हरिद्वार अर्थात हर और हरि का द्वार
विक्रम सम्वत 2080 के श्रावण मास के अधिक मास में हमारे परम स्नेही आदरणीय बड़े भाई साहब श्री सुरेशचंद्र जी कंसल एवं अन्य आत्मीयजन द्वारा उत्तराखण्ड की देवभूमि हरिद्वार में श्रीमद भागवत कथा ज्ञान महोत्सव का आयोजन रखा गया था, जिस महोत्सव में उपस्थित होकर श्रीमद भागवत कथा श्रवण, श्री गंगा जी के प्रतिदिन स्नान और दर्शन, श्री गंगा जी की आरती के दर्शन, देवभूमि हरिद्वार में आठ दिवस का निवास तथा देवदर्शनों के लाभ का परम सौभाग्य किसी पुण्याई से और आप सभी स्नेहीजनों की शुभकामनाओं से प्राप्त हुआ। उसी समय वहीं पर देवभूमि हरिद्वार के बारे में भी कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई और उसे आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ। हरिद्वार अर्थात हर और हरी का द्वार, यह वह स्थान है जहाँ से ही पवित्र देवभूमि की परम यात्रा प्रारम्भ होती है। उत्तराखण्ड के चारों धाम श्री बद्रीनाथ धाम, श्री केदारनाथ धाम, श्री गंगोत्री धाम, श्री यमुनोत्री धाम एवं अन्य देवतीर्थ सहित प्रयागादि की यात्रा हरिद्वार से ही पूजन आदि के बाद ऋषिकेश होते हुवे प्रारम्भ होती है। इसी कारण से यह स्थान श्री हरि का द्वार कहा जाता है।
हरिद्वार अर्थात हर और हरी के द्वार के बारे में कहा जाता है कि सृष्टि के निर्माण के समय सर्वप्रथम जो नगर बसे थे, उनमें यह दूसरे स्थान पर आता है। पृथ्वी पर सर्वप्रथम काशी नगरी की रचना हुई थी, जिसे श्री महादेव जी ने अपने त्रिशूल से रचकर पृथ्वी पर स्थापित किया था, जोकि मुक्तिक्षेत्र के नाम से प्रसिद्द है और काशी के बाद द्वितीय स्थान हरिद्वार का आता है, श्री ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र दक्ष प्रजापति को पृथ्वी पर यह स्थान प्रदान किया था। इस स्थान पर दक्ष प्रजापति ने अपनी नगरी दक्षपुरी बसाई थी। अमृत मंथन के समय इस स्थान पर अमृत की कुछ बूंदे गिरने के कारण इस स्थान का महत्त्व और भी बढ़ गया। ऐसा कहा जाता है कि धरती पर सर्वप्रथम श्री हरि विष्णु भगवान के चरण भी हरिद्वार में ही पड़े थे और बाद में इसी स्थान पर भगवान श्री विष्णु जी और माता श्री महालक्ष्मी जी का विवाह भी संपन्न हुआ था, इस कारण से यह स्थान श्री हरि को भी अति प्रिय है। विश्व में हर और हरि दोनों को अति प्रिय यह स्थान हरिद्वार और हरद्वार दोनों ही नामों से जाना जाता है।
हरिद्वार एकमात्र ऐसा स्थान है, जहाँ त्रिदेव श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी और श्री महादेव जी एकसाथ उपस्थित हुवे हैं। यहाँ हर की पैड़ी पर श्री हरि विष्णु जी के पद चिन्हों की छाप भी अंकित होना बताई जाती है, जिसे सतत स्पर्श करते हुवे पतित पावनी माँ गंगा जी प्रवाहित होती है। हरिद्वार उन चारों स्थानों में से एक है, जहाँ पर हर छः साल बाद अर्द्ध कुम्भ और हर बारह साल बाद कुम्भ का मेला लगता है। अमृत मंथन के समय इस स्थान पर अमृत की कुछ बूंदे गिरने का स्थान हर की पैड़ी पर स्थित ब्रह्म कुंड को माना जाता है। पतित पावनी माँ गंगा जी पहाड़ों से मैदान तक की यात्रा में हरिद्वार प्रथम शहर है, यहाँ प्रतिदिन बड़ी संख्या में भक्तजन दर्शन, पूजन और स्नान के लिए आते हैं। प्रतिदिन संध्याकाल में गंगा जी की आरती होती है, जिसमें भी बड़ी संख्या में श्रद्धालुजन उपस्थित होकर आरती दर्शन का लाभ लेते हैं।
