हरतालिका तीज
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला पर्व है हरतालिका तीज, जिसे गौरी तृतीया भी कहा जाता है। भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित यह पर्व अविवाहित एवं विवाहित सभी महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। अविवाहित युवतियां श्रेष्ठ एवं मनोवांछित वर की प्राप्ति हेतु तो विवाहित महिलाएं अखंड सौभाग्य की प्राप्ति हेतु इस पर्व को मानती हैं। भगवान शिव, माता पार्वती और श्री गणेश जी की निराहार रहकर पूजन प्रत्येक प्रहर करते हुवे फल, फूल और पत्रादि वनस्पतियां अर्पित की जाती है, रात्रि जागरण कर भजन कीर्तन किये जाते हैं। इस व्रत के बारे में कहा जाता है कि इसे एक बार प्रारम्भ करने के बाद छोड़ा नहीं जाता बल्कि आजीवन किया जाता है। रात्रि जागरण उपरांत प्रातः काल आखिरी में पूजन कर माता गौरी को सिंदूर अर्पित कर ककड़ी का भोग लगाया जाता है, उस प्रसाद से महिलाएं अपना व्रत खोलती हैं और फिर अन्न ग्रहण करती हैं।
हरतालिका यह शब्द हरत अर्थात हरण और आलिका अर्थात सखियों से मिलकर बना है और सखियों द्वारा माता पार्वती के हरण का भी प्रसंग इससे जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि माता पार्वती के कठोर तप से उनकी दशा ख़राब रहने लगी थी, जिससे उनके पिता बहुत परेशान रहते थे और वे अपनी पुत्री का शीघ्र विवाह कर देना चाहते थे। पिता की मंशा जानकर पार्वती जी ने अपनी सखियों से अनुरोध किया कि वे उन्हें किसी एकांत और गुप्त स्थान पर ले चलें। तब सखियां माता पार्वती की इच्छानुसार उन्हें उनके पिता की नजरों से बचाकर घने जंगल की एक गुफा में उन्हें छोड आई थी। जहाँ रहकर माता पार्वती ने भगवान शिव को वर रूप में पाने के लिए रेत का शिवलिंग बनाकर कठोर तप किया था और इसी तृतीया को उन्होंने निर्जला उपवास रखकर रात्रि जागरण भी किया था, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया था। अगले दिन माता पार्वती ने अपनी सखियों के साथ व्रत का पारण कर समस्त पूजन सामग्री को गंगा नदी में प्रवाहित किया। आज भी यह पर्व उसी स्वरूप में मनाया जाता है।
मंंदार पुष्पों से अपने कैशों को अलंकृत किए माता पार्वती श्री कैलाश पर्वत पर मुंडों की माला से अपनी जटाओं को अलंकृत किए शिवजी से पूछती हैं कि हे नाथ किस तप व्रत या दान से आप मुझे मिले कृपया यह बताने की कृपा करें। तब देवाधिदेव श्री महादेव जी बोले हे देवि जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है और जिस अनुष्ठान से समस्त स्त्रियां पापमुक्त हो जाती हैं उस हरतालिका तीज के व्रत का माहत्म्य सुनाता हूँ। भगवान शिव पार्वती जी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्धेश्य से कहते हैं कि हे गौरी, पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में 12 वर्षों तक उल्टे लटककर धुंआ पीकर, वृक्षों के सूखे पत्ते खाकर तपस्या की, माघ माह की कडाके की ठंड में निरंतर जल में प्रवेश करके तुमने तप किया, बैशाख की भीषण गर्मी में तुमने पंचाग्नि में अपने शरीर को तपाया, श्रावण की मूसलाधार बरसात में खुले आसमान में भीगते हुए बगैर अन्न जल ग्रहण किए तपस्या की। तुम्हारी उस कठोर तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बडे ही दुखी होते थे और तुम्हारा शीघ्र विवाह कर देना चाहते थे। एक दिन जब तुम्हारे घर नारद जी पधारे तब उनका सत्कार कर तुम्हारे पिता ने उनके आने का कारण पूछा तो नारद जी बोले कि विष्णु जी आपकी पुत्री के कठोर तप से प्रसन्न होकर उससे विवाह करना चाहते हैं। नारद जी की बात सुनकर तुम्हारे पिता हर्षित हुए और उन्होंने भी सहमति प्रदान कर दी। इस बात का ज्ञान जब तुम्हें हुआ तो तुम दुखी हो गई।
