देवाधिदेव श्री महादेव जी के द्वादश ज्योतिर्लिंग

हमारे देश में देवाधिदेव श्री महादेव जी के वैसे तो असंख्य मंदिर हैं जहाँ भगवान श्री भोलेनाथ की सेवा पूजा की जाती है किन्तु मुख्य रूप से द्वादश ज्योतिर्लिंग का विशेष महत्त्व है। सम्पूर्ण भारत देश के भिन्न भिन्न बारह स्थानों पर विराजमान भगवान श्री भोलेनाथ की महिमा से उन सभी स्थानों को तीर्थ क्षेत्र की मान्यता होकर इन सभी स्थानों पर प्रतिदिन असंख्य श्रद्धालुजन भगवान श्री भोलेनाथ के दर्शन एवं पूजन के लिए जाते हैं और भगवान भोलेनाथ जी के दर्शन, पूजन और आराधना करके अपना जीवन धन्य करते हैं तथा देवाधिदेव श्री महादेव जी भी उन भक्तजनों के पापों का नाश कर उन भक्तों का उद्धार करते हैं। सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनं। उज्जयिन्यां महाकाल मोंकार ममलेश्वरं। परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करं।  सेतुबन्धे तू रामेशं नागेशं दारुकावने। वाराणस्यां तू विश्वेशं त्रयम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तू केदारं धुश्मेशं च शिवालये। एतानि ज्योतिर्लिंगानी सायं प्रातः पठेन्नरः। सप्त जन्म कृतं पापं स्मरेणं विनश्यति।  देवाधिदेव श्री महादेव जी के द्वादश ज्योतिर्लिंग के बारे में कहा गया है कि इनके नाम स्मरण करने मात्र से सात जन्मों के पापों का नाश हो जाता है तो इनके दर्शन, पूजन और आराधना से कितना लाभ होगा इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। 
(1) सोमनाथ - गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित सोमनाथ ज्योतिर्लिंग को प्रथम ज्योतिर्लिंग माना जाता है। राजा दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं  विवाह सोमदेव अर्थात चंद्रदेव के साथ किया गया था, उनमे से रोहिणी के प्रति चंद्रदेव का विशेष लगाव एवं प्रेम था, जिससे उनकी अन्य पत्नियां ईर्ष्या करती थी।  उन सभी के द्वारा अपने पिता राजा दक्ष प्रजापति से इसकी शिकायत की तो दक्ष प्रजापति ने क्रोधित होकर चंद्रदेव को उनके क्षय होने का श्राप दे दिया था, जिस श्राप से विमोचन के लिए सोमदेव अर्थात चंद्रदेव ने यहीं पर भगवान श्री भोलेनाथ जी की सेवा की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिवजी ने सोमदेव को राजा दक्ष के श्राप से मुक्त किया था। यहीं पर प्रभास क्षेत्र है, जहाँ से प्रभु श्री कृष्ण जी द्वारा व्याघ्र के बाण लगने उपरांत अपने धाम गमन किया था। कहा जाता है कि चंद्रदेव द्वारा स्थापित और पूजित मंदिर का प्राचीन इतिहास काफी वैभवशाली रहा होने कारण ही इस मंदिर को कई बार आक्रांताओं द्वारा तोडा और लूटा गया था तथा विभिन्न विभिन्न धर्मालुजनों द्वारा बार बार इस मंदिर का जीर्णोद्धार भी करवाया गया था।  मंदिर का वर्तमान स्वरुप का श्रेय स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् सरदार वल्ल्भ भाई पटेल को जाता है। यहाँ हिरण, कपिला और सरस्वती नामक नदियों का महासंगम भी होता है।     

