ऋषि पंचमी
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी के रूप में मनाया जाने वाला पर्व महिलाओं के लिए अटल सौभाग्यवती व्रत माना जाता है, इस दिन स्त्रियाँ सप्तऋषियों के सम्मान और रजस्वला दोष से शुद्धि के लिए उपवास रखकर पूजन करती हैं। ऐसी मान्यता है कि महिलाओं की माहवारी के समय अनजाने में हुई धार्मिक गलतियों और उनसे होने वाले दोषों के शमन के लिए और उन दोषों की मुक्ति के लिए इस व्रत को किया जाता है। समस्त पापों को नष्ट कर देने वाले इस व्रत के दिन किसी देवी देवता का पूजन नहीं किया जाता है बल्कि इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुवे सप्तऋषियों की पूजा की जाती है। इसे भाई पंचमी भी कहा जाता है, कई लोग इसी दिन राखी का त्यौहार भी मानते हैं। इस दिन माता अरुंधति के साथ सप्तऋषियों की पारम्परिक पूजा होती है और इस दिन मोरधन का आहार ही लिया जाता है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों में इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी का पूजन किया जाता है।
हमारे धर्मशास्त्रों में सप्तऋषियों की नामावली के विषय में काफी भ्राँतियां हैं। सप्तऋषियों की नामावली में काफी भिन्नता है, कुछ मान्यताओं के अनुसार हर काल, हर युग अथवा हर मन्वन्तर में भिन्न भिन्न सप्तऋषि होने का भी वर्णन मिलता है। महाभारत में भी सप्तऋषियों की दो भिन्न भिन्न नामावली मिलती है, जिनमें सप्तऋषियों के नाम भी भिन्न भिन्न हैं। सामान्यतः भिन्न भिन्न मान्यताओं के चलते हुवे मुख्य रूप से सप्तऋषियों के नाम इस प्रकार है - (1) वशिष्ठ ऋषि - राजा दशरथ के कुलगुरु रहे वशिष्ठ ऋषि ने चारों राजकुमारों राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को शिक्षा प्रदान की, इन्हीं के कहने से राजकुमारों को यज्ञ की रक्षार्थ विश्वामित्र ऋषि के साथ भेजा गया था। कामधेनु गाय के लिए विश्वामित्र ऋषि के साथ इनका युद्ध भी हुआ था। (2) विश्वामित्र ऋषि - ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र जी राजा थे और कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ ऋषि के साथ हुवे युद्ध मेँ पराजित होने के पश्चात् उन्होंने घोर तपस्या की थी। अप्सरा मेनका द्वारा इनका तप भंग भी किया गया था। वहीं इन्होंने त्रिशंकु को अपने तपोबल से सशरीर स्वर्ग भेज दिया था किन्तु वहाँ उसे स्थान नहीं मिलने पर उसके लिए इन्होंने नवीन स्वर्ग की रचना भी कर दी थी। ऐसा माना जाता है कि हरिद्वार के शांतिकुंज वाले स्थान पर इन्होंने तपस्या की थी और वहीँ इन्होने गायत्रीमंत्र की भी रचना की थी।
(3) कण्व ऋषि - कण्व ऋषि जिन्हें कहीं कहीं कश्यप ऋषि और कहीं कहीं मरीचि ऋषि भी माना गया है। कण्व ऋषि वैदिक काल के ऋषि थे, इन्ही के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और पुत्र भरत का पालन पोषण हुआ था। ऋग्वेद की अधिकांश ऋचाएं कण्व ऋषि और उनके वंशजों एवं गौत्रजों द्वारा ही दृष्ट बताये जाते हैं। (4) भारद्वाज ऋषि - भारद्वाज ऋषि का वैदिक ऋषियों में उच्च स्थान रहा है। इनके पिता बृहस्पति और माता ममता थी। भारद्वाज ऋषि अत्यंत ही लम्बी आयु के रहे हैं भगवान श्री रामचंद्र जी के वनवास के समय उनका भारद्वाज ऋषि के आश्रम में जाने का उल्लेख रामायण में मिलता है।
(5) अत्रि ऋषि - अत्रि ऋषि ब्रह्मा जी के पुत्र चंद्रदेव के पिता तथा कर्दम प्रजापति और देवहुति की पुत्री अनुसूया जी के पति थे। अत्रि ऋषि की अनुपस्थिति में त्रिदेवों ने स्त्रीहठ के प्रभाव में ब्राह्मण के भेष आकर अनुसूया जी से भिक्षा की मांग की थी और यह शर्त रखी थी कि वे अपने सम्पूर्ण वस्त्र उतार कर भिक्षा देंगी तब ही भिक्षा स्वीकार करेंगे। तब माता अनुसूया ने अपने सतीत्व के बल से उन तीनो देवों को अबोध बालक बनाकर उसी तरह उन्हें भिक्षा दी थी, उन्होंने माता सीता को भी पतिव्रत उपदेश दिया था। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। अत्रि ऋषि और माता अनुसूया की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता परिणामस्वरूप विष्णु भगवान के अंश से दत्तात्रेय स्वामी, ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा और शिवजी के अंश से दुर्वासा ऋषि माता अनुसूया और अत्रि ऋषि के पुत्र के रूप में जन्में थे।
