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Showing posts from April, 2022

अक्षय तृतीया (आखा तीज)

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बैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि, जिसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहा जाता है। अक्षय का अर्थ है, जिसका कभी क्षय नहीं हो जो स्थाई रहे। ऐसी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन किया हुआ कोई भी पुण्य कार्य, दान, पूजन, हवन आदि अक्षय फल प्रदान करता है। किसी भी मांगलिक कार्य को करने के लिए यह दिन अत्यंत ही शुभ माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन बगैर मुहूर्त के भी कार्य संपन्न किया जा सकता है, क्योंकि यह एक स्वयंसिद्ध मुहूर्त है। वैवाहिक कार्यक्रम इस दिन इस मान्यता के साथ किये जाते हैं कि पति पत्नी में प्रेम और स्नेह अक्षय रहे, इसी प्रकार इस दिन पितृकार्य भी इस आशय से किये जाते हैं कि पितृगण को अक्षय फल की प्राप्ति हो। समृद्धि के लिए इस दिन स्वर्ण खरीदने की भी परम्परा है। यह भी मान्यता है कि इस दिन मनुष्य अपने या अपने स्वजनों द्वारा किये गए जाने अनजाने अपराधों के बारे में सच्चे मन से क्षमा प्रार्थना भगवान से करे तो भगवान उन अपराधों को क्षमा कर उसे सदगुण प्रदान कर देते हैं। इस दिन अपने दुर्गुणों को सदैव के लिए प्रभु के चरणों में अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान प्राप्त करने की भी परंपरा ...

श्री हनुमान जी महाराज को बाली द्वारा युद्ध की चुनौती का प्रसंग

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किष्किंधा नगरी के राजा वानर श्रेष्ठ ऋक्ष के पुत्र थे बाली और सुग्रीव। बाली और सुग्रीव दोनों को ही हमारे धर्मशास्त्रों में वरदान पुत्र भी माना गया है, जिसमे बाली को ब्रह्मा जी का औरस पुत्र एवं सुग्रीव को सूर्य देव का औरस पुत्र माना गया है। बाली को यह वरदान प्राप्त था कि जो भी उससे युद्ध करने के  लिए उसके सामने आएगा उसकी आधी शक्ति बाली के शरीर में चली जाएगी और बाली सदैव ही अजेय रहेगा। बाली को अपने बल पर बड़ा ही घमंड था और यह घमंड कई बलशाली योद्धाओं जिनमे लंकापति रावण भी सम्मिलित थे, से युद्ध और मुठभेड़ के बाद दिनोदिन बढ़ता ही गया। हालांकि लंकापति रावण के साथ बाली का युद्ध नहीं हुआ था, जबकि लंकापति रावण युद्ध के लिए ही वहां आये थे किन्तु संध्या वंदन में रत बाली ने अपनी साधना में व्यवधान से बचने के लिए लंकापति को अपनी कांख में दबा लेने से ही लंकापति रावण ने युद्ध का विचार त्याग बाली से मित्रता कर ली थी। 

भगवान श्री महावीर स्वामी जी

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जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक एवं 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध लगभग समकालिक ही रहे हैं, जिस समय हिंसा, पशुबलि, जात पात का भेदभाव चरम पर था उसी कालावधि में इनका अवतरण हुआ था और इन दोनों के ही विषय में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे या तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे या महान सन्यासी। ईसा पूर्व करीव 600 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर (बिहार के मुज्जफरपुर जिले का वर्तमान बसाढ़ नामक गांव को यह स्थान माना जाता है) में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला की तृतीय संतान के रूप में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्में बालक का नाम वर्धमान रखा गया था, यही बालक वर्धमान बाद में जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी हुवे। वर्धमान के बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन और बहन का नाम सुदर्शना था।  

