गोपाष्टमी

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। हमारे  देश में प्राचीन काल से ही यह परम्परा रही है कि हम अपनी दिनचर्या के कार्यों को करने में भी उत्सव मना लेते हैं और उसके बाद वही परिपाटी पर्व के रूप में मान्यता भी ले लेती है। एक इसी प्रकार की दिनचर्या भगवान श्री कृष्ण जी ने अपने बाल्यकाल में की थी, जो आज हम गोपाष्टमी को एक पर्व के रूप में उल्हासपूर्वक मनाते है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन से ही भगवान श्री कृष्ण जी ने गौ चारण की लीला प्रारम्भ की थी। इसके अतिरिक्त एक अन्य मान्यता के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से सप्तमी तिथि तक भगवान श्रीकृष्ण जी ने गोवर्धन पर्वत को धारण किया था और अष्टमी तिथि को देवराज इन्द्र ने अहंकार रहित होकर भगवान की शरण में आकर क्षमायाचना की थी और उसी दिन कामधेनु गाय द्वारा भगवान का अभिषेक भी किया था, तब गायों की रक्षा करने के कारण भगवान का नाम गोविन्द पड़ा और तब से ही कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जाने लगा। 
भगवान श्री कृष्ण जी ने जब छठे वर्ष की आयु में प्रवेश किया तब एक दिन वे माता यशोदा से बोले कि मैय्या अब हम बड़े हो गए हैं और अब हम बछड़े चराने नहीं जायेंगे अब हम गाय चरायेंगे। माता बोली ठीक है अपने बाबा से पूछ लेना।  कन्हैया झट से नन्द बाबा के पास जा पहुंचे और उनसे अपनी बात कही तो बाबा बोले लाला अभी तुम बहुत छोटे हो अभी बछड़े ही चराओ, किन्तु लाला ने भी हठ पकड़ ली तो वे बोले ठीक है तुम पंडित जी को बुला लाओ, वे जो भी मुहूर्त बताएंगे तब से तुम्हें गाय चराने भेज देंगे। बाबा की बात सुन कन्हैया तुरंत पंडित जी के पास जा पहुंचे और पंडित जी से बोले कि आपको बाबा ने गौ चारण का मुहूर्त देखने के लिए बुलाया है और आप उनको आज का ही मुहूर्त बता देना मैं आपको बहुत सारा माखन दूंगा। 

पंडित जी नन्द बाबा के पास गए और बार बार अपने पंचांग को देखते और गणना करते बहुत देर हो गई तो नन्द बाबा ने पूछ लिया कि पंडित जी क्या बात है आप बार बार गणना कर रहे हैं और कुछ बता नहीं रहे, तो पंडित जी बोले बाबा केवल आज का ही मुहूर्त निकल रहा है फिर एक वर्ष तक कोई मुहूर्त नहीं है। पंडितजी की बात सुन नन्द बाबा ने कन्हैया को गौचारण की स्वीकृति दे दी और भगवान के गौचारण प्रारम्भ करने का दिन ही गोपाष्टमी कहलाया। इस तरह से भगवान जिस समय जो काम करें वह मुहूर्त हो जाता है। माता यशोदा ने अपने लाला का श्रृंगार किया, पैरों में जूतियाँ पहनाने लगी तो कन्हैया बोले मैय्या जब मेरी गौएँ जूतियाँ नहीं पहनती है तो मैं कैसे पहनूं, इस प्रकार भगवान बिना जूतियों के गौचारण के लिए जाते थे और कहते हैं कि वे जब तक वृन्दावन में रहे उन्होंने जूतियाँ धारण नहीं की। 

आगे आगे गौएँ उनके पीछे बांसुरी बजाते हुवे कन्हैया और बलदाऊ और साथ में ग्वाल बाल, इस प्रकार से भगवान ने गौचारण की लीला करते हुवे वन में प्रवेश किया। राधाजी भी गायों को चराना चाहती थी किन्तु उन्हें लड़की होने से मना कर दिया गया था, तब उन्होंने स्वयं लड़कों जैसे वस्त्र धारण कर लड़कों का स्वरुप बनाकर भगवान श्री कृष्ण और ग्वाल बालों के साथ गायों को चराने के साथ ही भगवान श्री कृष्ण की उस गौचारण लीला में भी सम्मिलित हो गई। जब भगवान गौ चराते हुवे वृन्दावन जाते थे, तब उनके चरणारविंद से वृन्दावन की भूमि अति पावन हो गई और वह वन गौओं के लिए हरी भरी घांस और रंग बिरंगे पुष्पों से आच्छादित हो गया। वृन्दावन की निराली छटा देखते ही बनती थी।  