(6) वामदेव ऋषि - गौतम ऋषि के पुत्र वामदेव ऋषि को संगीत और वाद्य यंत्रों के प्रदाता के रूप में जाना जाता है। वामदेव ऋषि जब अपनी माता के गर्भ में थे तब उन्होंने सामान्य जन्म से भिन्न तरीके से माता का पेट फाड़कर जन्म लेने का विचार किया था किन्तु उनकी माता को इस बात का ज्ञान हो जाने पर उन्होंने देवि अदिति के समक्ष अपनी रक्षा की गुहार लगाई तब देव कृपा से अपनी माता को बिना किसी कष्ट दिए वामदेव ऋषि ने जन्म लिया था। (7) शौनक ऋषि - शौनक ऋषि ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाते हुवे कुलपति का विलक्षण सम्मान प्राप्त किया था, ऐसा सम्मान किसी भी ऋषि को उनके पहले कभी नहीं मिला था।
भगवान श्री कृष्णजी द्वारा महाराज युधिष्ठिर को सुनाई गई एक कथा अनुसार जब देवराज इंद्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्त का हनन किया था तब उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा था, उस दोष को चार स्थानों में बांटा गया था। प्रथम अग्नि में जोकि धुंवे से मिश्रित ज्वाला के रूप में देखी जा सकती है, दूसरा नदियों में जोकि वर्षाकाल में फेसयुक्त जल के रूप में देखा जा सकता है, तीसरा पर्वतों में जिसे वृक्षों से निकलते गोंद के रूप में देखा जा सकता है और चौथा स्त्रियों में जिसे स्त्रियों की माहवारी के रूप में देखा जा सकता है। हमारे धर्मशास्त्रों की मान्यता अनुसार माहवारी की इस अवधि के प्रथम दिवस स्त्री चांडालिनी, द्वितीय दिवस ब्रह्मघातिनी एवं तृतीय दिवस को धोबिन के समान अपवित्र मानी जाती है तथा चतुर्थ दिवस स्नान उपरांत ही उसे शुद्धि प्राप्त होती है। इसी समय में लगे दोषों अथवा पापों से मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत किया जाता है।
शरीर द्वारा अशौचावस्था में किये गए स्पर्श, स्त्रियों द्वारा जाने अनजाने में अपने अपवित्रता के समय पूजा, घर के कार्य, पति को स्पर्श आदि से जो दोष लगता है उन दोषों के प्रायश्चित के रूप में उन दोषों से मुक्ति के लिए इस व्रत को किया जाता है। इस दिन प्रातः काल नदी या घर पर ही अपामार्ग नामक वनस्पति (जिसे आंधीझाड़ा भी कहा जाता है) से दांत साफ करके अपामार्ग के तने की लकड़ी के स्पर्शयुक्त जल से स्नान किया जाता है, अपामार्ग के बिना शुद्धि नहीं मानी जाती है। स्नान करने के पश्चात् पूजा स्थान को शुद्ध कर सप्तऋषियों एवं देवि अरुंधति की प्रतिष्ठा करके विधि विधान से उनका पूजन किया जाता है। इस दिन खेतों में हल से बोई हुई सभी उपज वर्जित होती है। व्रती प्रायः इस दिन दही और मोरधन का ही सेवन करते हैं।
ऋषि पंचमी की प्रचलित एक कथानुसार विदर्भ देश में उत्तक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण अपनी पतिव्रता पत्नी सुशीला के साथ रहता था, उनके एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री के विवाह योग्य होने पर ब्राह्मण ने एक कुलीन वर के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। देवयोग से कुछ दिनों बाद पुत्री विधवा हो गई, जिससे दुखी होकर ब्राह्मण दंपत्ति घर बार त्यागकर पुत्री सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे। एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका पूरा शरीर कीड़ों से भर गया, कन्या ने यह बात अपनी माँ से कही। माँ ने अपनी पुत्री की व्यथा अपने पति को सुनाते हुवे पूछा कि हे नाथ मेरी साध्वी पुत्री की ऐसी स्थिति होने का क्या कारण हो सकता है।
उत्तक ने समाधि लगाकर घटना का पता लगाया और अपनी पत्नी को बताया कि पूर्व जन्म में भी यह ब्राह्मणी थी और इसने अपनी माहवारी के समय बर्तनादि को छूकर रसोईघर को अपवित्र कर दिया था, उसी का पाप यह इस जन्म में भुगत रही है। इस कष्ट का निवारण केवल ऋषि पंचमी का व्रत ही हो सकता है किन्तु इसने इस जन्म में भी यह व्रत नहीं किया है इसलिए इसकी यह हालत हुई है। यदि यह शुद्ध मन से ऋषि पंचमी का व्रत करे तो इसके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे। पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह समस्त कष्टों से मुक्त हो गई और उसे अगले जन्म में अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों की प्राप्ति हुई। ऋषि पंचमी के इस पावन अवसर पर सप्तऋषिगण एवं माता अरुंधति के श्री चरणों में दुर्गा प्रसाद शर्मा का साष्टांग दंडवत प्रणाम।
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