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Showing posts from October, 2020

शरद पूर्णिमा

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सम्पूर्ण वर्ष भर की पूर्णिमा में आश्विन मास की पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा का एक विशेष ही महत्त्व है। इस पूर्णिमा के बाद से ही हेमंत ऋतू की शुरुआत हो जाती है और धीरे धीरे ठण्ड का मौसम शुरू हो जाता है। ऐसी मान्यता है कि आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन ही चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है और  इस शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के प्रकाश के माध्यम से अमृत वर्षा होती है, जोकि मानव के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत ही लाभदायक होती है।  इसलिए शरद पूर्णिमा के इस समय को अमृत काल भी कहा जाता है।  

क्रांतिकारी बिरसा मुंडा

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स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देने वाले कई महान क्रांतिकारियों के तो नाम भी आज की पीढ़ी को याद भी  नहीं है, और कई नाम गुमनामी के अंधेरों में चले गए हैं, ऐसा ही एक नाम है बिरसा मुंडा का। छोटा नागपुर के पहाड़ी इलाकों में 19 वीं सदी के अंत में उठी क्रन्तिकारी गूंज ने ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर दी थी। इस क्रांतिकारी गूंज का आव्हान करने वाले बिरसा मुंडा जिन्हें स्थानीय जनता एक भगवान के रूप में मानती थी। रांची से 45 किलोमीटर दूर स्थित एक गांव में किसान सुगना मुंडा के पुत्र का जन्म बृहस्पतिवार को होने के कारण इस बालक का नाम बिरसा पड़ा। बचपन से ही बालक का मन पढ़ाई की बजाय कुछ नवीन कार्य एवं उक्तियों में अधिक लगता था।  जब वह 16 वर्ष के थे तब उन्हें पढ़ने के लिए मिडिल स्कूल भेजा गया किन्तु वहां बिरसा अंग्रेजों की गुलामी से विचलित हो गए। स्कूल में उन्होंने बड़ी मुश्किल से चार साल निकाले कि एक दिन अपने सहपाठियों को कंधों पर हल रखकर खेत जोतते देख उनका किशोर मन विद्रोह कर बैठा।  वह दौड़कर अपने सहपाठियों के पास पंहुचा और देखा कि उनके कंधों पर फफो...

गुरुदेव श्री अमरदास जी

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सिख मत के तृतीय गुरु श्री अमरदास जी हुवे, गुरुदेव अमरदास जी का जन्म अमृतसर के बासरका गांव में हुवा था।  तेजमान भल्ला जी खत्री उनके पिताजी का नाम था और उनकी माताजी का नाम सुलक्षणी देवी था, जिन्हें लखमी जी और बखत कौर भी कहते थे। गुरु अमरदास जी का विवाह मनसा देवी के साथ संपन्न हुवा था, जिस विवाह के परिणामतः गुरुदेव अमरदास जी की चार संतान थीं, जिनमे दो पुत्रियां बीबी रानी और बीबी भानी तथा दो पुत्र बाबा मोहन जी और बाबा मोहरी जी थे।  गुरु अमरदास जी के पिता सनातनी हिन्दू होकर वैष्णव धर्म का पालन करते हुवे अपना कारोबार किया करते थे।  गुरु अमरदास जी भी अपने पिता की तरह ही वैष्णव विचारधारा के रहे होकर हिन्दू मतों, सिद्धांतो तथा धार्मिक नियमों का पालन करते थे तथा विशेष आचार विचार वाला ही उनका रहन सहन था।  वे प्रति वर्ष गंगास्नान के लिए हरिद्वार की यात्रा करते थे।  

वीरांगना रानी दुर्गावती

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एक ऐसी वीरांगना राज रानी जिनकी पोषाक रक्त से सनी हुई है, जिसके दाहिने हाथों की तलवार शत्रुओं के रक्तपान के लिए लालायित हो रही हो, जो घोड़े और हाथी पर सवार होकर रण में दानवदलिनी दुर्गा की भांति दानव रूपी शत्रुओं के दमन के लिए रणचण्डी बन गई हो, तो ऐसे परम पादपंकजों पर हर कोई नतमस्तक हो जाता है, ऐसी ही वीरांगना थी गोंडवाना की रानी दुर्गावती, जिन्होंने अपने जीवनकाल में 52 युद्ध लडे जिनमें से 51 युद्धों में वे विजेता रही। रानी दुर्गावती ने मालवा के बाज बहादुर को तीन बार और मुग़ल शासक अकबर को दो बार हराया।  विलक्षण चरित्र वाली रानी दुर्गावती का नाम अपनी वीरता, शक्ति और रणकुशलता के लिए इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है, इतिहास में उन्हें वह स्थान प्राप्त है जो बड़े बड़े वीरों को भी प्राप्त नहीं हो पाता है।

