वर्त्तमान समय में शिक्षा कैसी हो ?
हमारी सनातन सभ्यता के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ऐसे ज्ञान की प्राप्ति कराना है जिससे कि इहलोक में सर्वांगीण विकास अर्थात शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और नैतिक विकास हो तथा परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो। भगवान श्री कृष्ण जी ने भी गीता में कहा है कि शिक्षा ऐसी हो जो हमें अज्ञान के बंधन से मुक्त कर दे। संभवतः इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुवे प्राचीन समय में हमारे ऋषि मुनिगण ने चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) की व्यवस्था की थी। ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुवे विद्यार्थी संयम की व्यवहारिक शिक्षा के साथ साथ लौकिक और परलौकिक ज्ञान प्राप्त करके जब गुरुकुल से निकलता था तब वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अपने जीवन को संयम, सेवा और त्याग से परिपूर्ण करते परमात्मा के स्वरुप में रम जाता था।
जब तक हमारे यहाँ गुरूकुल शिक्षा पद्धति प्रचलन में रही, तब तक हमारी संस्कृति सुरक्षित थी और आमजन भी सुखी थे। जबसे हमने अपनी प्राचीन गुरूकुल शिक्षा पद्धति को छोड़ नवीन शिक्षा पद्धति अपनाई है, तब से स्थिति दिनोदिन विकृत हो रही है। हम अपने सनातनी दैनिक नित्य कर्म से विमुख होते जा रहे हैं और आधुनिकता के इस दौर में हम अपने धर्म कर्म भी छोड़ते जा रहे हैं। आज अपने धर्म और ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने में हमारी युवापीढ़ी को संकोच और लज्जा आती है, मानो वे किसी कुसंस्कार का समर्थन कर अपनी विद्वता को क्षीण कर रहे हों। आधुनिकता के इस दौर में आज की युवा पीढ़ी शिक्षाभिमानी होकर कामपरायणता के वशीभूत हो इन्द्रियसुख को ही परम सुख मानकर पाश्चात्य संस्कृति का गुणगान और अनुसरण करने में लगी हुई हैं, जबकि पाश्चात्य देश अपनी उस सभ्यता से तंग आकर उससे मुक्त होने के लिए हमारी सनातनी संस्कृति को अपना रहे हैं।
वर्तमान में हमारी शिक्षा पद्धति हमारी प्राचीन शिक्षा और जीवन से एकदम प्रतिकूल है, आज हम देख रहे हैं कि नवपीढ़ी का ईश्वर और धर्म के प्रति अविश्वाश बढ़ता ही जा रहा है, संयम और सहन शक्ति का आभाव देखने को मिल रहा है, आज हम सरल और सादा जीवन जीना मानों भूल ही गए हैं, ब्रह्मचर्य की चर्चा तो आज के दौर में कर ही नहीं सकते हैं, माता पिता और गुरुजनों के प्रति मान सम्मान और आदर का स्थान अश्रद्धा ने ले लिया है, हमारी प्राचीन संस्कृति, रूढ़ि, परम्परा और मान्यताओं के प्रति विद्वेष दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है, विलासितापूर्ण जीवनशैली को अपनाते हुवे अनावश्यक फिजूलखर्ची करना आज आम बात हो गई है, खेती, दुकानदारी और घरेलू कलाकौशल जैसे पुश्तैनी कार्यों को करने लज्जा का अनुभव करते हुवे हमारी आज की पीढ़ी उन सभी कार्यों को करना छोड़ती जा रही है।
पुरुषों के साथ साथ स्त्रियों की शिक्षा की जब बात हुई, तो स्त्री शिक्षा का आदर्श भी वही माना गया जो पुरुषों का रहा था। स्त्रियाँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर डॉक्टर, इंजिनियर, वकील, अध्यापिका, क्लर्क, नेता सभी क्षेत्रों में सक्रीय भी हुई और कई ऊंचाइयों तक भी पंहुची हैं किन्तु कुछ दोष भी दृष्टिगत हुवे। मैं यहाँ यह नहीं कहता कि ये दोष सभी स्त्रियों में हैं किन्तु कहीं कहीं हम देख ही रहे हैं कि वे भी ईश्वर और धर्म का विरोध करने लगी हैं, संयम और सहनशीलता का आभाव होता जा रहा है, शर्म और लज्जा की कमी होती जा रही है, फैशन के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिस बात की कल्पना मात्र से स्त्रियाँ लज्जित हो जाया करती थीं, उस बात को वे आज सरेआम कहने और करने में कोई शर्म महसूस नहीं कर रही है। सौंदर्य बोलचाल, रहन सहन, आचार विचार, विनम्रता, स्वाभाव से आँका जाता था किन्तु आज अंग प्रदर्शन सौंदर्य का पर्याय बन गया है, हम फैशन के गुलाम होते जा रहे हैं। जिनके ही दुष्परिणाम आज हमें वृद्धाश्रम, पारिवारिक कलह, विवाह विच्छेद, संततिनिरोध की भावना और अव्यवहारिक इच्छाओं के रूप में देखने को मिल रहे हैं।
