महाभारत - भीष्म पितामह एवं भगवान श्री कृष्ण का संवाद

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन।  हमारे धर्मग्रंथों एवं हमारे ऋषि मुनि आचार्य आदि और स्वयं भगवान भी यही कहते आएं हैं कि मनुष्य तुम केवल कर्म करो, फल की इच्छा मत करो, क्योंकि फल तो मिलना ही है। हमें मनुष्य का जीवन मिला है, हमारे इस मनुष्य जीवन में हमारे आने से लेकर जाने तक और इसके मध्य के भी समस्त कार्यकलाप की स्क्रिप्ट ईश्वर द्वारा पहले से ही बना कर रखी हुई है, हमें तो केवल कर्म करना है। हमें अपने जीवनकाल में अपने प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ भी भोगना है वह भी निश्चित है।  हमारे सम्पूर्ण जीवनकाल में घटने वाली प्रत्येक घटना भी निश्चित है, आज अपनी इस बेबसाईट के 155 वें लेख में हम इसी पर चिंतन कर रहे हैं। जहाँ घटनाओं का घटित होना निश्चित है, उनका तरीका भी निश्चित है, वहीं उसके परिणामों को भोगना भी लगभग निश्चित ही है।
करुणामय ईश्वर किसी भी घटना के घटित होने के पहले हमें संकेत अवश्य करते हैं, किसी न किसी रूप में आकर हमारा मार्गदर्शन अवश्य करते हैं अथवा किसी के माध्यम से संकेत हम तक प्रेषित करने का प्रयास अवश्य करते  हैं किन्तु हम अज्ञानतावश  इस संकेत को समझ नहीं पाते हैं और गंभीर परिणाम भुगतते हुवे अपनी किस्मत और ईश्वर को दोषी ठहराते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, इसमें दोष किसी का भी नहीं होता है, यदि दोषी है तो हमारे कर्म ही दोषी होते हैं। सत्व, रज और तम इन तीन गुणों के आश्रय से किये गए कर्मो का फल भी उसी अनुसार भुगतना होते हैं और इन्हीं गुणों के आश्रय से संपन्न हमारे कर्म घटनाओं के परिणाम के प्रभावों को कम अथवा अधिक करते हैं। कर्म एक ही होता है किन्तु तीनों गुणों के आधार पर किये गए एक ही कर्म के तीन भिन्न भिन्न परिणाम देखने, सुनने और भुगतने होते हैं।  

इस संबंध में महाभारत के भीष्म पितामह एवं भगवान श्री कृष्ण जी के एक संवाद का आश्रय लेना चाहूंगा - वह इस  प्रकार है कि  -  महाभारत युद्ध की समाप्ति  के बाद महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक होने के उपरांत शर शैया पर अपना अंतिम समय व्यतीत कर रहे भीष्म पितामह से जब भगवान श्री कृष्ण मिलने आते हैं तब भीष्म पितामह एवं भगवान श्री कृष्ण जी के मध्य संवाद होता है।  पितामह भगवान  श्री कृष्ण जी से कहते हैं कि केशव पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक तो तुमने करवा दिया अब उनका ध्यान भी तुम्हें ही रखना होगा क्योंकि परिवार के बुजर्गो से रिक्त हो चुके राजमहल में अब उन्हें सबसे अधिक तुम्हारी आवश्यकता है। भगवान मौन रहे तो पितामह पुनः बोले केशव तुम अच्छे समय पर आये हो, मैं कुछ पूछना चाहता हूँ ताकि इस धरा को छोड़ने  के पहले मेरे सभी संशय समाप्त हो जाये। भगवान बोले पूछिए पितामह। तब पितामह ने पूछा एक बात बताओ प्रभु तुम ईश्वर हो ना ? तब भगवान उन्हें बीच में रोककर बोले नहीं पितामह मैं ईश्वर नहीं मैं तो आपका पौत्र हूँ। 

पितामह यह सुनकर उस घोर पीड़ा में भी हँस पड़े और बोले केशव अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया, मैं नहीं जानता कि सब कुछ अच्छा रहा या बुरा, पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया अब तो ठगना छोड़ दो।  भगवान भी  पितामह की स्थिति को भांप कर उनके निकट आ गए और उनका हाथ थामकर बोले कहिये पितामह। पितामह ने पूछा केशव एक बात बताओ इस युद्ध में जो भी हुआ,  वह ठीक था क्या ? तब भगवान ने पितामह से ही प्रतिप्रश्न किया कि पितामह किसकी ओर से, कौरवों की ओर से या पांडवों की ओर से ? पितामह बोले केशव कौरवों के कृत्य पर चर्चा का अब कोई अर्थ  ही नहीं है पर क्या पांडवों की ओर से जो भी हुआ, वह सही था ? आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन की छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध, क्या यह सब उचित था ? तब भगवान बोले पितामह इसका उत्तर मैं कैसे सकता हूँ, इसका उत्तर तो वे ही दे सकते हैं जिन्होंने यह किया है।  उत्तर दें दुर्योधन और दुःशासन का वध करने वाले भीम, उत्तर दें कर्ण, जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन।  पितामह मैं तो इस युद्ध में था ही नहीं।  

