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Showing posts from May, 2020

गंगा दशहरा

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वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि और बुधवार के दिन हस्त नक्षत्र में गंगा नदी का स्वर्ग से पृथ्वी पर आगमन हुआ था, उस दिन दस योग अर्थात ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर करण, आनंद योग व्यतिपात कन्या का चंद्र, वृषभ का सूर्य आदि विद्यमान होने के कारण इस दिन को गंगा दशहरा भी कहा जाता है। इसी प्रकार से स्कन्द पुराण के अनुसार  ज्येष्ठ  मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को संवत्सरमुखी माना गया होकर इस दिन गंगा स्नान, व्रत, दान, तर्पण आदि करने से दस पापों से मुक्ति होना उल्लेखित है। इस दिन पवित्र गंगा नदी में स्नान का विशेष महत्त्व है, यदि कोई मनुष्य वहां तक जाने में असमर्थ हो तो नजदीक किसी भी नदी, सरोवर अथवा अपने घर पर भी पवित्र गंगा जी का ध्यान करते हुवे अथवा साधारण जल में थोड़ा गंगा जल मिलाकर भी स्नान कर  सकते हैं। घर में गंगाजली को सम्मुख रखकर भी पूजा आराधना की जा सकती है।          

शिष्य को संत कबीरदास जी की शिक्षा

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महान संत कबीरदास जी का जन्म एक अत्यंत ही गरीब जुलाहा परिवार में हुआ था।  कबीरदास जी के पिताजी का कपडे बुनने का कामकाज पीढ़ियों से चला आ रहा था। कबीरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के रहे थे, और अपने पारिवारिक कपड़ा बुनने के कारोबार में हाथ बंटाते थे। पिताजी के बाद भी वे अपना वही कार्य करते हुवे अपना जीवनयापन करते थे। भगवान की भक्ति में सदैव लीन कबीरदास जी कपड़ा बुनते हुवे भी भगवान के ही ध्यान में रहकर भजन और दोहे का गान किया करते थे, उन पर ईश्वरीय कृपा भी थी।  कबीरदास जी पर ईश्वरीय कृपा और उनके भजनों तथा दोहों से प्रभावित कई लोग उनके भक्त हो गए थे, जिसमे कई प्रतिष्ठित सेठ, साहूकार, जमींदार भक्त भी थे।   

प्राचीन गुरुकुलों वाली क्रीड़ाएँ (खेलकूद)

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जिस प्रकार आज खेलकूद के रूप में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, टेनिस, बैडमिंटन आदि खेल प्रमुखता से खेले जाते हैं, वैसी ही कुछ व्यवस्थाऍ हमारे प्राचीन काल की शिक्षा पद्धति में भी शिक्षा के साथ क्रीड़ा अथवा खेलों की हमारे गुरुकुलों में रही थी। शिक्षा के साथ क्रीड़ा का साथ तो प्रारम्भ से ही रहा है, तथा शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप में इसे स्वीकार भी किया गया है।  खेलों का अभ्यास शारीरिक स्फूर्ति एवं स्वास्थ्य वृद्धि  के लिए किया जाता रहा है।  प्राचीन काल में सैकड़ों क्रीड़ाओं की विधाएँ प्रचलन में थी, जिनका उल्लेख हमारे शास्त्रों एवं पुराणों में भी मिलता है।  हम यदि क्रीड़ाओं के प्रकारों पर विचार करें तो कुछ क्रीड़ाएँ मनोरंजन और हंसी मजाक के लिए खेली जाती थी, कुछ क्रीड़ाएँ आयोजकों और दर्शकों के आनंद के लिए खेली जाती थी, कुछ क्रीड़ाएँ मुख्य रूप से धर्मोत्सव आदि के समय ही खेली जाती हैं तथा कुछ मिश्रित क्रीड़ाएँ होती हैं। प्राचीन काल में गुरुकुलों एवं आमजनों के मध्य जो क्रीड़ाएँ  होती थी, उनमें से कुछ क्रीड़ाएँ उनके प्राचीन नाम  के साथ ही यहाँ उल्लेखित की ज...