तुमने अपना यह दुख अपनी एक सखी को बतलाया कि मैंने शिव जी को वरण करने का निश्चय किया है और मेरे पिता ने मेरा विवाह श्री विष्णु जी से निश्चित कर दिया है, ऐसी स्थिति में मैं धर्मसंकट में आ गई हूँ कोई उपाय नहीं सूझ रहा। तुम्हारी सखी बडी ही समझदार थी उसने तुम्हें समझाया और बोली कि मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूँ, जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी नहीं पाऐंगे और तुम वहाँ साधना करना। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हें शिवजी अवश्य मिलेंगे। तुमने वैसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बडे दुखी और चिंतित हुए और सोचने लगे कि वे विष्णुजी से तुम्हारा विवाह तय कर चुके हैं यदि विष्णुजी बारात लेकर आ गए तो बडा ही अपमान होगा। उन्होंने तुम्हारी खोज करना प्रारंभ कर दी। जबकि तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर गुफा में मेरी आराधना में लीन थी।
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र में तुमने अपने हाथों से रेत का शिवलिंग निर्मित कर निराहार व्रत किया और मेरी स्तुति करते हुए रात्रि जागरण किया। तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरी समाधि टूटी और मैंने तुम्हारे समक्ष आकर तुमसे वर मांगने को कहा। तब तुमने मुझे अपने समक्ष पाकर कहा कि मैं हृदय से आपको पति रूप में वरण कर चुकी हूँ और आप यदि मेरी तपस्या से प्रसन्न हों तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करें। तब मैं तथास्तु कहकर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित कर व्रत का पारण किया। उसी समय तुम्हारे पिता तुम्हें खोजते हुए वहाँ आ गए तुम्हारी दशा देखकर दुखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण और उद्धेश्य पूछा।
तब तुमने उनसे विनम्र भाव से कहा कि पिताजी मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में ही व्यतीत किया है और मेरी इस तपस्या का उद्धेश्य केवल महादेव को पति रूप में पाने का रहा है और आज मुझे महादेव का आशीर्वाद भी मिल गया है। आपने विष्णु जी के साथ मेरा विवाह करने का निश्चय कर लिया था इसलिये मैं अपने आराध्य की प्राप्ति हेतु घर छोड कर चली आई। अब आप मेरा विवाह महादेव के साथ करें तो मैं आपके साथ वापस चलने को तैयार हूँ। गिरिराज ने तुम्हारी बात स्वीकार कर तुम्हें वापस ले आए। उसके कुछ समय पश्चात उन्होंने हम दोनों का विवाह कर दिया। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र में तुमने जो व्रत किया है उसी के फलस्वरूप हमारा विवाह हो सका है। तुम्हारी सखी द्वारा तुम्हें हर कर ले जाने के कारण इसे हरतालिका कहा जायेगा। जो भी स्त्री इस व्रत को करेगी वह पापमुक्त होकर परम सुख और मोक्ष प्राप्त करेगी। इस व्रत की कथा श्रवण से एक हजार अश्वमेघ यज्ञ का फल जो सौ वाजपेय यज्ञ समान हैं, उस फल की प्राप्ति होगी। श्री कैलाश पर्वत पर विराजमान मंंदार पुष्पों से अपने कैशों को अलंकृत किए माता पार्वती जी और मुंडों की माला से अपनी जटाओं को अलंकृत किए शिवजी को दुर्गा प्रसाद शर्मा का सादर दण्डवत प्रणाम।
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