मेहनत करने के बाद भी अपनी गुजर बसर बड़ी ही मुश्किल से कर पाते हैं। मानव जीवन में तीन गुणों का प्रभाव होता है - सत्व गुण,  रज गुण और तम गुण और इन तीनों गुणों के आधार पर ही मानव के भाग्य और प्रारब्ध का निर्माण होता है जिसके अनुसार ही मानव को अपने जीवन काल में सुख दुःख सम्पत्ति, यश, वैभव, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है साथ ही इनके उपयोग उपभोग की अवधि का भी निर्धारण होता है। सुख सम्पत्ति के उपयोग और उपभोग की प्राप्ति और उसकी भोग अवधि को निधियों के रूप में हमारे धर्म शास्त्रों में बताया गया है।  

रानी वेलू नचियार

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। सन 1857 की क्रांति को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता है किन्तु भारतीय इतिहास में इसके पहले भी कई राजा और सम्राट हुवे हैं, जिन्होंने विदेशी ताकतों को हमारे देश में आसानी से पाँव ज़माने नहीं दिए थे। भारत भूमि पर अनेक वीरांगनाओं ने भी जन्म लिया और फिर देश की रक्षा के लिए हँसते हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। रानी वेलू नचियार भी ऐसी ही एक वीरांगना थी, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थी, जिन्होंने रानी लक्ष्मी बाई के भी बहुत पहले ईरानी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ हथियार उठाये थे। रानी वेलू नचियार ने तमिलनाडु के शिवगंगई क्षेत्र में जन्म लिया था और विदेशी आक्रांताओं से लोहा लेकर उनको नाकों चने चबवा दिए थे। तमिल क्षेत्र में उन्हें वीरमंगाई अर्थात बहादुर महिला के नाम से सम्बोधित किया जाता है।  

कार्तिक पूर्णिमा

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। विक्रम संवत के प्रत्येक माह की अंतिम तिथि होती है, पूर्णिमा अर्थात पूर्णमासी।  प्रत्येक माह के अंत में आने वाली यह तिथि पूरे वर्षभर में 12 बार आती है और जिस वर्ष अधिकमास होता है, उस समय 13 बार आती है। प्रत्येक माह की पूर्णिमा तिथि का पृथक पृथक महत्त्व है किन्तु कार्तिक मास की पूर्णिमा का अपना अलग ही महत्त्व है। कार्तिक मास को श्रावण मास से भी अधिक पावन मास माना गया है, कार्तिक मास स्नान की भी परम्परा प्रचलित है, जिसका कई धर्मप्रेमीजन निर्वाह भी करते हैं यह भी कहा जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान से भी पुरे माह के स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। वैष्णव और शैव दोनों ही पंथ कार्तिक मास को एक समान नियम और संयम पूर्वक पूजते हैं। कार्तिक माह की पूर्णिमा को देव दीवाली अर्थात देवताओं की दीवाली के रूप में मनाया जाता है, कहा जाता है कि इस दिन देवता स्वर्ग से पृथ्वी पर आकर विचरण करते हैं। 

आँवला नवमी (अक्षय नवमी)

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। संतान प्राप्ति और अपने परिवार में सुख, शांति एवं समृद्धि की कामना से कार्तिक मास की नवमी तिथि को आँवला नवमी का पर्व मनाया जाता है, अक्षय तृतीया के समान फल देने के कारण इसे अक्षय नवमी भी कहा जाता है। वैसे तो यह पर्व संपूर्ण देश में मनाया जाता है किंतु बृज मंडल में इस पर्व की महत्ता कुछ अलग ही है, वहाँ बड़ी धूमधाम और विधि विधान से मनाया जाता है। उत्तर भारत और मध्य भारत में आँवला नवमी या अक्षय नवमी के रूप में मनाए जाने वाले पर्व को दक्षिण और पूर्वी भारत में  इस दिन जगद्धात्री देवी की पूजा उत्सव के रूप में मनाते हैं। इस प्रकार से आँवला नवमी के साथ साथ इसे अक्षय नवमी, धात्री नवमी और कूष्माण्डा नवमी भी कहा जाता है।  ऐसी मान्यता है कि इस दिन किये हुए सद्कार्य का पुण्य फल कई गुना और बहुत अधिक समय तक मिलता है। पापों और कष्टों से मुक्ति के लिए इस दिन आँवले के वृक्ष की पूजा करने और व्रत रखने की परंपरा चली आ रही है, जिसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि माता लक्ष्मी जी ने इसे प्र...