प्राचीनकाल से ही हरिद्वार में पांच तीर्थों की विशेष महिमा बताते हुवे कहा गया है कि "गंगा द्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत" अर्थात गंगा द्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान और दर्शन करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है। इन पांचों तीर्थों में मुख्यतः हरिद्वार, दक्षिण में कनखल तीर्थ, पश्चिम में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ, पूर्व में नीलपर्वत अर्थात श्री नीलकंठेश्वर को माना गया हैं। हरिद्वार और नीलकंठेश्वर के मध्य ऋषिकेश में भी रामायण कालीन और महाभारत कालीन कई कथानक जुड़े हुवे हैं, यहाँ संगम के अतिरिक्त राम झूला, लक्षमण झूला और जानकी झूला के साथ ही गीता मंदिर सहित अन्य कई प्राचीन दर्शनीय स्थल हैं। हरिद्वार के आसपास भी कई पौराणिक, दर्शनीय और धार्मिक स्थल भी हैं।
यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण और दर्शनीय है पूजनीय माँ गंगा जी की पवित्र धारा, जिसकी मुख्य धारा नील पर्वत के पास से प्रवाहित होती है और इसी मुख्य धारा में से एक धारा ब्रह्मकुंड तक पहुँचती है, जिसमे श्रद्धालुजन स्नानादि करते हैं। हर की पौड़ी या हर की पैड़ी पर जहाँ ब्रह्मकुंड स्थित हैं तथा श्री हरि विष्णु जी के पद चिन्ह अंकित हैं उसी के साथ एक अन्य मान्यता राजा भृतहरि से भी जुडी हुई है, उस अनुसार उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के भाई राजा भृतहरि ने भी इसी स्थान पर कठोर तपस्या करके अमर पद की प्राप्ति की थी और बाद में राजा भृतहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य द्वारा यहाँ सर्वप्रथम पैड़ियाँ अर्थात सीढ़ियां बनवाई थी। इसी प्रकार से हर की पैड़ी के ही करीब एक स्थान और है जहाँ पर पाण्डुपुत्र महाबली भीम ने गंगाजी के जल में गौड़ा (पैरों के घुटनें) तक के जल में खड़े होकर तपस्या की थी, तब से वह स्थान भीमगौड़ा के नाम से जाना जाता है।
कनखल जो कि राजा दक्ष प्रजापति की दक्षपुरी रही थी, इसी स्थान पर राजा दक्ष प्रजापति द्वारा परमेश्वरि माता आदि शक्ति की तपस्या करके उनसे पुत्री रूप में अपने घर में जन्म लेने का वर माँगा था। कालांतर में राजा दक्ष प्रजापति के यहाँ पुत्री सती के रूप में स्वयं जगदम्बा प्रकट हुई थी। राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में सती का प्राकट्य हरिद्वार में ही हुआ था, यही पर उनकी बाल्यावस्था और तरुणावस्था व्यतीत हुई होकर यहीं पर उन्होंने श्री महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तप किया था जिसके पश्चात् देवाधिदेव श्री महादेव जी अपने साथ श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, अन्य समस्त देवी देवताओं, ऋषि मुनियॉ एवं अपने गणों सहित बारात लेकर यहीं आये थे और माता सती के साथ विवाह किया था।
कनखल में ही राजा दक्ष प्रजापति का महल था और यही पर उनके द्वारा विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिस यज्ञ में राजा दक्ष प्रजापति ने शिवजी के अलावा समस्त देवताओं को आमंत्रित किया था। माता सती शिव जी की सहमति के बिना अपने मायके में पिता द्वारा कराये जा रहे यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए यहाँ आई, जहाँ पिता द्वारा देवाधिदेव महादेव को अपमानित करने के कारण माता सती ने अपने आप को यज्ञ कुंड में ही अग्नि को समर्पित कर दिया था जिसकी सुचना मिलने पर महादेव जी ने अपने गण वीरभद्र को यज्ञ के विध्वंस करने का आदेश दिया। आदेश मिलने पर वीरभद्र, देवी महाकाली, भैरव, क्षेत्रपाल, नंदीगण आदि ने यज्ञ का विध्वंस कर राजा दक्ष प्रजापति का वध कर दिया था। कहा जाता है कि इस सम्पूर्ण घटना के समय भगवान शिव जी नील पर्वत के शिखर पर ही विराजमान थे।
