वीरांगना रायबाघिनि महारानी भवशंकरी
भारतीय इतिहास में सनातनी कन्याओं का नाम धर्म और राष्ट्र के लिए हुवे संग्रामॉ में अग्रणीय होता था। इतिहास साक्षी है कि देश की कन्याओं ने विधर्मी आक्रमणकारियों के विरूद्ध शस्त्र उठाकर अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा की है, उन्हीं में से एक महान विप्र कन्या वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी थी। वर्तमान पश्चिम बंगाल का हुबली और हावड़ा का क्षेत्र सोलहवीं शताब्दी में भूरिश्रेष्ठ नामक एक समृद्ध राज्य के अंग होते थे, जहाँ राजा कृष्णराय जी का शासन था, कृष्णराय जी के पुत्र शिवनारायण और शिवनारायण जी के पुत्र रुद्रनारायण हुवे थे, इन्हीं रुद्रनारायण जी की सहधर्मिणी थी, वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी। सनातन धर्म का विजयध्वज लहराते हुवे वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी ने अफगान सुल्तानों को पराजित कर राष्ट्र की रक्षा की। दिल्ली में उस समय मुगल बादशाह अकबर का शासन था।
भूरिश्रेष्ठ राज्य के पाण्डुया किला के किलेदार कुलीन ब्राह्मण सेनापति पंडित दीनानाथ जी चौधरी की पुत्री थी वीरांगना रायबाधिनी महारानी भवशंकरी। पंडित दीनानाथ एक वीर, पराक्रमी और युद्ध कला में कुशल थे, उनको बंगाल के सबसे सम्मानित रईसों में से एक माना जाता था। भवशंकरी को बाल्यकाल से ही पिता द्वारा घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरंदाजी में प्रशिक्षित कर दिया था तथा बाद में उन्होंने युद्ध, कूटनीति, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शन शास्त्र और धर्मशास्त्र का अध्धयन किया। पिता के निर्देशन में भवशंकरी उत्कृष्ट सेनानी बनी, वे धार्मिक प्रवृति की की देवी चंडी की अनन्य भक्त थी। यह भी कहा जाता है कि देवी ने प्रसन्न होकर इन्हें यह वरदान दिया था कि उसे युद्ध में कोई नहीं हरा सकता। देवी के ही आशीर्वाद के रूप में उन्हें गढ़ भवानीपुर के पास स्थित झील में से एक तलवार भी मिली थी। भवशंकरी ने अपने विवाह के लिए शर्त रखी थी कि वे उसी व्यक्ति से विवाह करेगी जो उसे तलवारबाजी में हरा देगा, अनेक योद्धा आये और भवशंकरी से पराजित हुवे।
एक बार भवशंकरी पास के जंगल में शिकार के लिए गई, तब उनपर एक जंगली भैंसे ने हमला कर दिया किंतु भवशंकरी ने साहसपूर्वक सामना करते हुए अपने भाले से उसे मार गिराया। उस समय भुरशूट के राजा रूद्रनारायण वह सब देख कर प्रभावित हो गए तथा उन्होंने भवशंकरी को अपना परिचय देकर उनके सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। भवशंकरी ने उन्हें अपनी शर्त बताई, जिसपर राजा बोले कि मैं राजा हूँ और तुम मेरी एक महिला प्रजा, मैं तुमसे कैसे युद्ध कर सकता हूँ। इस पर भवशंकरी ने अपनी शर्त को परिवर्तित किया जिस शर्त को पूरी करने के बाद राजा रूद्रनारायण ने भवशंकरी के साथ विवाह किया। विवाह के बाद वे गढ़ भवानीपुर के बाहर नवनिर्मित महल में रहने लगे, राजा राजकाज में भवशंकरी से सलाह लेते तथा भवशंकरी भी सक्रिय रूचि लेती। देश में उस कालखंड संकट का दौर चल रहा था, विधर्मी आक्रांताओं की अत्याचारी नीति से हिन्दुओं में त्राहि त्राहि मची थी वहां लोग विवशता में धर्म परिवर्तित कर रहे थे या पलायन करने को विवश हो रहे थे।