गोपाष्टमी

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। हमारे  देश में प्राचीन काल से ही यह परम्परा रही है कि हम अपनी दिनचर्या के कार्यों को करने में भी उत्सव मना लेते हैं और उसके बाद वही परिपाटी पर्व के रूप में मान्यता भी ले लेती है। एक इसी प्रकार की दिनचर्या भगवान श्री कृष्ण जी ने अपने बाल्यकाल में की थी, जो आज हम गोपाष्टमी को एक पर्व के रूप में उल्हासपूर्वक मनाते है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन से ही भगवान श्री कृष्ण जी ने गौ चारण की लीला प्रारम्भ की थी। इसके अतिरिक्त एक अन्य मान्यता के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से सप्तमी तिथि तक भगवान श्रीकृष्ण जी ने गोवर्धन पर्वत को धारण किया था और अष्टमी तिथि को देवराज इन्द्र ने अहंकार रहित होकर भगवान की शरण में आकर क्षमायाचना की थी और उसी दिन कामधेनु गाय द्वारा भगवान का अभिषेक भी किया था, तब गायों की रक्षा करने के कारण भगवान का नाम गोविन्द पड़ा और तब से ही कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जाने लगा। 

भाई दूज (यम द्वितीया)

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। रक्षा बंधन के अतिरिक्त   हिन्दू धर्म का भाई बहनों का एक अति महत्वपूर्ण पर्व भाई दूज मनाया जाता है, जोकि कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि अर्थात दीपावली के दो दिन बाद मनाया जाता है। भाई के प्रति बहन के स्नेह की अभिव्यक्ति के इस पर्व पर बहनें अपने भाइयों की खुशहाली के लिए कामना करती हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस दिन यमुना ने अपने भाई यमराज को अपने घर पर सत्कारपूर्वक भोजन कराया था, उस दिन कई जीवों को नारकीय यातनाओं से मुक्ति मिली होकर वे सभी पाप मुक्त होकर समस्त बंधनों से मुक्ति पा गए थे और पूर्णतः तृप्त हो गए थे। यमलोक की यातनाओं से मुक्ति के कारण यह पर्व यम द्वितीया के नाम से विख्यात हो गया, ऐसा माना जाता है कि इस दिन जो भी भाई अपनी बहन के हाथ का बना उत्तम भोजन करता है, वह ईहलोक में समस्त सुख और ऐश्वर्य प्राप्त करता है साथ ही यमलोक की नारकीय यातनाओं से भी मुक्ति पा जाता है।   

औदीच्य गौरव ब्रह्मनिष्ठ पूज्य श्री जयनारायण बापजी वकील साहब

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। हमारे सनातन धर्म और हमारे भारत देश में एक नहीं कई घटनाएँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करती रही है कि ईश्वरीय शक्ति इस दुनिया में विद्यमान है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता। हमारे जीवन में भी इस प्रकार की कई घटनाएँ घटित होती है, जोकि ईश्वतरीय शक्ति का एहसास दिलाती है किन्तु हम उन्हें उस समय तो अनदेखा कर देते हैं, फिर बाद में याद  भी करते हैं। इसी प्रकार की एक घटना मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले के आगर में वर्ष 1932 में घटित हुई थी, जिसने यह प्रमाणित कर दिया कि यदि ईश्वर में आस्था और विश्वास हो तो वे आपका साथ अवश्य देते हैं। यह घटना अवधूत श्री नित्यानंद जी बापजी के विशेष कृपापात्र, परम साधक, ब्रह्मनिष्ठ हमारे औदीच्य ब्राह्मण समाज के प्रेरणापुंज दिव्य विभूति श्री जयनारायण बापजी की है, जिनकी आज कार्तिक कृष्ण पक्ष षष्ठी तिथि को पुण्यतिथि है उन्हीं को स्मरण करते हुवे उनके श्री चरणों में वंदन करते हुवे यह पुष्पांजली स्वरुप आलेख उन्हीं को समर्पित है। 