आज आवश्यकता है ऐसी शिक्षा की, जिससे बच्चों का बचपन से ही ईश्वर भक्ति, धर्म, सदाचार, आज्ञाकारिता, त्याग, संयम और सहनशीलता आदि का विकास हो। वे सनातन धर्म में विश्वास करने वाले वीर धीर यतार्थ मानव बनकर अनेकानेक सभी आवश्यक सदुपयोगी शिक्षा प्राप्त करें। सरकार को भी इस सम्बन्ध में शिक्षा के सुधार के लिए अतिशीघ्र क्रियात्मक कार्य करने की आवश्यकता है। सांसारिक विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा के साथ साथ व्यवहारिक और नैतिक शिक्षा की भी आज के समय में अनिवार्य आवश्यकता है। इस कार्य के लिए केवल सरकार के भरोसे रहने के बजाय बच्चों के परिजनों, धर्म गुरुजन को भी आगे आना होगा। सर्वप्रथम तो बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में हमारी प्राचीन सनातनी संस्कृति के महत्त्व से बच्चों को अवगत कराते हुवे उन्हें पौराणिक और ऐतिहासिक कथानक एवं महापुरुषों के जीवन की प्रभावोत्पादक और शिक्षाप्रद घटनाओं को बताएं।
ईश्वर और धर्म की बातें और संस्कार भी पाठ्य पुस्तकों में रहे, ताकि वे संस्कार बच्चों को प्रारम्भ से ही प्राप्त हों। हमारे धर्मग्रंथों गीता, रामायण, वेद, उपनिषद आदि का भी अध्ययन उन्हें कराना होगा। सदाचार और दैवीय शक्ति संपन्न स्त्री पुरुषों के जीवन चरित्र से भी हमें अपने बच्चों को अवगत कराना होगा। धार्मिक शिक्षा की स्वतंत्र व्यवस्था भी होना चाहिए, जिसमे दैनिक ईश्वर प्रार्थना करते हुवे ईश्वर भक्ति, माता पिता की भक्ति, शास्त्र भक्ति, देश भक्ति, सत्य, प्रेम, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, निर्भयता, दानशीलता, निष्कपट व्यवहार, परस्त्री का सम्मान, किसी की भी निंदा नहीं करना, छल कपट या चोरी से बचना, शारीरिक श्रम या मेहनत की कमाई का महत्त्व, सबसे प्रेम से रहना इत्यादि बातों पर विशेष ध्यान देकर बच्चों के ह्रदय में इन गुणों को विकसित भी करना होगा। हमारे सनातनी पर्व, त्यौहार, महापुरुषों की जन्मतिथियों पर उत्सव मनाएं और उस दिन के महत्त्व से बच्चों को अवगत करायें।
खानपान की शुद्धता और संयम के लाभों से बच्चों को अवगत करना होगा, साथ ही विलासिता और फिजूलखर्ची के दोषों से भी अवगत कराना परम आवश्यक है जिससे बच्चो का जीवन सादा और निर्मल रहे। विद्यालयों में पढ़ाई के साथ साथ कुछ हाथों की कारीगरी वाला कोई हुनर भी अवश्य सिखाना चाहिए ताकि बच्चा बड़ा होने पर आत्मनिर्भर बनकर अपना कोई कामकाज तो प्रारम्भ कर सके। माता पिता और गुरुजनों के प्रति आदर बुद्धि और उनके पोषण को उनका नैतिक कर्तव्य बच्चों को समझाना भी अति आवश्यक है, बच्चो को यह भी शिक्षा देना आवश्यक है कि वे किसी का उपहास न करे और न ही किसी का अनादर करें। हमारी सनातनी संस्कृति के अनुकूल सद्व्यवहार, सेवा भावना, आहार व्यवहार आदि की शिक्षा पाठ्य पुस्तकों में रहना चाहिए। हमारे बल का संचय और सदुपयोग कैसे किया जाय, इससे भी उन्हें अवगत कराना होगा।
लड़कियों की शिक्षा में यह बात अवश्य ध्यान में रखना होगी कि बड़ी होने पर उनके सतीत्व, मातृत्व, और सद्ग्रहिणी के गुणों का पूर्ण विकास हो। श्रृंगार रस का पाठ पढ़ाते हुवे यह ध्यान रखना होगा कि उसमें फूहड़ता या अश्लीलता का समावेश न हो। हमारी सनातनी संस्कृति और संस्कारों के महत्त्व एवं लाभ बताते हुवे भिन्न संस्कृति के नुकसान, हानि और उनकी विकृति से अवगत कराना भी अत्यंत ही आवश्यक है। छात्रावास सादगी और संयम के नियमों से परिपूर्ण होना चाहिए, ताकि विद्यार्थी अपने स्वयं के कामकाज स्वयं ही करे। जिससे काम स्वयं करने की उसकी आदत बन जाये। अध्यापक और छात्रावास के व्यवस्थापक सदाचारी, धार्मिक, विलासिता के विरोधी और मितव्ययी होना चाहिए। आशा है कि कुछ तो सुधार होगा, इसी आशा के साथ दुर्गा प्रसाद शर्मा
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