श्याम सखा सुदामा

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विप्रवर सुदामा जी के नाम से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है और फिर श्री कृष्ण भगवान से उनकी मित्रता का प्रसंग तो अत्यंत ही मधुरतम चरित्र स्मृति पटल पर अंकित कर देता है।  सुदामा जी अत्यंत ही निर्धन परिवार से रहे होकर यदि उन्हें दरिद्र भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।  सुदामाजी के चरित्र के श्रवण मात्र से ही अनायास मुँह से निकल जाता है कि ईश्वर भले ही किसी को गरीबी दे किन्तु दरिद्रता न दे।  सुदामा जी बाल्याकाल में अवंतिका नगरी आज की उज्जैन नगरी में स्थित महर्षि सांदीपनि जी के आश्रम में अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे वहीँ पर श्री कृष्ण जी एवं बलराम जी भी शिक्षा प्राप्ति के लिए आये और वही पर श्री कृष्णजी एवं सुदामाजी की मैत्री हुई थी।  श्यामसुंदर तो कुछ ही दिनों में गुरुगृह रहकर समस्त वेद वेदांग, शस्त्रादि एवं सभी कलाओं की शिक्षा ग्रहण करके चले गए और समय बीतने पर द्वारकाधीश भी हो गए। उधर सुदामाजी की भी शिक्षा पूर्ण होने पर वे भी गुरुदेव से आज्ञा लेकर अपनी जन्मभूमि पर वापस लौटे और विवाह करके ग्रहस्थाश्रम को स्वीकार किया।  एक टूटी सी झोपड़ी, गिनती के पात्र...

मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार

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माता पिता की भक्ति एवं सेवा की बात आते ही श्रवण कुमार का नाम अनायास ही स्मृति में आ जाता है। श्रवण कुमार वैश्य परिवार में उत्पन्न हुवे।  उनके माता पिता की नेत्र ज्योति चली गई थी। माता पिता के नेत्र ज्योति विहीन होने के बाद श्रवण कुमार बड़ी सावधानी और श्रद्धा के साथ अपने माता पिता की सेवा तो करते ही थे साथ ही उनकी प्रत्येक इच्छा को भी पूरा करने का भरसक प्रयास करते थे।  एक बार श्रवण कुमार के माता पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई, जिसे उन्होंनेअपने पुत्र श्रवण कुमार के समक्ष प्रकट की।  श्रवण कुमार ने अपने माता पिता की तीर्थयात्रा की इच्छापूर्ति के लिए एक कावड़ बनाई और उसमे दोनों को बैठाकर कावड़ अपने कंधों पर उठाए हुवे वे तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े।  

गुरु भक्त एकलव्य

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निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य धनुर्विद्या के ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा लिए सर्वश्रेष्ठ आचार्य और कौरव पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य जी के पास पंहुचा और उनके चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम किया।  आचार्य द्रोण द्वारा जब उससे आगमन का कारण पूछा जाने पर बालक एकलव्य ने अपनी धनुर्विद्या प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की, जिससे आचार्य द्रोण संकोच में पड़ गए क्योंकि कौरव और पांडव राजकुमारों को वे शस्त्र शिक्षा दे रहे थे और उसके लिए वे भीष्म पितामह से वचनबद्ध भी थे।  इसके अलावा राजकुमारों के साथ एक निषाद बालक को शिक्षा देने में किसी प्रकार की असामान्य स्थिति भी वे निर्मित नहीं होने देना चाहते थे।  इसलिए उन्होंने बालक एकलव्य को धनुर्विद्या की शिक्षा प्रदान करने में असहमति बताई।