सनातन धर्म के ऋषि मुनि एवं विद्वतजन की दक्षता और वैज्ञानिक आविष्कार

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन  सम्पूर्ण लौकिक एवं वैदिक संस्कृत वाड़्मय में चिरकाल से विज्ञान शब्द का व्यवहार होता आया है। विज्ञान अंतःकरण है, विज्ञान ब्रह्म है, विज्ञान अनुभवात्मक ज्ञान है। हमारे वेद पुराण उपनिषद शास्त्रों में विज्ञानं के कई गूढ़ रहस्यों का  उल्लेख है, जिसमे कई आविष्कार और तकनीकियों का उल्लेख है। आज पश्चिम देश भी हमारे उन्हीं साहित्यो की  सहायता से उपलब्धियां प्राप्त कर रहे हैं।  हम पुरातन समय में ही सम्पूर्ण विश्व में सबसे उन्नत तकनीकि  सपन्न रहे होकर हमारे प्राचीन ऋषि मुनि जोकि हमारे आदि वैज्ञानिक रहे होकर उन्होंने एक आविष्कार करते हुवे विज्ञान को सर्वोच्च ऊचाइयों तक पहुँचाया था। आज हम इसी संबंध में चर्चा करने का प्रयास कर रहे हैं। आज हमारे यहाँ  पंचांग की गणना से सैकडों हजारों साल बाद की खगोलीय घटना ग्रहण आदि की सटीक जानकारी दी जाती है जो जानकारी नासा भी इतना सटीक नहीं दे सकती है।   

बाल वीरांगना कुमारी मैना

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय)    में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन।  हमारे देश में आजादी के कई ऐसे दीवाने हुवे हैं जिन्होंने हंसते हंसते अपना सबकुछ भारत देश पर न्यौछावर कर दिया, अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। वहीं कुछ ऐसे देशद्रोही विश्वासघाती भी हुवे हैं, जिन्होंने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुश्मनो से मित्रता कर ली और देश को गुलामी की जंजीरो में जकड दिया। महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, मंगल पाण्डे अपने बलिदान के लिए इतिहास में अमर हैं तो मानसिंग, जयचंद जैसे देशद्रोह और विश्वासघात के लिए इतिहास में कलंकित भी हैं। देश की आज़ादी के लिए कई क्रांतिकारियों ने बलिदान दिए, हर क्रांतिकारी अपने अपने तरीके से अपने देश को आज़ाद कराना चाहता था, इन्हीं में से एक क्रान्तिकारी थे नाना साहेब पेशवा द्वितीय, जो सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख व्यक्तित्व थे। नाना साहेब पेशवा ने कानपुर में अंग्रेजॉ के विरूद्ध स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था और इन्हीं की दत्तक पुत्री थी  बाल वीरा...

विजयादशमी (दशहरा)

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मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन। हमारे देश में मनाये जाने वाले प्रमुख त्यौहारों में से एक पर्व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाने वाला पर्व है, जिसे विजयादशमी कहा जाता है, इस पर्व को दशहरा भी कहा जाता है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता और शौर्य से परिपूर्ण रही है और मातृशक्ति की साधना के नौ दिवस में शक्ति संचय उपरांत शक्तिशाली मनुष्य विजय प्राप्ति हेतु तत्पर रहता है, इस दृष्टी से दशहरे का पर्व विजय के लिए प्रस्थान का भी पर्व है। भगवान श्री रामचंद्र जी ने रावण वध के लिए इसी दिन प्रस्थान किया था और रावण वध कर विजय प्राप्त की थी। रावण दहन की परम्परा भी प्रचलित है। यह भी मान्यता रही है कि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को तारा उदय होने से समय विजय नामक मुहूर्त होता है, जो सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है संभवतः इसलिए भी इस दिन को विजयादशमी कहा जाता है। कुछ लोग भगवती विजया से भी इस दिन का सम्बन्ध होना बताते हैं। जगदम्बा दुर्गा देवी ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध उपरांत महिषासुर पर विजय भी इसी दिन प्र...

