विजयादशमी (दशहरा)
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन। हमारे देश में मनाये जाने वाले प्रमुख त्यौहारों में से एक पर्व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाने वाला पर्व है, जिसे विजयादशमी कहा जाता है, इस पर्व को दशहरा भी कहा जाता है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता और शौर्य से परिपूर्ण रही है और मातृशक्ति की साधना के नौ दिवस में शक्ति संचय उपरांत शक्तिशाली मनुष्य विजय प्राप्ति हेतु तत्पर रहता है, इस दृष्टी से दशहरे का पर्व विजय के लिए प्रस्थान का भी पर्व है। भगवान श्री रामचंद्र जी ने रावण वध के लिए इसी दिन प्रस्थान किया था और रावण वध कर विजय प्राप्त की थी। रावण दहन की परम्परा भी प्रचलित है। यह भी मान्यता रही है कि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को तारा उदय होने से समय विजय नामक मुहूर्त होता है, जो सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है संभवतः इसलिए भी इस दिन को विजयादशमी कहा जाता है। कुछ लोग भगवती विजया से भी इस दिन का सम्बन्ध होना बताते हैं। जगदम्बा दुर्गा देवी ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध उपरांत महिषासुर पर विजय भी इसी दिन प्राप्त की थी। इस दिन नीलकण्ठ पक्षी के दर्शन को बहुत ही शुभ माना जाता है।
भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक और शौर्य की उपासक रही है, दुर्गा पूजा के पश्चात् इस दिन शस्त्र पूजन की भी परम्परा रही है जोकि आज भी प्रचलन में है। द्यूतक्रीड़ा में पराजित पाण्डवों ने बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भी इसी दिन पूर्ण कर अर्जुन द्वारा शमीवृक्ष पर से अपने हथियार उतार कर युद्ध में विजय भी इसी दिन प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन शमी पूजन की परम्परा को इस प्रसंग से भी जोड़ा जाता है इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि भगवान श्री रामचंद्र जी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उदघोष किया था, संभवतः इन कारणों से विजयादशमी के दिन शमी पूजन की परम्परा बनी हो। इसके अतिरिक्त एक अन्य मान्यता यह भी है कि माता सती द्वारा भी अपने पिता राजा दक्ष प्रजापति के यहाँ आयोजित यज्ञ में अपने आप को आज ही के दिन अग्नि में समर्पित किया था। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पाप कर्मों जैसे - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सदप्रेरणा भी प्रदान करता है, इसलिए विजयादशमी को असत्य पर सत्य और अधर्म पर धर्म की विजय उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।
समस्त भारतवर्ष में दशहरे का दस दिवसीय पर्व नवरात्रि के नौ दिन के बाद दसवें दिन विजयादशमी के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है तथा हमारे देश के लोग जो विदेशोँ में निवासरत हैं उन्होंने वहाँ भी इस पर्व को मनाने की परंपरा निर्मित कर दी है। हमारे देश में भिन्न भिन्न प्रदेशों में इस पर्व को भिन्न भिन्न मान्यताओं के साथ भिन्न भिन्न तरीकों से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस पर्व को सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। समस्त ग्रामवासी सुन्दर नवीन वस्त्रों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार जाकर वहाँ से शमीवृक्ष के पत्तों के रूप में स्वर्ण लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं, फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान प्रदान किया जाता है। सोनापत्ती देने की यह परम्परा कई स्थानों पर प्रचलन में रही होकर अब लुप्त होती जा रही है। महाराष्ट्र में विद्यार्थीगण विद्या हेतु आशीर्वाद प्राप्ति के लिए इस दिन देवी सरस्वती जी का भी पूजन करते हैं। विद्यारम्भ के लिए यह दिन श्रेष्ठ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह प्रवेश और नवीन कार्य आरम्भ के लिए यह दिन श्रेष्ठ मानते हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी इसी दिन मुग़ल शासक ओरंगजेब के विरूद्ध युद्ध के लिए प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था।