महारानी भवशंकरी ने सैन्य सुधार और आधुनिकीकरण की व्यवस्था करते हुए सभीजन को सैन्य प्रशिक्षण लेने के लिए प्रोत्साहित किया और बाद सभी के लिए अनिवार्य कर दिया, पुराने किलों को मजबूत कर नये किले निर्मित कराए तथा सुरक्षा व्यवस्था को दुरूस्त किया। उन्होंने महिलाओं को भी प्रशिक्षण देकर उन्हें भी महान साम्राज्य की सेना में भर्ती किया। राजा रुद्रनारायण के सैन्य संयोग और रानी भवशंकरी के प्रशासनिक कौशल के कारन भूरिश्रेष्ठ साम्राज्य हावड़ा और हुगली के आगे पूर्वी वर्धमान, मेदिनीपुर के बड़े हिस्से तक फैल गया था। कुछ समय उपरांत महारानी भवशंकरी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रतापनारायण रखा गया। प्रतापनारायण की पांच वर्ष की आयु रही होगी और उसी समय उनके पिता राजा रुद्रनारायण का निधन हो गया।
राजा रुद्रनारायण की मृत्युपरांत दुखी रानी भवशंकरी ने सती होने का निर्णय लिया। तब राजगुरू हरिदेव भट्टाचार्य जी उनसे मिलने आए और उन्होंने रानी को समझाया कि वे केवल महाराज रूद्रनारायण की ही पत्नी नहीं हैं बल्कि एक नन्हें पुत्र की माता भी है, साथ ही भुरशूट राज्य की महारानी भी हैं। इस समय हमारी मातृभूमि पर विदेशी आक्रमणकारियों का खतरा मंडरा रहा है, ऐसी स्थिति में हमारी मातृभूमि को आपकी अत्यंत ही आवश्यकता है और इस कारण से ऐसे विपरीत समय में आप सती नहीं हो सकती हैं। राजगुरू की बातें सुनकर महारानी भवशंकरी ने अपना सती होने का विचार बदल दिया तथा एक भिक्षुक महिला के समान अपना जीवन व्यतीत करते हुए भूरिश्रेष्ठ के राज्य पर अपने पुत्र प्रतापनारायण की ओर से शासन करना प्रारंभ कर दिया।
उस समय ओडिशा में सुल्तान उस्मान खान की सल्तनत थी और उसकी नजर भूरिश्रेष्ठ राज्य पर थी। एक कम उम्र का राजा और एक दुखियारी विधवा द्वारा शासित राज्य हथियाने के लिए उस्मान खान को उपयुक्त समय प्रतीत हुआ, साथ ही दगाबाज सेना नायक चतुर्भुज चक्रवर्ती का भी उसे सहयोग मिल गया। तब उसने हमले की योजना बनाई। चतुर्भुज से उसे जानकारी मिल गई थी कि रानी प्रतिदिन शिव मंदिर में पूजा करने जाती थी, तब उस्मान खान ने हिंदू सन्यासी के भेष में दो सौ पठान सैनिकों के साथ भुरशूट में प्रवेश किया। रानी का भी सूचना तंत्र कमजोर नहीं था, उन्हें भी उस्मान खान के इरादों की जानकारी हो गई। रानी सदैव तलवार और आग्नेयास्त्र से लैंस रहती थी और निजी महिला अंगरक्षक सदैव उनके साथ रहती थी। रानी जब पूजा करने लगी तब उस्मान खान ने मंदिर को चारों ओर से घेर लिया किंतु उसे रानी की क्षमता का अंदाज़ा नहीं था। उस्मान खान के मंदिर घेरने के बाद उस पर चौतरफा प्रहार शुरू हो गए, सामने से रानी और उनकी महिला अंगरक्षक और पीछे से भूरशूट के जांबाज सैनिक। उस्मान खान के अधिकांश सैनिक मारे गए और वह खुद वहां से कैसे तैसे भागने में सफल हो गया। यह लड़ाई इतिहास में कस्तसनगढ़ की लड़ाई के रूप में अंकित है।