ऋषि पंचमी

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भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी के रूप में मनाया जाने वाला पर्व महिलाओं के लिए अटल सौभाग्यवती व्रत माना जाता है, इस दिन स्त्रियाँ सप्तऋषियों के सम्मान और रजस्वला दोष से शुद्धि के लिए उपवास रखकर पूजन करती हैं। ऐसी मान्यता है कि महिलाओं की माहवारी के समय अनजाने में हुई धार्मिक गलतियों और उनसे होने वाले दोषों के शमन के लिए और उन दोषों की मुक्ति के लिए इस व्रत को किया जाता है।  समस्त पापों को नष्ट कर देने वाले इस व्रत के दिन किसी देवी देवता का पूजन नहीं किया जाता है बल्कि इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुवे सप्तऋषियों की पूजा की जाती है।  इसे भाई पंचमी भी कहा जाता है, कई लोग इसी दिन राखी का त्यौहार भी मानते हैं। इस दिन माता अरुंधति के साथ सप्तऋषियों की पारम्परिक पूजा होती है और इस दिन मोरधन का आहार ही लिया जाता है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों में इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी का पूजन किया जाता है।  

हरतालिका तीज

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भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला पर्व है हरतालिका तीज ,  जिसे गौरी तृतीया भी कहा जाता है। भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित यह पर्व अविवाहित एवं विवाहित सभी महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। अविवाहित युवतियां श्रेष्ठ एवं मनोवांछित वर की प्राप्ति हेतु तो विवाहित महिलाएं अखंड सौभाग्य की प्राप्ति हेतु इस पर्व को मानती हैं। भगवान शिव, माता पार्वती और श्री गणेश जी की निराहार रहकर पूजन प्रत्येक प्रहर करते हुवे फल, फूल और पत्रादि वनस्पतियां अर्पित की जाती है, रात्रि जागरण कर भजन कीर्तन किये जाते हैं।  इस व्रत के बारे में कहा जाता है कि इसे एक बार प्रारम्भ करने के बाद छोड़ा नहीं जाता बल्कि आजीवन किया जाता है। रात्रि जागरण उपरांत प्रातः काल आखिरी में पूजन कर माता गौरी को सिंदूर अर्पित कर ककड़ी का भोग लगाया जाता है, उस प्रसाद से महिलाएं अपना व्रत खोलती हैं और फिर अन्न ग्रहण करती हैं। 

हरिद्वार अर्थात हर और हरि का द्वार

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विक्रम सम्वत 2080 के श्रावण मास के अधिक मास में हमारे परम स्नेही आदरणीय बड़े भाई साहब श्री सुरेशचंद्र जी कंसल एवं अन्य आत्मीयजन द्वारा उत्तराखण्ड की देवभूमि हरिद्वार में श्रीमद भागवत कथा ज्ञान महोत्सव का आयोजन रखा गया था, जिस महोत्सव में उपस्थित होकर श्रीमद भागवत कथा श्रवण, श्री गंगा जी के प्रतिदिन स्नान और दर्शन, श्री गंगा जी की आरती के दर्शन, देवभूमि हरिद्वार में आठ दिवस का निवास तथा देवदर्शनों के लाभ का परम सौभाग्य किसी पुण्याई से और आप सभी स्नेहीजनों की शुभकामनाओं से प्राप्त हुआ। उसी समय वहीं पर देवभूमि हरिद्वार के बारे में भी कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई और उसे आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ। हरिद्वार अर्थात हर और हरी का द्वार, यह वह स्थान है जहाँ से ही पवित्र देवभूमि की परम यात्रा प्रारम्भ होती है। उत्तराखण्ड के चारों धाम श्री बद्रीनाथ धाम, श्री केदारनाथ धाम, श्री गंगोत्री धाम, श्री यमुनोत्री धाम एवं अन्य देवतीर्थ सहित प्रयागादि की यात्रा हरिद्वार से ही पूजन आदि के बाद ऋषिकेश होते हुवे प्रारम्भ होती है। इसी कारण से यह स्थान श्री हरि का द्वार कहा जाता है। 