हिमाचल प्रदेश मेँ कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्द है। यहाँ इस पर्व के काफी पहले से ही तैयारी प्रारम्भ हो जाती है, सभी स्त्री पुरुष सुन्दर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बांसुरी आदि जिसके पास जैसा वाद्य यंत्र हो लेकर निकलते हैं और अपने मुख्य देवता श्री रघुनाथ जी का पूजन करके अपने ग्रामीण देवता का धूमधाम से जुलुस निकालते हैं और पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी से सुन्दर तरीके से सजाया जाता है। देवताओं के जुलुस को नृत्यगान के साथ मुख्य मार्गों से नगर भ्रमण कराया जाता है। पंजाब में भी नवरात्रि उपवास के बाद यह पर्व मनाया जाता है और लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं जहाँ उनका स्वागत पारंपरिक मिष्ठान्न और उपहारों से किया जाता है। रावण दहन और मेले यहाँ भी देखे जा सकते हैं।
तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश एवं कर्नाटक में यह पर्व देवीपूजा करते हुवे दस दिन तक मनाया जाता है, जिसमें तीन देवियाँ महालक्ष्मी जी, महासरस्वती जी और दुर्गा देवी की पूजा होती है। यहाँ पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी महालक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है, उसके कला और विद्या की देवी महासरस्वती जी का पूजन किया जाता है तथा अंतिम तीन दिन शक्ति की देवी दुर्गा का पूजन किया जाता है। पूजन स्थल को फूलों और दीपकों से सजाया जाता है लोग एक दूसरे को मिठाई कपडे आदि देते हैं। यहाँ दशहरा बच्चों की शिक्षा या कला से सम्बंधित नया कार्य प्रारम्भ करने के लिए शुभ माना जाता है। कर्नाटक में मैसूर का दशहरा सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्द है। मैसूर में दशहरे के समय पुरे शहर को रौशनी से सज्जित किया जाता है। प्रसिद्द मैसूर महल को दीपमालिका से सजाया जाता है। हाथियों का श्रृंगार कर पुरे शहर में नृत्य गान के साथ भव्य जुलूस निकाला जाता है। दक्षिण भारत मेँ रावण दहन की परम्परा कुछ कम ही देखने को मिलती है। मध्य प्रदेश के मंदसौर को लंकापति रावण का ससुराल माना जाता है, इसलिए यहाँ भी रावण दहन की परंपरा नहीं है।
बंगाल, ओडिसा और असम में भी यह पर्व देवीपूजा करते हुवे ही मनाया जाता है, यह पर्व यहाँ का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार माना जाता है। बंगाल में पांच दिनों तक यह पर्व मनाया जाता है जबकि ओडिसा और असम में चार दिनों तक यह पर्व मनाया जाता है। यहाँ देवी दुर्गा जी और कई अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां बनवाकर भव्य सुशोभित पांडालों में देवी को विराजमान करते हैं। छठ तिथि को दुर्गा देवी का आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा होती है उसके बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन सुबह शाम दुर्गा पूजा होती है। अष्टमी के दिन महापूजा होती है, बलि विधान भी संपन्न होता है। दशमी के दिन विशेष पूजा की जाती है और प्रसाद वितरण भी किया जाता है। पुरुष आपस में गले मिलते हैं, जिसे कोलाकुली कहा जाता है। महिलायें देवी के माथे पर सिंदूर लगाकर उन्हें अश्रुपूरित बिदाई देती हैं, साथ ही वे आपस में भी एक दूसरे को सिंदूर लगाकर खेलती हैं।