(2) मल्लिकार्जुन - आंध्रप्रदेश के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर स्थित श्री शैल पर्वत, जिसे दक्षिण का कैलाश पर्वत भी कहा जाता है, पर श्री मल्लिकार्जुन विराजमान हैं। कहा जाता है कि यहाँ दर्शन पूजन से सभी कष्ट दूर होकर अनंत सुख की प्राप्ति और आवागमन से मुक्ति मिलती है।  वहां दर्शन पूजन  से अश्वमेघ यज्ञ के बराबर फल प्राप्त  होता है। भगवान शिव और माता पार्वती के दोनों पुत्रों श्री गणेश और कार्तिकेय में पहले विवाह करने की बात पर विवाद हो गया था, जिसके निराकरण हेतु वे माता पिता के पास पहुंचे तो उन्होंने पृथ्वी परिक्रमा करने को कहकर विजेता का विवाह पहले करने का निर्णय सुना दिया। कार्तिकेय जी तत्काल चल दिए किन्तु गणेश जी सोच विचार में लग गए कि वे इस चुनौती से कैसे सामना  करेंगे। बुद्धि के सागर  श्री गणेश जी ने कुछ सोच विचार कर निर्णय लिया और माता पिता को एक आसन पर विराजित होने का निवेदन किया। माता पिता के आसन पर विराजित होने के बाद श्री गणेश जी ने उनकी सात प्रदक्षिणा कर विधिवत पूजन किया और पृथ्वी परिक्रमा के फल की प्राप्ति के अधिकारी हो गए। श्री गणेश जी की चतुराई से माता पिता प्रसन्न हो गए और उन्होंने विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों ऋद्धि व सिद्धि के साथ गणेश जी का विवाह कर दिया। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम जानकारी कार्तिकेय जी को नारद जी से प्राप्त हुई तो कार्तिकेय जी क्रोधित हो गए किन्तु शिष्टाचार का पालन करते हुवे माता पिता के चरण  स्पर्श कर वहाँ से चल कर क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। भगवान शिव और माता पार्वती ने नारद जी को उन्हें समझा बुझा कर वापस लिवाने भेजा किन्तु वे वापस नहीं आये होने पर कोमल ह्रदय माता पार्वती और भगवान शिव जी क्रौंच पर्वत पर पहुंचे तो कार्तिकेय जी तीन योजन दूर चले गए। कार्तिकेय जी के वहाँ से जाने के बाद भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हो गए। यहाँ के बारे में एक अन्य कथानक राजा चन्द्रगुप्त की कन्या और श्यामा गाय का भी प्रचलित है। मल्लिका माता पार्वती का नाम है तथा अर्जुन शिवजी का, इस प्रकार यह दोनों का संयुक्त नाम है। यहाँ पास ही पाताल गंगा भी  है तथा कुछ ही दुरी पर भ्रमराम्बा शक्ति पीठ है जहाँ सती माता की ग्रीवा गिरी थी। यहीं साक्षी गणेश जी का स्थान भी है जहाँ उपस्थिति लगाए बिना यात्रा पूर्ण नहीं मानी  जाती है। 

(3) महाकालेश्वर - मध्य प्रदेश में धार्मिक नगरी उज्जैन नगरी में मोक्षदायिनी पावन क्षिप्रा नदी के तट पर महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है, जिन्हे स्वयंभू माना गया है। शिवपुराण की कथा अनुसार भगवान शिव जी की प्रिय उज्जैन नगरी में बुद्धिमान कर्मकांडी शिवभक्त ब्राह्मणो का निवास था, वे प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर शिव जी की आराधना करते थे। वहीँ रत्नमाल पर्वत पर दूषण नमक राक्षस रहता था, वह ब्रह्मा जी से प्राप्त वरदान का घोर दुरूपयोग करते हुवे धार्मिक व्यक्तियोँ पर आक्रमण कर प्रताड़ित करने लगा था। उस दूषण नामक दैत्य के अत्याचार से अवंतिकापुरी अर्थात उज्जैन नगरी के निवासी काफी व्यथित हो रहे होकर उन्होंने भगवान शिव से इस सम्बन्ध में प्रार्थना की तो भगवान शिव ज्योति स्वरुप में प्रकट हुवे और उस राक्षस का संहार किया था।  इसके बाद अपने भक्त जनों के आग्रह पर ज्योतिर्लिंग  स्वरुप में यहीं प्रतिष्ठित हो गए। ऐसा माना जाता है कि आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर शिवलिंग और पृथ्वी पर महाकालेश्वर शिवलिंग ही मान्य शिवलिंग हैं। भगवान श्री महाकाल की प्रतिदिन होने वाली भस्म आरती विश्व प्रसिद्द है, जिसमें सम्मिलित होने मात्र से कष्ट दूर हो जाते हैं और इसके बगैर महाकाल महाराज के दर्शन भी पुरे नहीं माने जाते हैं। तीन मंजिले मंदिर में पहले श्री महाकालेश्वर दूसरी मंजिल पर श्री ओंकारेश्वर और तीसरी मंजिल पर श्री नागचंद्रेश्वर जी विराजमान हैं, जिनमे से  श्री नागचंद्रेश्वर जी के दर्शन वर्ष में केवल एक बार नाग पंचमी के दिन ही होते हैं। सावन भादौ और कार्तिक माह में भगवान  श्री महाकाल महाराण की भव्य सवारी के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में धर्मप्रेमी जन उज्जैन आते हैं। श्री महाकाल महाराज को उज्जैन का राजा भी कहा जाता है, इसलिए कोई भी उच्च राज पदासीन व्यक्ति उज्जैन में रात्रि विश्राम नहीं करता है।  