कस्तसनगढ़ की लड़ाई में पराजय के बाद भी उस्मान खान ने भुरशूट पर कब्ज़ा करने के मंसूबे नहीं छोड़े। इस लड़ाई के अवसर पर भूपति कृष्ण राय जिनकी चतुराई से ही उस्मान खान और उसके सैनिकों की पहचान हुई थी, उन्हें रानी ने अपनी सेना का नया सेनापति बना दिया और देशद्रोही चतुर्भुज को सेनापति पद से हटा कर पदावनत कर दिया। चतुर्भुज के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं होने के कारण उन्हें उस समय दण्डित नहीं करना भी रानी की एक भूल ही रही थी। उस्मान खान ने एक बार फिर चतुर्भुज से संपर्क किया और चतुर्भुज ने पुनः वह समय और स्थान बता दिया जब रानी के साथ कम सैनिक और अंगरक्षक रहते हैं। योजना के अनुसार उस्मान खान ने फिर से भूरशूट क्षेत्र में प्रवेश किया और जंगल में छौनापुर किले के पास डेरा डाल दिया।
जनता में रानी के प्रति काफी श्रद्धा थी, एक शिकारी ने उस्मान खान की जानकारी भूरशूट सेना तक पहुंचा दी किन्तु दुर्भाग्य से सैनिकों ने यह सूचना सेनापति भूपति कृष्णा राय के स्थान पर चतुर्भुज को दे दी, जिसने खबर को दबा दिया किन्तु अगले दिन यह सूचना सेनापति भूपति कृष्णा राय को मिल गई और उन्होंने तत्काल रानी को तथा अपने वफादार सैनिकों को सचेत कर दिया। चतुर्भुज अपने दल के साथ उस्मान खान साथ मिलकर रानी से निर्णायक युद्ध करने की मंशा से चल दिया। भूपति कृष्ण राय को चतुर्भुज चक्रवर्ती की शैतानी योजना समझ आ गई उन्होंने चतुर्भुज को उस्मान खान तक पहुंचने के पहले ही सबक सिखाना उचित समझा। इधर रानी ने उस्मान खान के हमले की प्रतीक्षा किये बगैर उस्मान खान की सेना पर हमला कर दिया और इस कार्यवाही में सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त जन सामान्य ने भी संयुक्त रूप से रानी के नेतृत्व में उस्मान खान की सेना पर हमला बोल दिया।
उस समय वहां भीषण युद्ध हुआ, रानी भवशंकरी साक्षात देवी दुर्गा का अवतार प्रतीत हो रही थी। हाथी पर सवार रानी की रुद्रगणशक्ति नामक तोप लगातार अग्निवर्षा कर शत्रुदल को हाल बेहाल कर रही थी और देवी के आशीर्वाद से प्राप्त रानी की तलवार शत्रुओं के लहू से अपनी प्यास बुझा रही थी। युद्ध के मैदान में रक्त बह निकला था। जब आमजन जाग्रत होकर संगठित हो जाता है तो शत्रु कितना भी शक्तिशाली हो भितरघाती सहित सबका समूल नाश हो जाता है, यहाँ भी कुछ ऐसा ही दृश्य था उस्मान खान के काफी सैनिक मारे गए और बचे हुवे भाग गए और इस हार के बाद फिर उस्मान खान कभी बंगाल में नहीं आया। यह लड़ाई इतिहास में बशुरी के युद्ध के रूप में अंकित है।
दिल्ली में उस समय मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था, इस युद्ध की खबर वहां भी पहुंची तो उन्होंने कभी भूरशूट पर आक्रमण करने का प्रयास ही नहीं किया और बादशाह अकबर ने रानी भवशंकरी को रायबाघिनि (रॉयल टाइग्रेस) की उपाधि प्रदान की। महारानी भवशंकरी ने अपने राज्य पर कुशलता से शासन किया और जब उनका पुत्र प्रतापनारायण व्यस्क और परिपक्व हो गया, तब उसे शासन सत्ता सुपुर्द कर इन महान रानी ने अपना अंतिम समय काशी में देव आराधन में व्यतीत किया। भारतीय इतिहासकारों ने इन महान रानी भवशंकरी की गौरव गाथा का उल्लेख करना उचित नहीं समझा हो, किन्तु रानी भवशंकरी के महलों के जर्जर अवशेष आज भी उनकी गाथा सुना रहे हैं, जिनकी वीरता को मुग़ल बादशाह अकबर ने भी स्वीकार किया था। वीरांगना रायबाघिनि महारानी भवशंकरी की गाथा आज हमारे देश के सम्मुख उपस्थित अनेक समस्याओं और चुनौतियों के समाधान भी सुझाती है। वीरांगना रायबाघिनि महारानी भवशंकरी को शत शत नमन - दुर्गा प्रसाद शर्मा
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