भक्त के माध्यम से भक्तों का गर्व दमन

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द्वापर युग में भगवान श्री नारायण ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया था, वहीं त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था।  श्री राम और श्री कृष्ण दोनों अलग अलग युग में अवतरित होकर भी थे तो एक ही।  प्रभु श्री राम के परम भक्त हनुमान जी का स्मरण तो प्रभु के साथ ही किया जाता है। भगवान अपने प्रिय भक्तों को अभिमान से ग्रस्त नहीं रहने देना चाहते है, और जितना जल्दी हो अभिमान से उसे मुक्त करा देते हैं।   

माताश्री अहिल्या बाई होल्कर

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महारानी अहिल्या बाई होल्कर इन्दौर के राजाधिराज खण्डेराव होल्कर की  राजरानी और मल्हारराव होल्कर की पुत्रवधु थी।  सत्रहवीं सदी के आखिर में मराठों के हिन्दू राष्ट्र के संकल्प को जब पूरा करने के लिए सर्वप्रथम छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस कार्य का प्रारम्भ किया,  बाद में बाजीराव पेशवा ने उस कार्य को आगे बढ़ाया।  बाजीराव पेशवा के स्वामिभक्त सहायकों में दामाजी गायकवाड़, राणोजी सिंधिया सहित मल्हारराव होल्कर प्रमुख थे। ये मराठा साम्रज्य विस्तार के  कार्य में लगे हुवे थे।  एक बार मल्हारराव होल्कर विद्रोहियों का दमन करने के लिए पुणे जा रहे थे।  उस समय रास्ते में एक शिव मंदिर में उन्होंने अपना  डेरा डाला था, वहीं पर आनंदराव (मनकोजी) सिंधिया की होनहार कन्या अहिल्या को उन्होंने पहली बार देखा और बलिका अहिल्या से काफी प्रभावित हुए होकर उसे अपने साथ ही इन्दौर ले आये तथा अपने पुत्र खण्डेराव होल्कर के साथ उसका विवाह कर दिया।  

अतिथि सेवा में बलिदान

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मेवाड़ के गौरव राजपुताना कुल भूषण वीर योद्धा महाराणा प्रताप के उस समय का यह प्रसंग है,  जब कि वे  वन वन भटक रहे थे।  बात उस समय की है जब  महाराणा प्रताप साथ महारानी, अबोध बालक और  पुत्री थी।अकबर जैसे शत्रु की सेना उनके पीछे पड़ी हुई थी।  महाराणा को कभी किसी गुफा में, कभी वन में, कभी किसी नाले में छिपकर रात बितानी पड़ती थी।  वन के कंद फल हमेशा नहीं मिल पाते थे।  घांस के बीजों की रोटी भी कई कई दिनों तक नहीं मिल पाती थी।  बच्चे सूख कर कंकाल से हो गए थे।  

महायोद्धा पृथ्वीराज चौहान

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पृथ्वीराज चौहान का जन्म वर्ष 1149  में अजमेर के राजा सोमेश्वर जी चौहान के पुत्र के रूप में हुआ था, पृथ्वीराज चौहान की माता का नाम कमलादेवी था।  पृथ्वीराज चौहान जन्म से ही अत्यंत ही प्रतिभाशाली बालक थे, जो सैन्य कौशल में तो निपुण थे, साथ ही कई विधाओं में भी वे निपुण थे।  अयोध्या नरेश राजा दशरथ के ही समान उन्हें भी शब्द भेदी बाण चलाने में महारथ प्राप्त थी, जिसमें कि आवाज के आधार पर निशाना लगाया जाता है ।   पृथ्वीराज चौहान पशु पक्षियों के साथ बातें करने की कला भी जानते थे। 

मानवता

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मानवता शब्द भले ही छोटा सा हो किन्तु इसका तात्पर्य काफी गहराई लिए हुऐ है। जैसा कि हमारे सनातन धर्म में कहा गया है कि मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ होता है, और मानव जीवन यदि सुधर गया तो ईश्वरीय शक्ति प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति और नहीं सुधरा तो अधोगति।  मानव जीवन में व्यक्ति मात्र आहार, निंद्रा, आमोद प्रमोद तक ही सीमित न रहे और उससे हटकर यदि कार्य करे तो सही मायने में जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, और इसके लिए उसे मानवता का आश्रय लेना अत्यंत ही आवश्यक है। आजकल कई लोग सिर्फ दया भाव को ही मानवता मानते हैं तथा पाश्चात्य संस्कृति से आकर्षित होकर सनातनी और शास्त्रोक्त आचार विचार की प्रवृति को मानवता के विरुद्ध मानते हैं। जबकि सनातन धर्म अनुसार सदाचार, परोपकार, दया, अहिंसा, सेवा,  त्याग,  भक्ति आदि मानवोचित सद्गुणों पर आधारित कार्य एवं व्यवहार ही मानवता माने गए हैं।