(4) ओंकारेश्वर-ममलेश्वर  -  यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के समीप इंदौर और खंडवा के मध्य पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है।  नर्मदा नदी के मध्य ॐ के आकार की पर्वत श्रृंखला एक टापू के रूप में स्थित है, जिस पर ओंकारेश्वर प्रभु विराजमान हैं।  ब्रह्ममुख से ॐ की उत्पत्ति हुई होकर वेदपाठ एवं धर्मकार्यों में भी ॐ का विशेष महत्त्व है और ॐ का आकार लिए होने के कारण ही ओंकार स्वरूप ओंकारेश्वर कहा जाता है। ओंकार स्वरुप का यह पर्वत चारों तरफ से नदी से घिरा हुआ है।  उत्तर एवं दक्षिण की तरफ से प्रवाहित नदी की जलधारा में दक्षिण की धारा को मुख्य धारा माना जाता है। इसी धारा के दोनों तरफ ओंकारेश्वर और ममलेश्वर के दो भिन्न भिन्न स्वरुप में स्थित दोनों ज्योतिर्लिंग की गणना एक ही में की जाती है।  कहा जाता है की इस पर्वत पर महाराज मान्धाता ने तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था और तब से ही यहाँ प्राकृतिक स्वरुप में ओंकारेश्वर विराजमान है, इस कारण इस पर्वत को मान्धाता पर्वत और शिवपुरी भी कहा जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार विंध्य पर्वत द्वारा की गई पार्थिव पूजा और कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने प्रकट होकर विंध्य पर्वत को मनोवांछित वर प्रदान कर यहां ओंकारेश्वर और ममलेश्वर के दो भिन्न भिन्न स्वरूपों में विराजित हुवे। कार्तिक पूर्णिमा पर यहाँ वृहद आयोजन भी होता है।   

(5) केदारनाथ - हिमालय पर्वत की गोद में उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित श्री केदारनाथ धाम द्वादश ज्योतिर्लिंग के साथ ही चार धाम और पांच केदार में सम्मिलित हैं। प्रतिकूल जलवायु के चलते अक्षय तृतीया से दीपावली के मध्य ही दर्शन हेतु मंदिर के पट खुलते हैं। अति प्राचीन स्थापित स्वयंभू शिवलिंग वाले इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण पांडवों के पौत्र जन्मेजय द्वारा कराया गया था और कालांतर में आदि शंकराचार्य जी ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। केदारनाथ, कराचकुंड और भरतकुंड नामक तीन पर्वतों के मध्य स्थित इस स्थान के आसपास पांच प्रवाहित नदियाँ - मन्दाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी हैं। प्रतिकूल जलवायु में इतनी अधिक ऊंचाई पर इतने भव्य और मजबूत मंदिर का निर्माण कैसे हुआ होगा यह तो समझ से परे होकर अबूझ पहेली ही है। भगवान विष्णु जी के अवतार नर और नारायण केदार घाटी में तपस्यारत थे, जिनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुवे और उनकी प्रार्थना पर ज्योतिर्लिंग के रूप में सदैव वास करने का वर प्रदान किया। वहां एक ओर नर नारायण की तपोभुमि है तो दूसरी ओर श्री बद्रीनाथ धाम स्थित हैं। यह भी कहा जाता है कि पांडवों के स्वर्गप्रयाण के समय भगवान शिव ने भैंसे के रूप में उन्हें दर्शन देकर वंश हत्या और गुरू हत्या के पाप से उन्हें मुक्त किया था और बाद में धरती में समा गए किन्तु भीम ने उनकी पूंछ पकड़ ली थी तो केदारनाथ में भगवान शिव का पृष्ठ भाग विराजित है, वहीं जिस स्थान से भगवान शिव का मुख धरती से बाहर आया वह नेपाल में पशुपतिनाथ धाम के नाम से प्रसिद्द है। 

केदारनाथ अर्द्ध शिवलिंग है जो नेपाल के पशुपतिनाथ को मिलाकर पूर्ण माना जाता है।  दक्षिण भारत के रामेशवरम मंदिर के एकदम सीध में स्थित केदारनाथ मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह करीब 400 वर्षों तक बर्फ में दबकर लुप्त हो गया था और कालांतर में पूर्ण सुरक्षित अवस्था में बाहर निकला।  शीत ऋतु में पट बंद होने से खुलने तक मंदिर के अंदर का दीप प्रज्वलित रहता है, उस अवधि में भगवान के विग्रह को नीचे उखीमठ लाया जाता है और वहीं उस अवधि में पूजनादि सम्पन्न होती है। पुराणों की भविष्यवाणी है कि भविष्य में नर-नारायण पर्वत आपस में मिल जावेंगे तब श्री बद्रीनाथ और श्री केदारनाथ धाम के मार्ग बंद हो जायेंगे और ये दोनों धाम लुप्त हो जायेंगे। मंदिर के गर्भगृह में ज्योतिर्लिंग शिला के रूप में विराजित है जिस पर भक्तजन अपने हाथों से घी का लेपन करते हैं। गर्भगृह के बाहर माता पार्वती, मुख्य द्वार पर श्री गणेश जी और सामने नंदी विराजमान हैं तो सभामंडप में पाँचों पांडव सहित श्री कृष्ण जी और माता कुंती की प्रतिमाएं विराजित हैं। परिक्रमा पथ में अमृत कुंड और भैरवनाथ विराजित हैं, पास ही में श्री शंकराचार्य जी  स्थित है।  

