आँवला नवमी (अक्षय नवमी)
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। संतान प्राप्ति और अपने परिवार में सुख, शांति एवं समृद्धि की कामना से कार्तिक मास की नवमी तिथि को आँवला नवमी का पर्व मनाया जाता है, अक्षय तृतीया के समान फल देने के कारण इसे अक्षय नवमी भी कहा जाता है। वैसे तो यह पर्व संपूर्ण देश में मनाया जाता है किंतु बृज मंडल में इस पर्व की महत्ता कुछ अलग ही है, वहाँ बड़ी धूमधाम और विधि विधान से मनाया जाता है। उत्तर भारत और मध्य भारत में आँवला नवमी या अक्षय नवमी के रूप में मनाए जाने वाले पर्व को दक्षिण और पूर्वी भारत में इस दिन जगद्धात्री देवी की पूजा उत्सव के रूप में मनाते हैं। इस प्रकार से आँवला नवमी के साथ साथ इसे अक्षय नवमी, धात्री नवमी और कूष्माण्डा नवमी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन किये हुए सद्कार्य का पुण्य फल कई गुना और बहुत अधिक समय तक मिलता है। पापों और कष्टों से मुक्ति के लिए इस दिन आँवले के वृक्ष की पूजा करने और व्रत रखने की परंपरा चली आ रही है, जिसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि माता लक्ष्मी जी ने इसे प्रारंभ किया था जो आज तक चली आ रही है।
कहा जाता है कि एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करने आई, तब मार्ग में उनके मन में भगवान विष्णु एवं भगवान शिव जी की एक साथ पूजन करने की इच्छा जाग्रत हुई, अब यह कैसे होगी इस पर विचार करने पर ध्यान आया कि भगवान विष्णु को तुलसी अति प्रिय है और शिवजी को बेल। अब दोनों के सामंजस्य की बात आई तो आँवले के वृक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नजर नहीं आया, एकमात्र आँवले का वृक्ष ही ऐसा वृक्ष है जिसमें तुलसी और बेलपत्र दोनों के गुणों का समावेश है। उसके बाद माता लक्ष्मी ने आँवले के वृक्ष को भगवान विष्णु जी और शिवजी का प्रतीक मानकर पूजा की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु जी और शिवजी वहाँ प्रकट हुए जिन्हें माता लक्ष्मी ने वहीं पर भोजन तैयार करके भोजन कराया और स्वयं भी किया। संयोग से उस दिन कार्तिक मास की नवमी तिथि थी, तब से ही इस दिन यह परंपरा चली आ रही है।
इस दिन का महत्व अन्य प्रचलित मान्यताओं से और भी अधिक बढ जाता है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं। जैसे - द्वापर युग का आरंभ इसी दिन हुआ था। इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु जी ने इसी दिन कुष्मांडक नामक दैत्य का संहार किया था। कंस के वध के पहले भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन बृज मंडल में तीन वनों की परिक्रमा भी की थी, उस परंपरा का निर्वाह आज भी इस दिन वृंदावन की परिक्रमा करके किया जाता है। इन सबसे पृथक इसी दिन भगवान श्री कृष्ण द्वारा अपनी बाल लीलाओं को त्याग कर गोकुल वृंदावन को छोड़कर अपने कर्तव्य पथ पर आगे लीला करने के लिए मथुरा को प्रस्थान किया था।
महिलाऐं इस दिन प्रातःकाल में शीघ्र स्नानादि से निवृत्त होकर आँवले के वृक्ष की पूजा करने जाती हैं, वहाँ साफ सफाई करके आँवले की जड़ में शुद्ध जल, कच्चा दूध अर्पित कर विधिपूर्वक पूजा करती हैं, आँवले के वृक्ष की अपनी सामर्थ्य अनुसार परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेटती हैं तथा सवा मन आँवला दान करने वाले राजा और निःसंतान वैश्य की प्रचलित कथाऑ का श्रवण भी करती हैं। पूजन के बाद अपने अपने घरों से लाई खाध्य सामग्री वृक्ष के नीचे ही बैठकर ग्रहण करती हैं और उसके बाद आँवले का फल और सुहाग सामग्री अथवा अन्य उपहार एक दूसरे को वितरीत करती हैं। कई स्थानों पर इस दिन व्रत भी रखा जाता है। इस दिन आँवले का सेवन करना और दान करना अति महत्वपूर्ण माना जाता है। आँवले के वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा करते समय या भोजन करते समय अपने शरीर या थाली में आँवला या उसकी पत्ती गिर जाए तो उसे काफी शुभ संकेत माना जाता है।
शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान ने फलों में आँवले में अपने आपको विध्यमान होना बताया है वहीं आयुर्वेद में आँवले के विशिष्ट गुणधर्म के कारण उसे अमृत फल भी कहा गया है, आँवले के सेवन से गरिष्ठ भोजन भी शीघ्र पच जाता है। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को स्नान, दान आदि श्रेष्ठ कर्मों के संपादन एवं आँवले के वृक्ष का पूजन करने से साधकों को श्री: आयुष्य आरोग्य एवं श्री लक्ष्मीनारायण की विशेष कृपा प्राप्त होती है। शास्त्रों में बताया गया है कि आंवला नवमी के दिन किया गया पुण्य कार्य अक्षय होकर कभी खत्म नहीं होता है। इस दिन जो भी शुभ कार्य जैसे दान, पूजा-अर्चना, भक्ति, सेवा आदि की जाती हैं, उसका पुण्य कई जन्म तक मिलता है अर्थात इस दिन किए गए शुभ कार्यों का फल अक्षय होता है, इसलिए इस तिथि को अक्षय नवमी के नाम से भी जाना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि आँवला नवमी के दिन विधि विधान से आँवले के वृक्ष की पूजनादि करने से कुल और समाज में गौरव और प्रतिष्ठा दिलाने वाली संतान सुख तो प्राप्त होता ही है पति पत्नी के संबंध भी मधुर और प्रगाढ़ होते हैं। इसके अतिरिक्त आत्मिक शांति मिलती है, मन पवित्र होता है और जीव को जन्म जन्मांतर के आवागमन से भी मुक्ति मिलती है। लेख पर लगाया गया चित्र मेरी दिवंगत धर्मपत्नी के साथ वर्ष 2019 में की गयी आँवले के वृक्ष की अंतिम पूजा के समय का है, जो आज भी पर्व पर मधुर स्मृति पटल पर अंकित है। आँवला नवमी के इस पावन पर्व के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामनाओं के साथ दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का जय श्री कृष्ण।
Comments
Post a Comment