प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली

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प्राचीन काल में भारतीय वैदिक विधान के अनुसार बालक का प्रथम विद्यालय माता का गर्भ ही माना जाता था। इसीलिए जिस समय स्त्री गर्भवती होती थी, तब हमारे बुजुर्ग लोग कहा करते थे कि उस समय प्रसूता को धार्मिक कथाएँ पढ़ना सुनना, अच्छी बातें, अच्छा आचरण और व्यवहार वाले वातावरण में रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए और उस समय जितना अधिक हो सके उसे खुश रहने को कहा जाता था। यह भी कहा जाता है कि प्रसूता को जैसा वातावरण मिलता है, आने वाली संतान पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है।  इसी प्रकार से प्रसूता को यह भी समझाईश दी जाती रही है कि उसे इस काल में क्रोध एवं किसी भी प्रकार के राग द्वेष से भी दूर रहना चहिये। परमवीर योद्धा अभिमन्यु के प्रसंग से भी यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि जिस समय अभिमन्यु माता उत्तरा के गर्भ में था, उस समय पिता अर्जुन द्वारा बातों ही बातों में चक्रव्यूह के भेदन की चर्चा करने मात्र से उसे चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान हो गया था, किन्तु माता उत्तरा को अर्जुन की पूरी बात सुनने के पहले ही नींद आ जाने से चक्रव्यूह से  निकलने का ज्ञान उस...

भक्त राज नरसी मेहता

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भक्ति की जहां बात चले और भक्त राज नरसी मेहता का नाम नहीं लिया जाय, ऐसा संभव ही नहीं है। गुजरात के नरसी मेहता बहुत बड़े कृष्ण भक्त हुवे थे। आज भी भक्तराज नरसी मेहता का नाम समस्त भारतवर्ष में बड़े ही सम्मान और आदर के साथ लिया जाता है, साथ ही उनकी कथा आदि के माध्यम से भी उनका और उनकी भक्ति का वर्णन किया जाता है। नरसी मेहता जी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ में जूनागढ़ शहर में एक नागर ब्राह्मण कुल में हुआ था।  नरसी जी को उनके बाल्यकाल से ही कुछ साधु संतों का सानिध्य और सत्संग का अमृतपान प्राप्त होता रहा होकर उसी सानिध्य के परिणामस्वरूप कृष्ण भक्ति की प्राप्ति उन्हें हुई। 

अमर शहीद सुखदेव

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स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रेजों को बैचेन कर देने वाले कई क्रांतिकारियों के किस्से आज भी बड़े गर्व से याद किये जाते हैं। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को हैरान परेशान कर रखा था।  जिसमें चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, राजगुरु,  सुखदेव सहित अनेकों ज्ञात अज्ञात क्रांतिकारियों का नाम आज भी उसी सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।  इनमें से एक अमर शहीद सुखदेव थापर भी हैं, जिनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के लायलपुर जिले स्थित नौधरा नामक गांव में दिनांक 15 मई 1907 को हुआ था। सुखदेव थापर के पिता जाने माने  समाजसेवक रामलाल जी थापर थे तथा इनकी माताजी का नम श्रीमती रल्ली देई था।

वट सावित्री

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मद्र देश के राजा अश्वपति बड़े ही धर्मात्मा, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे।  प्रजा भी उनपर अपार स्नेह रखती थी।  राजा अश्वपति सदैव परोपकार में लगे रहते थे।  सब प्रकार का सुख होने के बाद भी राजा अश्वपति को एक महान दुःख यह था कि उनके यहाँ कोई संतान नहीं थी।  संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोरतम नियमों का पालन करते हुवे सावित्री देवी की आराधना करते हुवे अठारह वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने  रा जा अश्वपति को दर्शन दिया और तेजस्विनी कन्या की प्राप्ति का वरदान दिया।  राजा वरदान प्राप्त होने के बाद धर्मपूर्वक अपना राजकाज देखने लगे।  समय आने पर राजा की बड़ी महारानी ने कमलनयनी सुन्दर कन्या को जन्म दिया। सावित्री देवी के आशीर्वाद से उत्पन्न कन्या का जातकर्म संस्कार आदि संपन्न होने के बाद कन्या का नाम सावित्री रखा गया। धीरे धीरे समय व्यतीत होता गया, नन्ही बालिका सावित्री ने युवावस्था में प्रवेश किया।  सावित्री के सौंदर्य को देखकर सब यही कहते थे कि यह तो कोई देवकन्या है जो राजा के यहाँ अव...