(6) भीमशंकर -  भीमशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे जिले के सह्याद्रि पर्वत पर स्थित है, यही से भीमा नदी भी निकलती है जो कि आगे चलकर कृष्णा नदी से मिलती है। भीमशंकर शिवलिंग मोटा होने के कारण मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ के बारे में मान्यता है कि जो भक्त प्रतिदिन सूर्योदय के समय यहाँ दर्शन करता है उसके सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग के द्वार उसके लिए खुल जाते हैं। शिवपुराण में बताया गया है कि कुम्भकर्ण का पुत्र भीम नामक राक्षस था, जिसका जन्म उसके पिता की मृत्यु के ठीक बाद हुआ था। पिता की मृत्यु के बारे में माता से प्राप्त जानकारी के बाद वह भगवान श्री राम का वध करने को आतुर हो उसने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे विजयी होने का वरदान दिया। वरदान पाकर वह निरंकुश हो गया, उसने देवताओं को भी परास्त कर दिया और सभी पूजा पाठ बंद करवा दिए। उसके आतंक से मनुष्य और देवता भयभीत रहने लगे और काफी व्यथित होकर वे सभी भगवान शिव जी की शरण में गए। भगवान शिव जी ने सभी को समाधान के प्रति आश्वस्त किया और उससे युद्ध करने का निश्चय कर युद्ध में शिव जी ने भीम राक्षस का अंत कर दिया। इसके बाद सभी ने भगवान शिव जी से आग्रह किया कि वे इसी स्थान पर विराजित हों तब शिवजी ने उन सभी की प्रार्थना को स्वीकार कर भीमशंकर ज्योतिर्लिंग स्वरुप में वहीं विराजित हो गए। महान मराठा शिरोमणि शिवाजी महाराज सहित कई मराठा शासकों द्वारा समय समय पर इस मंदिर के रखरखाव, जीर्णोद्धार आदि में अपना सहयोग प्रदान किया। यहां पर हनुमान झील, गुप्त भीमशंकर, भीमा नदी उद्गम स्थल, नागफनी, बॉम्बे प्वाइंट, साक्षी विनायक के भी मनोहारी दर्शन लाभ प्राप्त हो सकते हैं। यह स्थान वन्य क्षेत्र होकर वन्यजीव अभ्यारण्य है जहाँ वनस्पति, औषधि, पक्षियों और वन्यजीवों की भरमार है। यही नजदीक में पार्वती माता के अवतार स्वरुप कमलजा माताजी का भी मंदिर स्थित है।   

(7) विश्वनाथ -  उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के तट पर स्थित प्राचीन सृष्टि निर्माण की पहली नगरी और अति पावन पवित्र काशी नगरी जिसे बनारस और वाराणसी भी कहा जाता है। वहाँ विराजमान हैं, भगवान शिव जी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग स्वरुप में।  समस्त धर्म स्थलों में अपना विशेष स्थान रखने वाली काशी नगरी के बारे में कहा जाता है कि भगवान भोलेनाथ के त्रिशूल पर स्थित यह नगरी प्रलय  काल में भी यथावत रहेगी। ऐसी मान्यता है कि पावन गंगा नदी में स्नान करके विश्वनाथ अर्थात ब्रह्माण्ड के भगवान के दर्शन पूजन कर लेने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।  वेद पुराणों के अनुसार काशी में भगवान विष्णु जी के अश्रु गिरने से बिंदु सरोवर का निर्माण हुआ था तथा उनके चिंतन से पुष्करिणी बनी थी। स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान शिव जी  ने स्वयं अपने त्रिशूल से कुआ बनाया था और यहीं पर माता पार्वती को उन्होंने ज्ञानोपदेश दिया था, इसलिए वह स्थान ज्ञानवापी अर्थात ज्ञान का कुआ कहलाया। काशी नगरी में ही माता अन्नपूर्णा भी विराजित हैं साथ ही बाबा विश्वनाथ मंदिर के पास माँ विशालाक्षी का भी मंदिर है, जिसे शक्तिपीठ की भी मान्यता है। शिवगणों में काल भैरव जोकि काशी के कोतवाल कहे जाते हैं और नगरी की सुरक्षा करते हैं, उनके दर्शन के बगैर विश्वनाथ बाबा की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती है। काशी नगरी को मोक्षदायिनी भी कहा जाता है, मान्यता यह भी है कि जो मनुष्य यहाँ अपने शरीर का त्याग करता है वह सांसारिक बंधनों  से मुक्त हो जाता है और यही कारण है कि कई लोग काशी में अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करते हैं। काशी नगरी का महाश्मशान भी बाबा विश्वनाथ का ही अति प्रिय स्थान माना जाता है। 