बस्तर में दशहरे को माँ दन्तेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। देवी दुर्गा का ही एक रूप दन्तेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी है। यहाँ दशहरा पर्व श्रावण मास की अमावस्या से आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तक अर्थात लगभग 75 दिन तक चलता है। प्रथमदिन को काछिन गादी कहा जाता है, जिस दिन देवी कांटो की सेज पर विराजित होती हैं और देवी से समारोह को प्रारम्भ करने की अनुमति ली जाती है।इस पर्व में जोगी बिठाई होती है, विजयादशमी के दिन भीतर रैनी होती है उसके बाद बाहर रैनी पर रथ यात्रा का आयोजन होता है तथा अंत में मुरिया दरबार होता है। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से इस आयोजन का समापन होता है।
कश्मीर में सनातन धर्म को मानने वाले नवरात्रि उपवास रखते हैं तथा अपनी पुरानी परम्परा का निर्वाह करते हुवे माता खीर भवानी के दर्शन के लिए जाते हैं। गुजरात में दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाते हैं वहाँ मिट्टी का घड़ा जिसे देवी का प्रतिक माना जाता है, महिलाएं उसे अपने सिर पर रखकर लोकप्रिय नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है। गुजरात में इस दिन स्वर्ण आभूषण खरीदना शुभ माना जाता है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में शाकम्भरी शक्ति पीठ पर बहुत भव्य आयोजन होता है, यहाँ आश्विन मास का मेला काफी प्रसिद्ध है। गोवा में यह पर्व दशरो के नाम से मनाया जाता है।
दशहरे के दिन वाहन, मशीनरी आदि के पूजन की भी परम्परा है जो कि आज भी प्रचलन में है। दशहरे के दिन श्री हनुमान जी को मीठी बूंदी अर्पित कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है साथ ही श्री हनुमान जी को पान का बीड़ा भी अर्पित कर स्वयं को भी पान ग्रहण करना चाहिए। विजयादशमी पर पान खाना और खिलाना मान सम्मान, प्रेम एवं विजय का प्रतीक माना जाता है। रावण दहन के बाद पान का सेवन असत्य पर सत्य की जीत की ख़ुशी को व्यक्त करता है। हमारे देश में धार्मिक मान्यताओं के पीछे प्रेम और सदाचार की भावना होती रही है, ये पर्व हमें एकता की शक्ति याद दिलाते हैं जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। यह त्यौहार ही हमारे आपसी रिश्तों को मजबूत करने, मनमुटाव, घृणा और आपसी बैर को दूर करने का काम करते हैं।
वर्तमान के बदलते स्वरुप में त्यौहार अपनी वास्तविकता से दूर जाकर आधुनिक रूप लेते जा रहें हैं, जिसने इनके महत्त्व को कहीं न कहीं कम तो किया है। जैसे दशहरे पर एक दूसरे के घर जाकर मिलने का रिवाज था किन्तु आज फोन कॉल करना तो दूर की बात है, हम मोबाईल मेसेज पर सीमित हो गए है। दशहरे पर शमीपत्र लेकर जाते थे किन्तु आज मिठाई और महंगे उपहार ले जाने लगे हैं, जिसके कारण जहाँ फिजूलखर्ची बढ़ी, वहीं सामान्य व्यक्ति शर्म और अपनी कमजोर अर्थ व्यवस्था के कारण आना जाना छोड़ने लगे है। आधुनिकता ने त्यौहारों का रूप बदला है तो मार्डन कल्चर में इन्हें आडंबर माना जाकर इनसे दूरियां बनाने लगे है। हमारी प्राचीन व्यवस्थाओं के अनुसार पर्व सादगी से मनाये जाते थे, उनमे दिखावा नहीं था बल्कि ईश्वर के प्रति आस्था थी। आज मनुष्य के मन कटुता से भर गए हैं और इन पर्वों को समय और धन की बर्बादी के रूप में देखने लगे हैं और इनसे दूर होते जा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि हम दिखावे की दुनिया से बाहर निकल कर इन पर्वों की वास्तविकता को समझें, सादगी से त्यौहार मनाएं और यही सन्देश जन जन तक पहुंचाए। इसी के साथ आप सभी को दुर्गा प्रसाद शर्मा एडवोकेट की ओर से विजयादशमी (दशहरा) के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।
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