क्रांतिकारी वीरांगना कनकलता बरुआ

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हम भाग्यशाली हैं जो हमारा जन्म आजाद देश में हुआ बोलने, खेलने, घुमने, फिरने से लेकर कार्य व्यवसाय चुनने करने आदि सभी की आजादी है किन्तु पहले ऐसा नहीं था, तब तो बच्चे के जन्म से ही संघर्ष प्रारम्भ हो जाता था। गुलामी की दीवारों में बचपन, जवानी, बुढ़ापा सब खिलकर मुरझा जाते थे। उस ज़माने में प्रत्येक स्वाभिमानी व्यक्ति के समक्ष एक ही प्रश्न होता था - आजादी। आजादी के दीवाने उन लोगों को किसी उम्र, जाति, लिंग अथवा क्षेत्र के बंधन में नहीं बांधा जा सकता था, हर वर्ग के लोगों ने आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया है किन्तु कुछ जानकारी में रहे तथा कुछ गुमनामी के अंधेरों में खो गए।  केवल 17 वर्ष आयु की बलिदानी कनकलता बरुआ अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से छोटी रही हों किन्तु त्याग और बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं है।

भगवान श्री राम जी के वनवास के समय के विश्राम स्थल

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अयोध्या के महाराजा दशरथ जी के चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जिनमें युवराज श्री रामचंद्र जी के राज्याभिषेक का समय नजदीक था, अयोध्या में उत्सव मनाया जा रहा था। उसी समय मंथरा दासी की राय पर सहमत होकर रानी कैकयी ने महाराजा दशरथ जी से देव दानव संग्राम के समय संकल्पित दो वरदान चाहे, जिनमे से एक रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास और दूसरा पुत्र भरत को राजगादी। महाराजा दशरथ हतप्रभ रह गए थे और वे भरत को राजपाट देने के लिए तैयार भी हो गए थे किन्तु प्राणप्रिय रामचंद्र को वनवास भेजने के लिए सहमत नहीं थे किन्तु रानी कैकयी तो हठ किये बैठी थी। श्री रामचंद्र जी को यह जानकारी होने पर उन्होंने रघुकुल रीत और अपने पिताजी के वचनों का मान रखते हुवे सहर्ष ही वनवास जाना स्वीकार कर पिताजी को भी उनके दिए वचन का पालन करने का निवेदन किया। श्री रामचंद्र जी के वनवास जाने की बात सुनकर माता जानकी और अनुज श्री लक्ष्मण जी भी उनके साथ प्रस्थान करने के लिए तत्पर हो गए। प्रभु श्री रामचंद्र जी के 14 वर्ष वनवास के समय उनके मुख्य रूप से 14 विश्राम स्थल रहे जिनके विषय में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं। 

भक्तिमती शबरी

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भगवान की भक्ति कोई भी कर सकता है, उसमें देश, काल, कुल, गौत्र, आयु, स्त्री-पुरुष आदि का कोई भेद नहीं होता है। प्रेम से जिसने भी प्रभु का नाम लिया प्रभु उनका अपना हो जाता है। भगवान ने स्पष्ट कहा है कि " न में भक्त श्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः " अर्थात किसी ब्राह्मण ने भले ही चारों वेद पढ़ लिए हों किन्तु यदि वह भक्त नहीं है तो मेरा प्यारा नहीं है और यदि किसी ने चाण्डाल होकर भी कुछ नहीं पढ़ा हो और मेरा भक्त हो तो वह मुझे अति प्रिय होता है।  ऐसी ही प्रभु की परम प्रिय भक्त हो गई है भक्तिमती शबरी। शबर भील जाति के राजा की पुत्री थी शबरी। उस समय बाल विवाह का प्रचलन था, शबरी के विवाह की तैयारियां चल रही थी।  विवाह का दिन जैसे जैसे नजदीक आने लगा सैकड़ो बकरे और भैंसे आदि जानवर बलिदान के लिए इकट्ठे किये जाने लगे। बालिका शबरी ने पूछ ही लिया तो ज्ञात हुआ कि विवाह में बलिदान के लिए व्यवस्था है, सुनकर शबरी का बाल मन आहत हो गया। बालिका शबरी ने सोचा कि यह कैसा विवाह जिसमे इतने प्राणियों का वध हो, इससे तो विवाह नहीं करना ही ठीक है, यह सोच कर शबरी रात्रि में ही उठकर जंगल में चली गई और फिर लौट...