(8) त्रयंबकेश्वर -  महाराष्ट्र के नासिक जिले में ब्रह्मगिरि पर्वत और गोदावरी नदी के करीब त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है।  गोदावरी नदी  ब्रह्मगिरि पर्वत से ही निकली है और कहते हैं कि भगवान शिव गौतम ऋषि और गोदावरी नदी के आग्रह पर ही इस स्थान पर ज्योतिर्लिंग स्वरुप में विराजमान हुवे।  इसका कथानक कुछ इस प्रकार है कि ब्रह्मगिरि पर्वत पर गौतम ऋषि अपनी पत्नी अहिल्या के साथ निवास करते थे, वहीं उन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की थी।  एक बार वहाँ बड़ा भयानक अकाल पड़ा जिससे वहाँ के सभी लोगों को कई प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ा, पानी की बून्द तक के लिए सब तरस गए और सब प्राणी, जीव-जंतु, मनुष्य पलायन करने लगे जिससे गौतम ऋषि बड़े चिंतित  हुवे और उन्होंने छह माह कठोर तप करके वरुणदेव को प्रसन्न किया, वरुणदेव ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा। ऋषि बोले प्रभु वर्षों से जल की प्यासी इस धरा पर वर्षा करने की कृपा करें। वरुणदेव बोले देवताओं के विधान के विरूद्ध मैं वर्षा तो नहीं कर सकता किन्तु मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर सदैव अक्षय रहने वाला जल प्रदान करता हूँ, इसके लिए सर्वप्रथम एक गड्ढा तैयार करो।  गौतम ऋषि ने एक हाथ का गड्ढा खोदा जिसे वरुणदेव ने दिव्य जल से भर दिया और बोले हे महामुने यह जल कभी क्षीण नहीं होगा और यह जल तीर्थरूप होकर तुम्हारे नाम से विख्यात होगा,  यहाँ किये दान, भोग, देव पूजन और पितरों के श्राद्ध सभी अक्षय होंगे। गौतम ऋषि उस जलधारा से परोपकार में लीन हो गए, लोगों से खेती करने को कहा और खुद भी खेती करने लगे तो वहाँ  पर फसलों का उत्पादन भी बढ़ने लगा फिर लोगों को जानकारी मिलने लगी तो सब लोग वापस आने लगे। कुछ लोग ऋषि से ईर्ष्या भी करने लगे 'और उन्हें वहाँ से बाहर निकल जाने के लिए प्रयास भी करने लगे उन पर गौ हत्या का दोष भी लगाया गया। तब गौतम ऋषि ने भगवान शिव की आराधना की उनके कठिन तप से भगवान शिव जी प्रसन्न हुवे और ऐसा कहा जाता है कि उसी जल से भरे गड्ढे से शिव जी प्रकट हुवे और गौतम ऋषि को गौ हत्या के पाप से मुक्त किया तब ऋषि ने भगवान शिव से वहीँ विराजित होने का आग्रह किया तब से ही बताया जाता है कि मुख्य मंदिर में जल युक्त गड्ढे  में तीन लिंग स्वरूप में ब्रह्मा,  विष्णु और महेश विराजमान हैं। इसी स्थान के पास ही पंचवटी स्थित है, जहाँ से लंकापति रावण ने माता सीता का हरण किया था।    

(9) बैद्यनाथ - झारखण्ड के देवधर में स्थित हैं,  बैद्यनाथ धाम। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान विष्णु ने इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना की थी। धार्मिक मान्यताओं के आधार पर देवधर में शिव से पहले शक्ति का वास माना  गया है। शक्ति पीठ में ह्रादपीठ और चिता भूमि के नाम से प्रसिद्द इस स्थान पर शिव और शक्ति दोनों का मिलन होता है। जिस समय भगवान शिव माता सती के शव को लेकर तांडव कर रहे थे तब माता सती का अंग इसी स्थान पर गिरा था और उस अंग का विधानपूर्वक देवताओँ द्वारा अग्नि संस्कार किये जाने के कारण ही इसे चिताभूमि के नाम से जाना जाता है।  कहते हैं कि यहाँ आज भी  मिटटी की खुदाई करने पर नीचे राख निकलती है।  महाश्मशान होने के कारण तंत्र मार्ग में भी देवधर एक महत्वपूर्ण  स्थान माना गया है किन्तु यह भी कहा जाता है कि यहाँ किसी भी तांत्रिक की तंत्र साधना पूर्ण नहीं हो सकी है। यहाँ त्रिशूल के स्थान पर पंचशूल स्थापित है। कहा जाता कि भगवान शिव ने शुक्राचार्य जी को पञ्चवक्त्रम निर्माण की विधि बताई थी और शुक्राचार्य जी से लंकापति रावण ने इस विद्या को सीखा था और लंका के चारों और पंचशूल स्थापित किये थे तथा यहाँ भी लंकापति रावण द्वारा पंचशूल की स्थापना की थी। पंचशूल के बारे में कहा जाता है कि यहाँ आने वाले भक्त यदि किसी  कारणवश बाबा बैद्यनाथ के दर्शन नहीं कर पाए तो केवल पंचशूल के दर्शन मात्र से ही उन्हें सम्पूर्ण पुण्य फलों की प्राप्ति हो जाती है। यहाँ पुरे साल भर कावड़ चढ़ाने का भी प्रचलन है।  