कनखल में ही उस स्थान पर माता सती द्वारा अपनी देह समर्पित किये जाने वाले कुंड के अतिरिक्त राजा दक्ष के शीश को अग्नि को समर्पित करने वाला कुंड भी स्थित है, वहीं दक्षेश्वर महादेव और पारदेश्वर महादेव भी विराजमान हैं। माता सती की मृत देह को लेकर जब देवाधिदेव महादेव पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे उस समय श्री विष्णु जी ने अपने चक्र से माता सती के शरीर को 52 भागों में विभक्त कर दिया था। ऐसा कहा गया है कि उस समय माता सती का नाभिस्थल और उससे ऊपर का भाग यहीं हरिद्वार में गिरा था, वह स्थान मायादेवी के नाम से शक्तिपीठ माना जाता है। कालांतर में हरिद्वार के निवासियों ने माया देवी को अपनी कुलदेवी मानकर पूजना प्रारम्भ कर दिया। यही पर नारायणी शिला और भैरव मंदिर भी स्थित है।
पावन गंगा जी के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के नील पर्वत के शिखर पर माता चण्डी देवी विराजमान हैं। स्कन्द पुराण की एक कथा अनुसार शुम्भ निशुम्भ के सेना नायक चण्ड मुण्ड का देवी चंडी ने यहीं वध किया था तभी से माता का नाम चंडी देवी हुआ था। माताजी की प्रतिमा के बारे में कहा गया है कि आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जी ने यह प्रतिमा स्थापित की थी। चंडी माता के दर्शन के लिए चढ़ाई अति कठिन है किन्तु रोपवे के कारण वह अब सुगम हो गई है। चंडी माता के विषय में एक मान्यता यह भी है कि त्रेता युग में जब अहिरावण श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को पाताल लोक में देवी के समक्ष बलि देने के लिए लेकर गए थे तब रुद्रावतार श्री हनुमानजी महाराज ने देवी से इस बलि को टालने का आग्रह किया था। तब देवी ने कहा कि मैं पातालपुरी को त्यागकर शिवपुरी अर्थात हरिद्वार की पर्वत शृंखला पर जा रही हूँ, तुम इन दोनों असुरों की बलि मुझे दे दो इससे मुझे प्रसन्नता होगी और पाताल में धर्म की स्थापना होगी। इस प्रकार से चंडी माता पाताल से हरिद्वार के पर्वत पर आकर विराजमान हुई और चण्डीमाता के नाम से जानी गई। लंका विजय के उपरांत अयोध्या आगमन के बाद प्रभु श्री राम जी अपने भाइयों, माता सीता और हनुमानजी सहित इस स्थान पर आये थे और माता जी के दर्शन पूजन कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया था। चंडी माता मंदिर के पास ही संतोषी माता माँ मंदिर स्थित है और वही पर एक ओर श्री हनुमान जी महाराज और उनकी माता जी अंजना देवी का मंदिर स्थित है। यहाँ की प्राकृतिक छटा अत्यंत ही मनोहारी और दर्शनीय है।
महादेव जी की पुत्री मनसा जो कि वासुकि नागराज की बहन हैं उनका निवास भी हरिद्वार मैं ही है। मन की कामना पूरी करने के कारण इन्हें मनसा देवी कहा जाता है। हर की पैड़ी से पश्चिम की तरफ शिवालिक श्रेणी के ही एक पर्वत शिखर पर माता मनसादेवी विराजमान हैं। मुख्य मंदिर में दो प्रतिमाएं विराजित हैं प्रथम प्रतिमा तीन मुखों और पांच भुजाओं वाली और दूसरी अष्टभुजा वाली माता जी की प्रतिमा है। यहाँ की चढ़ाई चंडी माता जितनी कठिन नहीं है किन्तु रोपवे के कारण वह अब सुगम यात्रा हो गई है। यहाँ से गंगा जी की धारा, नील पर्वत एवं हरिद्वार नगरी की मनोहारी छटा अति दर्शनीय है।
हर की पैड़ी से कुछ ही दुरी पर वैष्णों देवी जी का मंदिर बना हुआ है। जम्मू के प्रसिद्द वैष्णों देवी जी की गुफा की अनुकृति का प्रयत्न करते हुवे इस मंदिर का निर्माण किया गया है। यहाँ पवित्र गुफा को भी प्राकृतिक स्वरुप देने का प्रयास किया गया है। गुफा मार्ग से होते हुवे मंदिर में प्रवेश और वैष्णों देवी जी के स्वरुप के दर्शन होते हैं। वैष्णों देवी जी के मंदिर के ही पास भारत माता का मंदिर है, इस बहुमंजिला मंदिर का निर्माण स्वामी सत्यमित्रानंद जी गिरी द्वारा कराया गया था। यह अपने ढंग का एक अलग ही निराला मंदिर है। प्रत्येक मंजिल पर पृथक पृथक दर्शन मिलते हैं। यहाँ मातृ अवतार के स्वरुप, प्रभु अवतार के स्वरुप, संत दर्शन, शक्ति मंदिर एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के दर्शन के साथ साथ भारत माता के दर्शन लाभ भी होते हैं। यहाँ शिखर पर शिवालय स्थित है। यहाँ दर्शन करने पर धार्मिक भावना के साथ देशभक्ति की भी प्रेरणा स्वतः ही हो जाती है।