देवाधिदेव श्री महादेव जी के द्वादश ज्योतिर्लिंग

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हमारे देश में देवाधिदेव श्री महादेव जी के वैसे तो असंख्य मंदिर हैं जहाँ भगवान श्री भोलेनाथ की सेवा पूजा की जाती है किन्तु मुख्य रूप से द्वादश ज्योतिर्लिंग का विशेष महत्त्व है। सम्पूर्ण भारत देश के भिन्न भिन्न बारह स्थानों पर विराजमान भगवान श्री भोलेनाथ की महिमा से उन सभी स्थानों को तीर्थ क्षेत्र की मान्यता होकर इन सभी स्थानों पर प्रतिदिन असंख्य श्रद्धालुजन भगवान श्री भोलेनाथ के दर्शन एवं पूजन के लिए जाते हैं और भगवान भोलेनाथ जी के दर्शन, पूजन और आराधना करके अपना जीवन धन्य करते हैं तथा देवाधिदेव श्री महादेव जी भी उन भक्तजनों के पापों का नाश कर उन भक्तों का उद्धार करते हैं। सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनं। उज्जयिन्यां महाकाल मोंकार ममलेश्वरं। परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करं।  सेतुबन्धे तू रामेशं नागेशं दारुकावने। वाराणस्यां तू विश्वेशं त्रयम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तू केदारं धुश्मेशं च शिवालये। एतानि ज्योतिर्लिंगानी सायं प्रातः पठेन्नरः। सप्त जन्म कृतं पापं स्मरेणं विनश्यति।  देवाधिदेव श्री महादेव जी के द्वादश ज्योतिर्लिंग के बारे में कहा गया है कि इनके ...

संत कनप्पा

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आंध्र प्रदेश के राजमपेट इलाके में जन्में संत कनप्पा भगवान शिव जी के महान उपासक 63 नयनार संतों में से एक माने जाते हैं।  माता पिता ने उनका नाम थिन्ना रखा था किन्तु वे थिनप्पन, थिन्नन, धीरा, कन्यन, कन्नन और अन्य भी कई नामों से जाने जाते थे। पेशे से शिकारी रहे कनप्पा कालांतर में संत बन गए थे, संत कनप्पा के भक्तगणों की मान्यता थी कि संत कनप्पा अपने पूर्व जन्म में पाण्डु पुत्र अर्जुन थे। कहा जाता है कि जब अर्जुन पाशुपतास्त्र के लिए भगवान शिव जी का ध्यान कर रहे थे, तब अर्जुन की परीक्षा के लिए भगवान शिवजी शिकारी के रूप में जंगल में आये और उसी समय एक शिकार पर अर्जुन और शिवजी दोनों ने अपने अपने बाण चला दिए उसके बाद शिकार किसने किया इस पर दोनों में विवाद हुआ और विवाद इतना बढ़ा कि दोनों में युद्ध प्रारम्भ हो गया।  जब शिवजी ने देखा कि अर्जुन पाशुपतास्त्र के लिए योग्य है, तो उन्होंने प्रसन्न होकर अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान किया तथा  अगले जन्म में उनके सबसे बड़े भक्त के रूप में जन्म लेने का आशीर्वाद भी प्रदान किया, जिसके परिणामतः संत कनप्पा ने जन्म लिया और अंत में उन्होंने शिव कृपा से...

वर्त्तमान समय में शिक्षा कैसी हो ?

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हमारी सनातन सभ्यता के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ऐसे ज्ञान की प्राप्ति कराना है जिससे कि इहलोक में सर्वांगीण विकास अर्थात शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और नैतिक विकास हो तथा परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो। भगवान श्री कृष्ण जी ने भी गीता में कहा है कि शिक्षा ऐसी हो जो हमें अज्ञान के बंधन से मुक्त कर दे। संभवतः इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुवे प्राचीन समय में हमारे ऋषि मुनिगण ने चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) की व्यवस्था की थी। ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुवे विद्यार्थी संयम की व्यवहारिक शिक्षा के साथ साथ लौकिक और परलौकिक ज्ञान प्राप्त करके जब गुरुकुल से निकलता था तब वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अपने जीवन को संयम, सेवा और त्याग से परिपूर्ण करते परमात्मा के स्वरुप में रम जाता था। 

वीरांगना रायबाघिनि महारानी भवशंकरी

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भारतीय इतिहास में सनातनी कन्याओं का नाम धर्म और राष्ट्र के लिए हुवे संग्रामॉ में अग्रणीय होता था। इतिहास साक्षी है कि देश की कन्याओं ने विधर्मी आक्रमणकारियों के विरूद्ध शस्त्र उठाकर अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा की है, उन्हीं में से एक महान विप्र कन्या वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी थी। वर्तमान पश्चिम बंगाल का हुबली और हावड़ा का क्षेत्र सोलहवीं शताब्दी में भूरिश्रेष्ठ नामक एक समृद्ध राज्य के अंग होते थे, जहाँ राजा कृष्णराय जी का शासन था, कृष्णराय जी के पुत्र शिवनारायण और शिवनारायण जी के पुत्र रुद्रनारायण हुवे थे, इन्हीं रुद्रनारायण जी की सहधर्मिणी थी, वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी। सनातन धर्म का विजयध्वज लहराते हुवे वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी ने अफगान सुल्तानों को पराजित कर राष्ट्र की रक्षा की।  दिल्ली में उस समय मुगल बादशाह अकबर का शासन था।  