यहाँ के बारे में एक किदवंती और भी है कि लंकापति रावण को लगा कि उनकी लंका अपूर्ण है और उन्होंने शिव जी को लंका ले जाने की इच्छा से शिवजी की आराधना करते हुवे कठोर तपस्या की और अपने मस्तक काट काट कर शिवलिंग पर अर्पित करना प्रारम्भ कर दिए। अपने नौ मस्तक अर्पित करने के बाद दसवां मस्तक काटते समय शिवजी ने प्रकट होकर लंकापति रावण के घावों को भरकर पुनः दशानन बना दिया  तथा प्रसन्न होकर बोले कि वे तो लंका नहीं जा सकते किन्तु उन्होंने शिवलिंग लंका ले जाने की अनुमति इस शर्त पर प्रदान की कि यह शिवलिंग मार्ग में कही रखे नहीं, यदि रख दिया तो यह वहीं स्थापित हो जाएगा। लंकापति रावण जब शिवलिंग लेकर लंका की ओर चले तो अन्य देवता भी नहीं चाहते थे कि भगवान शिव लंका जाये तब देवताओं ने वरुण देव से सहायता के लिए आग्रह किया।  वरुण देव आग्रह को स्वीकार कर लंकापति के उदर में प्रवेश कर अपना प्रभाव बताया जिस कारण लंकापति रावण को लघुशंका की तीव्र इच्छा हुई और सोचा कि ज्योतिर्लिंग किसी को सौंपकर लघुशंका से निवृत्त हो जाऊ, तभी एक ग्वाले के रूप में भगवान विष्णु जी वहां पधारे जिन्हे लंकापति रावण ने शिवलिंग सुपुर्द कर कहा कि उसके लघुशंका करके आने तक शिवलिंग को नीचे न रखे किन्तु देवता तो चाहते ही थे कि शिवजी लंका नहीं जावें सो ग्वाले रूपी विष्णुजी ने शिवलिंग को वहीं नीचे रख दिया और इस प्रकार से विष्णु जी द्वारा बाबा बैद्यनाथ की स्थापना कर दी गई। रावण ने लौटकर आने के बाद काफी प्रयास किया किन्तु शिवलिंग को उठा नहीं सका तो उसने शिवलिंग को अपने हाथों से दबा दिया, आज भी बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वैसी ही दबी स्थिति में ही विराजमान हैं।  

(10) नागेश्वर - गुजरात राज्य के गोमती द्वारिका के पास दारूकावन में यह ज्योतिर्लिंग स्थित है। इस सम्बन्ध में आंध्र प्रदेश के अवढा गांव और उत्तराखंड के अल्मोड़ा के पास जोगेश्वर में भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग माना जाता है किन्तु शास्त्रोक्त प्रमाणिकता दारूकावन की ही मानी जाती है। इस सम्बन्ध में जो किदवंती है वह यह है कि सुप्रिय नामक एक बड़ा ही धर्मात्मा व सदाचारी वैश्य भगवान शिव का अनन्य भक्त था, वह निरंतर शिवाराधना, पूजन और ध्यान में लीन रहकर अपने सभी कार्यों को भगवान शिवजी को अर्पित करके ही अपने कार्य किया करता था। उसकी इस शिवभक्ति से दारुक नामक राक्षस बहुत ही क्रुद्ध रहा करता था। दारुक को शिवपूजा अच्छी नहीं लगती थी और उसका सदैव ही यह प्रयास रहता था कि सुप्रिय की पूजा में विघ्न पहुंचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर अपनी यात्रा कर रहा था तब दारुक ने नौका पर आक्रमण कर दिया और नौका में सवार सभी लोगों को बंदी बनाकर कारगार में डाल दिया। सुप्रिय कारागार में भी शिवजी की पूजा आराधना करता रहा और अन्य बंदीजनों को भी पूजा करने के लिए प्रेरित करने लगा। दारुक को जब जानकरी मिली तो बड़ा ही क्रोधित होकर कारागार पहुंचा तो देखा सुप्रिय शिवजी के चरणों में ध्यान लगाए बैठा है। दारुक सुप्रिय पर बड़ा क्रोधित हुआ और उसे काफी भला बुरा कहा किन्तु सुप्रिय का ध्यान भांग नहीं हुआ। इस पर दारुक का क्रोध और भी बढ़ा और उसने अपने अनुचरो को सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दिया, इस पर भी सुप्रिय विचलित नहीं हुआ। सुप्रिय को भगवान शिव पर पूर्ण विश्वास था कि शिवजी कुछ भी गलत नहीं होने देंगे और मेरी रक्षा करेंगे एकाग्र भाव से यथावत ही आराधना करता रहा। ऐसा कहा जाता है कि अपने भक्त पर संकट देखकर भगवान शिव जी उस कारागार में ज्योतिर्लिंग स्वरुप में प्रकट हुवे और सुप्रिय को दर्शन देकर अपना पाशुपतास्त्र सुप्रिय को प्रदान किया जिससे सुप्रिय ने दारुक राक्षस और उसके सहायकों का वध किया। कालांतर में वही स्थान शिवाज्ञा से नागेश्वर के नाम से प्रसिद्द हुआ। 