भगवान श्री कृष्ण और गायों को समर्पित गोपाष्टमी का यह पर्व बृज मंडल में ही नहीं बल्कि देश के कई भागों में मनाया जाता है।  इस दिन प्रातः गाय बछड़े को स्नान कराकर उन्हें सजाया जाता है और उनकी पूजा की जाती है, विभिन्न पकवानों का भोग लगाकर उनकी आरती की जाती है।  इस दिन श्रेष्ठ एवं सुखी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए गाय और भगवान श्री कृष्ण जी की पूजा और प्रदक्षिणा की जाती है, उसके बाद गायों को चरने के लिए ले जाया जाता है। सायंकाल को गायों के वापस लौटने पर उन्हें साष्टांग प्रणाम करके उनकी चरण रज से मस्तक पर तिलक लगाया जाता है। यदि संभव हो तो गौचारण पर जाने के समय गाय के साथ कुछ दूर चलना भी चाहिए, ऐसा करने से प्रगति के मार्ग प्रशस्त होते हैं।  गायों को भोजन कराने और उनकी चरण रज मस्तक पर लगाने से सौभाग्य की वृद्धि होती है।  

हिन्दू संस्कृति में गाय को विशेष स्थान प्राप्त है।  गाय को माँ का दर्जा दिया जाता है, जैसे एक माँ अपने बच्चों को हर स्थिति में सुख देती है वैसे ही गाय भी मनुष्य जाति को कई लाभ प्रदान करती है। गौशालाओं में गोपाष्टमी के दिन गौ संवर्धन का संकल्प लेकर गाय की पूजा की जाती है, विभिन्न पकवानों के साथ हरा चारा और गुड़  खिलाया जाकर सुख समृद्धि की कामना की जाती हैं। गाय में समस्त देवताओं का वास् माना जाता है, कई स्थानों पर गायों की उपस्थिति में प्रभात फेरी भी निकाली जाती है और अन्नकूट व भण्डारे  आयोजन भी किया जाता है।   
पद्म पुराण के अनुसार गाय के मुख में चारो वेदों का निवास है, सींगों में भगवान शंकर और विष्णुजी सदैव ही विराजमान रहते हैं।  गाय में कार्तिकेय, मस्तक में ब्रह्मा जी, ललाट में रूद्र, सींगो के अग्र भाग में इंद्र, दोनों कानों में अश्विनीकुमार, नेत्रों में सूर्य और चंद्र, दांतो में गरुड़, जिव्हा में सरस्वती, अपान में समस्त तीर्थ, रोमकूपों में ऋषिगण, पृष्ठ भाग में यमराज, दक्षिण पार्श्व में वरुण एवं कुबेर, वाम पार्श्व में महाबली यक्ष, मुख के भीतर गंधर्व, नासिका के अग्र भाग में सर्प, खुरों के पिछले भाग में अप्सराएं स्थित हैं।  इसी प्रकार की व्याख्या भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्म पुराण और महाभारत में भी मिलती है। 

ऐसा कहा जाता है कि गायों का समूह जहाँ बैठकर अपनी श्वांस भी ले लेता है तो वहाँ के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और गौ सेवा से दुःख और दूर्भाग्य दूर होता है और घर में सुख शांति और समृद्धि आती है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक गौ सेवा करते हैं, देवता उस पर सदैव प्रसन्न रहते हैं।  जिस घर में भोजन के पूर्व गौग्रास निकाला जाता है उस परिवार में कभी भी अन्न धन की कमी नहीं होती है। महर्षि वशिष्ठ जी द्वारा रचित गौ माता की नित्य प्रार्थना इस प्रकार सदैव सभी को की जानी चाहिए कि - सुरूपा बहुरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः। गावो मामुपतिष्ठंतामिति नित्यं प्रकीर्तयेत।। अर्थात सुन्दर एवं अनेक प्रकार के रंग रूप वाली विश्वरूपिणी गौमाताएं सदा मेरे निकट आये। गौ माता की जय हो - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।      

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