श्री रामचरित मानस - कौन जीवित व्यक्ति है मृतक समान

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मृत्यु एक शास्वत सत्य है, जो इस संसार में आया है उसे एक न एक दिन जाना है, किन्तु कई लोग इस प्रकार के होते हैं, जो मरने के बाद भी अमर हो जाते हैं लोग उनका नाम भूलते नहीं उनके जीवन को आदर्श मानकर उपदेशों में भी उनके जीवन का दृष्टांत बताते हैं, तो कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी पहचान उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाया करती है किन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो जीवित होते हुवे भी मृतक समान माने जाते हैं। श्री रामचरित मानस में भी ऐसे लोगों का उल्लेख लंका काण्ड में राम रावण युद्ध के समय अंगद - रावण संवाद में आया है जब अंगद ने लंकापति रावण से कहा है कि हे रावण तुम तो मरे हुवे हो और मरे हुवे को मारने से क्या फायदा। तब लंकापति रावण ने पूछा कि मैं जीवित हूँ, मुझे किस आधार पर मरा हुआ बता रहे हो तो अंगद बोले कि केवल श्वांस लेने वाले को ही जीवित नहीं कहते, श्वांस तो लौहार की धौंकनी भी लिया करती है इंसान के कर्म और उसकी स्थिति ही निर्धारित करती है कि उसे जीवित माना जाय या मृतक। 

दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले

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दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले के नाम से हमारे देश में कई लोग अपरिचित होंगे, स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे क्रांतिकारी हैं जो कि गुमनामी के अंधेरों में गुम हो चुके है, उन्हीं में से एक नाम है दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले का।  सन 1723 में सेठ फतेहचंद जी को तत्कालीन बादशाह ने जगत सेठ की उपाधि प्रदान की थी, तब से ही वह सम्पूर्ण घराना जगत सेठ के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले के पिता सेठ मानिकचंद जी इस घराने के संस्थापक थे। सेठ मानिकचंद जी ने 17 वीं शताब्दी में राजस्थान के नागौर जिले के एक मारवाड़ी परिवार में हीरानंद जी साहू के घर जन्म लिया था।  हीरानंद जी साहू ने अपने व्यवसाय हेतु बिहार का चयन करते हुवे उन्होंने अपना व्यवसाय का विस्तार बिहार, बंगाल, दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई प्रमुख बड़े शहरों तक किया। यह घराना उस समय का सबसे धनवान बैंकर घराना माना जाता था,  इन घरानों की सम्पन्नता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय ब्रिटिश की सभी बैंकों से भी अधिक पैसा इन जगत सेठों के पास हुआ करता था और समय समय पर ये...

ठाकुर जी की दर्पण सेवा

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 एक गांव में एक वृद्ध माताजी अपने घर में श्यामसुंदर जी की बड़ी सेवा किया करती थी। वे प्रातः जल्दी उठकर अपने ठाकुरजी को बड़े ही प्यार, दुलार और मनुहार करके उठाती, उसके बाद उन्हें स्नान कराकर, उनका श्रृंगार करत्ती और श्रृंगार के बाद ठाकुरजी को दर्पण में उनका श्रृंगार दिखाकर ही उन्हें भोग लगाती थी। इस प्रकार वे वृद्ध माताजी नित्य अपने ठाकुरजी की सेवा में लीन रहते हुवे अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। एक बार उन माताजी को एक माह की लम्बी यात्रा पर जाने का अवसर आया तो सवाल ठाकुरजी की सेवा का सामने आया। तब उन वृद्ध माताजी ने जाने के पहले ठाकुरजी की सेवा अपनी पुत्रवधु को सौंपते हुवे समझा रही थी कि ठाकुरजी की सेवा में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रखना, उनको श्रृंगार के बाद दर्पण अवश्य दिखाना और श्रृंगार इतना अच्छा करना कि ठाकुरजी मुस्कुरा दे।