यह भी मान्यता है कि बाद में उस स्थान पर एक बड़े सरोवर का निर्माण हुआ और ज्योतिर्लिंग उस सरोवर में समाहित हो गया।  समय बीतता गया युग बदला, द्वापर युग आया तथा कौरवों से द्युत  क्रीड़ा में पांडवों के पराजित होने के बाद 12 वर्ष वनवास और 1 वर्ष अज्ञातवास जाने पर जब पांडव भ्रमण करते हुवे दारूकावन आये और जब उन्होंने देखा की एक गाय प्रतिदिन सरोवर में जाती है और एक स्थान पर अपना दूध छोड़ती है, तब पांडवों ने किसी आशंका का विचार करके उस सरोवर को नष्ट करने का निश्चय किया।  जब महाबली भीम ने गदा प्रहार कर सरोवर को तोडना चाहा तो  उस समय सभी ने महावेव जी के इस शिवलिंग के दर्शन किये और भगवान श्री कृष्ण ने सभी को इस ज्योतिर्लिंग की वास्तविकता से अवगत कराया तब पांडवों द्वारा उस स्थान पर नागेश्वर महादेव जी का भव्य मंदिर का निर्माण करवाया।     

(11) रामेश्वरम् - यह ज्योर्तिलिंग तमिलनाडू राज्य के रामनाथपुरम् नामक स्थान पर स्थित है। सनातन धर्म का यह पवित्र तीर्थ द्वादश ज्योर्तिलिंग के साथ साथ चारों धाम में मान्य है तथा इस स्थान पर भगवान श्री राम द्वारा शिवलिंग स्थापना एवं पूजन आराधना के कारण रामेश्वरम् के नाम से जाना जाता है। हिंद महासागर एवं बंगाल की खाडी से चारों ओर से घिरा हुआ यह स्थान एक सुन्दर शंख के आकार का द्वीप है। भगवान श्री राम ने लंका पर चढाई करने से पूर्व यहाँ उन्होंने भगवान शिव का पूजनादि करके सेतु निर्माण किया था, जिस पर से वानर सेना के साथ लंका पहुँच कर रावण पर विजय पाई थी। कहते हैं कि बाद में विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु श्री राम जी ने तोड दिया था। आज भी इस सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। कहा जाता है कि पहले धनुषकोटि से द्वीप तक पैदल चलकर जा सकते थे किंतु एक चक्रवाती तूफान से यह मार्ग टूट गया है। ब्रिटीश शासन में एक जर्मन इंजीनियर की मदद से रेल का एक पुल बनवाया गया था, यह पुल पहले जहाजों के निकलने के समय खुला करता था। वर्तमान में इसी पुल के माध्यम से द्वीप पर पहुँचा जाता है। यहाँ समुद्र की लहरों का वेग अति शांत और अति अल्प है, इस कारण यहाँ यात्रियों को समुद्र के बजाय नदी का सा एहसास होता है।    
   
हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान श्री राम लंका विजय की कामना से तथा लंकापति रावण के ब्राह्मण होने तथा ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति की कामना से शिवपूजन करना चाहते थे, किंतु उस समय वहाँ कोई शिवालय नहीं था, इसलिए उन्होंने श्री हनुमान जी को कैलाश पर्वत से भगवान शिव जी का शिवलिंग लाने भेजा था। श्री हनुमान जी जब उचित मुर्हुत में शिवलिंग लेकर वापस नहीं आ पाए तो माता सीता जी ने समुद्र की बालूरेत से शिवलिंग का निर्माण किया और इसी शिवलिंग की भगवान श्री राम जी ने पूजा कर लंका को प्रस्थान किया। बाद में श्री हनुमान जी महाराज द्वारा लाये गये शिवलिंग की स्थापना भी यहीं पास में की गयी थी। भगवान श्री राम जी द्वारा स्थापित किए जाने के कारण ही रामेश्वरम् नाम हुआ। यहाँ के बारे में एक मान्यता और भी है कि इस मंदिर के अंदर जो कुए निर्मित हैं, वे सभी कुए भगवान श्री राम जी द्वारा अपने बाणों से बनाए थे और यह भी माना जाता है कि उन कुओं में सभी तीर्थों का जल है। भगवान श्री रामचंद्र जी द्वारा ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति की अभिलाषा से यहाँ पूजा की थी इसलिए माना जाता है कि यहाँ विधिपूर्वक पूजन करने से ब्रह्म हत्या समान दोषों से भी मुक्ति मिल जाती है। यहाँ भगवान शिव पर गंगाजल अर्पित करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्री राम चरित मानस में भी श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस बात का उल्लेख किया है। रामेश्वरम् ज्योर्तिलिंग के दक्षिण की तरफ कन्याकुमारी तीर्थ है और पास ही स्वामी विवेकानंद जी का भी स्थान है। इसके अलावा विशालाक्षी मंदिर में स्थित नौ ज्योर्तिलिंगों के बारे में कहा जाता है कि वे लंकापति विभीषण जी द्वारा स्थापित किए गये हैं।       