वीरांगना महारानी पद्मावती

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इतिहास में  मेवाड़ और वहां के राजपूताना योद्धाओ का शौर्य स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहा हैं।  मेवाड़ में चित्तौड़ गढ़ पर तो सदैव ही यवन आतताइओ की नजर रही है और इस भूमि पर राजपूत योद्धाओं एवं  यवनों के मध्य कई युद्ध हुवे भी हैं, जिनमें राजपूत योद्धाओं ने यवनों के दाँत खट्टे कर दिए थे।  तेरहवी शताब्दी में चित्तौड़ गढ़ के राज सिंहासन पर राणा लक्ष्मण सिंह आसीन थे, जिनकी आयु उस समय मात्र बारह वर्ष की थी।  राज्य की देख रेख उनके काका श्री भीम सिंह (जिन्हें रतन सिंह भी कहा करते थे) करते थे।  इनके नाम को लेकर कई इतिहासकारों में मतभेद है, किन्तु अधिकांशतः रतन सिंह नाम ही मान्य है। रतन सिंह जी की पत्नी का नाम पद्मावती था, जिन्हें पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता रहा है। मेवाड़ में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में महारानी पद्मावती के समान सौंन्दर्य किसी का नहीं था, वे अपने नाम के अनुरूप ही अपूर्व सुंदरी थी।  महारानी पद्मावती सुन्दर होने के साथ ही वीरांगना और बुद्धिमती भी थी।  महारानी पद्मावती की अपूर्व सुंदरता की चर्चा सुनकर ही अल्लाउद...

संयुक्त परिवार

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संयुक्त परिवार में रहने का एक अलग ही आनंद है, परिवार में रहना सुरक्षित है।  जब तक संयुक्त परिवार रहता है, परिवार का प्रत्येक सदस्य एक अनुशासन में रहता है।  उसे कोई भी गलत कार्य करने के पूर्व कई  सोचना पड़ता है, क्योंकि उस पर सदैव पारिवारिक मर्यादाओं का अंकुश रहता है, साथ ही उसे गलत राह पर जाने से रोकने और समझाने वाले  सदस्य भी परिवार में उपस्थित रहते हैं। 

श्री गुरु नानक देव जी के चरित्र का प्रसंग

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परम श्रद्धेय श्री गुरु नानक देव जी द्वारा जिस धार्मिक पंथ से इस विश्व को अवगत करवाया था वह सिख पंथ, गुरुमत अथवा खालसा पंथ के नाम से किसी भी परिचय का मोहताज़ नहीं है।  सिख पंथ में दस गुरुजन हुवे, जो समस्त संसार के धार्मिक इतिहास में अद्वितीय तो रहे उनका नेतृत्व भी अद्वितीय रहा।  सभी गुरुजन द्वारा जहाँ मुगलों के कुशासन का मुकाबला किया वहीं मानव समाज (चाहे वह किसी भी जाति धर्म का हो) का उत्थान करने में भी काफी योगदान दिया।  उन्होंने एक ही सिख में (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) चारों  वर्णों  के चारों गुणों को एकत्र कर यह आदेश दिया कि वह निरंतर हरिनाम श्री वाहेगुरु का जप करे, आठों प्रहर दूसरों की सेवा के लिए अपने तन मन धन से तत्पर रहे और अपनी गृहस्थी के निर्वाह के लिए सत्य व्यवहार करे साथ ही तलवार देकर ऐसी शक्ति से भी परिपूर्ण किया जिससे समय पर वह अपने धर्म की तथा देश की रक्षा भी कर सके।

भगवान श्री नरसिंह जी का प्राकट्य

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हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु नामक दो असुर भाइयों के कारण समस्त जगत व्याकुल था।  हिरण्याक्ष द्वारा  पृथ्वी को रसातल में ले जाने पर भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण कर उसका वध किया।  हिरण्याक्ष के वध पर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हो अपने भाई के वध का बदला लेने एवं अपने आप को अजेय और अमर बनने की इच्छा से हिमालय पर जाकर कई वर्षों तक कठोर तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया।  तब ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया कि उसे किसी अस्त्र शस्त्र से, ब्रह्मा जी द्वारा रचित किसी प्राणी से, रात में, दिन में, जमीन पर, आकाश में,घर में या बाहर, बारह महीनो में से किसी महीने में भी नहीं मारा जा सकेगा ।

छत्रपति शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति का एक प्रसंग

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छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरुदेव श्री समर्थ रामदास स्वामी जी महाराज अपने सभी शिष्यों से अधिक स्नेह छत्रपति शिवाजी  महाराज से करते थे। एकबार शिवाजी  महाराज के साथियों के मन  में यह विचार आया कि शिवाजी राज परिवार के होने के कारण गुरुदेव सर्वाधिक स्नेह उनसे करते हैं। जिसका ज्ञान होने पर गुरुदेव ने अपने शिष्यों का संदेह दूर करने के उद्देश्य से शिष्यमंडली के साथ जंगल में गए वहाँ गुरुदेव समर्थ एक गुफा में उदरशूल का बहाना करके लेट गए।