इस पर पितामह मुस्कुराकर बोले केशव अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे, अरे सकल विश्व भले ही कहता रहे कि महाभारत युद्ध भीम और अर्जुन सहित पांडवों ने जीता है किन्तु मैं जानता हूँ केशव कि यह केवल तुम्हारी विजय है और इसीलिए उत्तर भी तुम्हीं से पूछ रहा हूँ। तब भगवान बोले पितामह कुछ भी अनुचित या अनैतिक नहीं हुआ, वही हुआ जो होना चहिये।  यह सुनकर पितामह बोले केशव यह तुम कह रहे हो, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है।  यह छल तो किसी भी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे  हो गया ? तब भगवान बोले पितामह इतिहास से शिक्षा ली जाती है पर निर्णय वर्तमान परिस्थितियों  के आधार पर लेना होता है। हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है।  राम त्रेता युग के नायक थे तो मेरे हिस्से में द्वापर आया है, हम दोनों का निर्णय एक समान नहीं हो  सकता पितामह। 

तब पितामह बोले केशव पहेलियाँ मत बुझाओ, स्पष्ट करो।  तब भगवान बोले पितामह दोनों की परिस्थितियों में बहुत अंतर है, राम  के युग में खलनायक भी रावण जैसा महान शिवभक्त  होता था, तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण, मंदोदरी और माल्यवान जैसे संत हुआ करते थे, बाली जैसे के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्री और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे। उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था, किंतु मेरे द्वापर युग में कंस, जरासंध, दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि, जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं, जिनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह।  पाप का अंत आवश्यक है पितामह, वह चाहे जिस भी विधि से हो।  भगवान की इन बातों को सुनकर पितामह बोले केशव तो क्या ऐसे निर्णयों से गलत परम्पराएं प्रारम्भ नहीं होगी ? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुसरण नहीं करेगा ? और यदि वह करेगा तो क्या वह उचित होगा ? 

तब भगवान बोले पितामह भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक  आ रहा है।  कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा, वहाँ तो मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा अन्यथा धर्म समाप्त हो जायेगा। जब क्रूर और अनैतिक शक्तियां सत्य और धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण  कर  रही हो तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह।  तब महत्वपूर्ण होती है केवल धर्म की विजय, भविष्य को भी यही सीखना होगा पितामह। तब पितामह बोले क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव और यदि ऐसा होता है तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है ? तब भगवान बोले पितामह सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है, ईश्वर मार्गदर्शन करता है कार्य तो  मनुष्य को ही करना होगा। आप मुझे ईश्वर कहते हो पितामह तो बताइये इस युद्ध में मैंने स्वयं क्या किया, जो भी किया वह तो पांडवों ने ही किया ना। यही प्रकृति का विधान है, युद्ध के प्रथम दिन मैंने अर्जुन से यही तो कहा था और यही परम सत्य है।  

भगवान की इन बातों से पितामह अब संतुष्ट लग रहे थे उनकी आँखे धीरे धीरे बंद होने लगी थी, वे बोले केशव यह इस धरा की अंतिम रात्रि है और कल सम्भवतः चले जाना हो, अपने इस अभागे पर कृपा करना केशव।  भगवान भी पितामह को प्रणाम कर लौट चले। ईश्वर ने हम मनुष्यों को बुद्धि प्रदान की है, इसलिए हमें अपनी बुद्धिमता से कर्मो के परिणाम  पर विचार करके ही कर्म करना चाहिए, साथ ही यदि ईश्वर की ओर  से कोई संकेत या मार्गदर्शन प्राप्त होता है तो उसके बारे में सोच समझकर, मनन चिंतन कर ही यथोचित कर्म करना चाहिए।  जहाँ कठोर बनना है वहाँ कठोर भी बने किन्तु जहाँ सौम्यता से कार्य करना है वहाँ कठोरता का उपयोग नहीं करना चहिये।  आज आधुनिकता के इस दौर में हम कई ऐसे कर्म भी कर जाते हैं जिससे अनायास ही धर्म की अवहेलना हो जाती है।  हमें समझ बूझ कर गहन चिंतन मनन करके ऐसे कार्य करना चाहिए जिससे कि मानव जीवन सार्थक हो।  

धर्म से विमुख हो रहे हों अथवा अज्ञानता या त्रुटिवश कोई गलती कर रहे हों तो  उसे सुधारना भी होगा।  धर्म की रक्षा के लिए जहाँ आवाज उठाना हो, वहाँ आवाज भी उठाना होगी, जहाँ कोई धर्म विरूद्ध कार्य हो रहा हो वहाँ विरोध भी करना होगा, अन्यथा हम अपना अस्तित्व हो खो देंगे और उस समय केवल पछताने के हमारे पास कुछ नहीं होगा। हमें अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए कुछ कठोर निर्णय भी लेना हो तो लेना होंगे साथ ही किन्हीं अपेक्षाओं के दायरे में बंधने के बजाय उन अपेक्षाओं को त्यागकर समय, काल परिस्थिति के मान से उचित अनुचित की परख  के साथ ही भविष्य के परिणामों को दृष्टिगत रखकर विवेकपूर्ण कार्य करना ही श्रेयस्कर है। आशा है कि हम भी आगे अपने जीवन में योग्य और आवश्यक परिवर्तन लाते हुवे धर्मानुकूल और समयानुकूल यथोचित कार्य करने का प्रयास करेंगे, इस संबंध में आप सभी सनातन धर्म प्रेमीजन को हार्दिक शुभकामनाओं सहित सादर जय श्री कृष्ण - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर।            

Comments

Popular posts from this blog

बूंदी के हाडा वंशीय देशभक्त कुम्भा की देशभक्ति गाथा

महाभारत कालीन स्थानों का वर्तमान में अस्तित्व

बुजुर्गों से है परिवार की सुरक्षा