(12) घुश्मेश्वर/घृष्णेश्वर - घुश्मेश्वर एवं घृष्णेश्वर के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान महाराष्ट्र के ओरंगाबाद में संभाजी नगर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। एलोरा की प्रसिद्ध गुफाओं के समीप स्थित इस स्थान के पास ही गुरू एकनाथ जी एवं जनार्दन जी महाराज की समाधि भी है। शहर से दूर एकदम सादगीपूर्ण माहौल में यह स्थान स्थित है। इस ज्योर्तिलिंग के संबंध में हमारे धर्मशास्त्रों में जो मान्यता है उस अनुसार दक्षिण देश में देवगिरी पर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी एवं तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहता था, जिसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों पति पत्नी में परस्पर काफी प्रेम था, किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं था। उनके यहाँ बस एक कमी थी कि उनके कोई संतान नहीं थी। सुदेहा संतान के लिए काफी ललायित थी किंतु ज्योतिषीय गणना के मान से उसे संतानोत्पत्ति के योग नहीं थे।  ऐसी स्थिति में अपने पति से उसने अपनी छोटी बहन के साथ दूसरा विवाह करने का आग्रह किया। सुधर्मा को पहले तो ठीक नहीं लगा किंतु बाद में अपनी पत्नी सुदेहा की जिद के सामने झुक गये और उसकी छोटी बहन घुश्मा के साथ विवाह कर लिया। घुश्मा अत्यंत ही विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी तथा भगवान शिव जी की अनन्य भक्ता भी थी। वह प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर निष्ठापूर्वक उनका पूजन करती थी।     

भगवान शिवजी की कृपा से कुछ ही दिनों बाद उसके गर्भ से अत्यंत ही सुन्दर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा और दोनों हंसी खुशी से अपना समय व्यतीत कर रही थी, किंतु कुछ दिन बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार उत्पन्न हुआ और वह सोचने लगी कि मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं, सब कुछ घुश्मा का है, उसने मेरे पति पर भी अधिकार जमा लिया है, संतान भी उसी की है। दिनोंदिन इस तरह के विचार सुदेहा के मन में बढते गये। इथर घुश्मा का बालक भी जवान हो गया और उसका विवाह भी हो गया। अपने मन में कुविचारों के दबाव में एक दिन सुदेहा ने रात्रि में सोते समय घुश्मा के युवा पुत्र को मार डाला और उसके शव को ले जाकर उसी तालाब में फैंक दिया, जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। प्रातःकाल जब यह बात सबको पता लगी तो घर में कोहराम मच गया, सुधर्मा और उसकी पुत्रवधु हाल बेहाल होकर विलाप करने लगे किंतु घुश्मा नित्य की भांति भगवान शिव की आराधना में तल्लीन रही जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो । पूजा समाप्ति के बाद वह उन पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में विसर्जित करने चल पडी। जब वह उन पार्थिव शिवलिंगों को विसर्जित कर लौट रही थी तो उसे उस समय उसका अपना बेटा तालाब के अंदर से निकल कर आता हुआ दिखाई दिया और पास आकर सदैव की तरह वह घुश्मा के चरणो में गिर पडा, जैसे कहीं आसपास ‌से घुम फिर कर आ रहा हो। उसी समय भगवान शिव जी भी वहाँ प्रकट हो गये ओर सुदेहा के कृत्यों से काफी क्रुद्ध हो उसका वध करने को तत्पर हो गये। तब घुश्मा ने भगवान शिव जी से हाथ जोडकर प्रार्थना की कि प्रभु यदि आप मुझसे प्रसन्न हों तो मेरी इस अभागी बहन को क्षमा कर दें, उसने निश्चित ही जघन्य कार्य किया है किंतु आपकी दया और कृपा से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया है, अब आप उसे क्षमा कर देंवें, इसके अतिरिक्त मेरी एक और प्रार्थना है कि लोक कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा निवास करें। भगवान शिव जी ने घुश्मा की दोनों ही बातें स्वीकार कर ली और वहीं ज्योर्तिलिंग स्वरूप में प्रकट हो गये। शिवजी की अनन्य भक्ता घुश्मा के आराध्य होने के कारण यह ज्योर्तिलिंग घुश्मेंश्वर के नाम से जाना जाता है, इनके दर्शन करने मात्र से लौकिक और पारलौकिक दोनों के लिए अमोघ फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार मेरे द्वारा द्वादश ज्योर्तिलिंग की महिमा आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है इसमें कोई त्रुटि हो तो भगवान श्री भोलेनाथ जी मुझे क्षमा करें और उनके सभी ज्योतिर्लिंगों के दर्शन लाभ प्राप्त कर सकूं, ऐसी मुझ पर और सभी पर कृपा भी करें।आप सभी को दुर्गा प्रसाद शर्मा की ओर से हर हर महादेव।   




केदारनाथ👉 केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग भी भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। यह उत्तराखंड में स्थित है। बाबा केदारनाथ का मंदिर बद्रीनाथ के मार्ग में स्थित है। केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी मिलता है। यह तीर्थ भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। जिस प्रकार कैलाश का महत्व है उसी प्रकार का महत्व शिव जी ने केदार क्षेत्र को भी दिया है।

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