भारत माता मंदिर के ही नजदीक सप्तऋषि आश्रम पहुंचा जा सकता है। यहाँ पवित्र पावन गंगा जी की सप्त धाराओं में प्रवाहित होती जलधारा की निराली प्राकृतिक छबि अति दर्शनीय है। इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि इस स्थान पर सप्तऋषिगण ने तपस्या की थी और उनकी तपस्या में किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पहुँचाने की मंशा से श्री गंगा जी सात धाराओं में बंटकर उनके आगे से प्रवाहित हो गई। यहीं पर सुन्दर घाट बना हुआ है और सप्तऋषि आश्रम भी है। मुख्य मंदिर श्री महादेव जी का है, साथ ही सप्तऋषिगण के भी छोटे छोटे मंदिर दर्शनीय हैं। प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण इस स्थान पर अखंड अग्नि प्रज्वलित है, यहीं पर कुछ दुरी पर ही सप्तऋषिगण के नाम से सात कुटियां बनी हुई है, जिनमें आश्रम के लोग निवासरत हैं।
विश्वप्रसिद्ध गायत्री परिवार का मुख्य केंद्र शांतिकुंज भी हरिद्वार से ऋषिकेश जाने के मार्ग पर एक विशाल क्षेत्र में स्थित धार्मिक एवं आध्यात्मिक कार्यस्थल है। यहाँ शिक्षा संस्थान भी है जिसमें गुरुकुल आधार पर शिक्षा प्रदान की जाती है। आचार्य श्री राम शर्मा जी एवं माता जी की समाधि भी यहाँ बनी हुई है। आचार्य श्री राम शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तकों तथा उनकी प्रेरणा से संचालित पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी यहीं होता है। इस संस्थान में अन्य शोधकार्य भी चलते रहते हैं। इसके अलावा हरिद्वार में ऐसे भी कई आश्रम और वाटिकाएँ हैं, जहाँ औषधीय वनस्पति लगी हुई हैं और वहाँ औषधी निर्माण भी होता है, इसी शृंखला में योगगुरु श्री बाबा रामदेव जी की पतंजलि संस्थान भी है। हरिद्वार में ही स्वामी श्री अवधेशानंद जी का भी आश्रम स्थित है, जहाँ नवग्रह मंदिर, श्री महादेव जी का मंदिर स्थित है, यहाँ पारद शिवलिंग भी स्थित है।
हरे भरे जंगल, पहाड़ और नदी इस पवित्र भूमि को प्राकृतिक सुंदरता से जोड़ते हैं। हरिद्वार के 10 किलोमीटर की दुरी पर ही राजाजी राष्ट्रिय उद्यान भी स्थित है, प्रकृति प्रेमी एवं वन्य जीवन प्रेमीजन के लिए यह उत्तम स्थान है। हरिद्वार केवल धार्मिक महत्त्व का ही नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता का भी महत्वपूर्ण स्थान है। हरिद्वार में अनेकों उद्योग धंधे स्थापित हैं साथ ही विज्ञानं एवं इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विश्वप्रसिद्ध रुड़की विश्वविद्यालय भी स्थित है। यहाँ कई शिक्षण संस्थान गुरुकुल आधारित पारंपरिक शिक्षा के साथ साथ आधुनिक शिक्षा भी प्रदान कर रहे हैं।
इस प्रकार से देवभूमि हरिद्वार की महिमा अनंत है, सतयुग से महाभारत काल तक की कई कथानक और घटनाएं इस स्थान से सम्बंधित हैं उन सभी बातों का यदि उल्लेख करने लग जावें तो एक ग्रन्थ बन सकता है। देवभूमि हरिद्वार की महिमा को संकलित कर आप तक पहुँचाने का तुच्छ प्रयास किया है, इसमें कोई त्रुटि भी हुई हो, यह भी हो सकता है जिसके लिए प्रभु क्षमा करें। ईश्वर ने चाहा तो फिर कभी और अधिक वर्णन करने का प्रयास किया जावेगा। तब तक के लिए दुर्गा प्रसाद शर्मा का सभी को जय श्री कृष्ण।
Comments
Post a Comment