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Showing posts from July, 2020

नाग पंचमी

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भारत देश में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता हैं, देश के कुछ भागों में यह पर्व कृष्ण पक्ष की पंचमी को भी मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में नाग पंचमी का एक विशेष महत्त्व है।  भगवान शंकर के गले में सुशोभित नाग को देवता के रूप में पूजने का यह त्यौहार भी शिवजी के प्रिय श्रावण मास में ही आता है। भगवान शिव के गले में हार के रूप में सुशोभित और भगवान विष्णु की शैया बने नाग को भी देवता मन कर पूजा आराधना करने का पर्व है नाग पंचमी। पुराणों में यक्ष, किन्नर और गन्धर्वो दे साथ नागों का भी वर्णन आता है, देवों के लिए समर्पित नागों का स्थान पाताल में माना जाता है और इनका उद्गम महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से माना जाता है। पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में भी द्वादश नागों का उल्लेख मिलता है जोकि प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहक माने जाते हैं, इन बारह स्वरुप में ही मुख्य रूप से पूजन किया जाता है। वर्षा ऋतू में नाग भूगर्भ से निकल कर बाहर आ जाते हैं और वे किसी प्रकार की हानि न पंहुचाये आइल उन्हें प्रसन्न करने के लिए भी पूज...

हरियाली अमावस्या

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अमावस्या की तिथि का धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टी से तथा अन्य कई पहलुओं से हमारे हिन्दू धर्म में एक अलग ही महत्त्व है, अमावस्या तिथि के स्वामी पितृदेव होने कारण अधिकांशतः इस तिथि को पितृ तृप्ति हेतु पितृ कार्य अर्थात श्राद्ध, तर्पण, पितृ शांति हवन पूजन, ब्राह्मण भोजन, दान धर्म के कार्य संपन्न किये जाते हैं। पवित्र श्रावण मास की अमावस्या का अपना एक अलग ही महत्त्व है, श्रावण मास की इस अमावस्या को हरियाली अमावस्या के नाम से जाना जाकर इसे एक उत्साह एवं भक्तिभाव के साथ शिव पार्वती की पूजा आराधना कर त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि एक पेड़ दस पुत्रों के समान होता है, पेड़ लगाने से सुख के साथ पुण्य की भी प्राप्ति होती है इस कारण बारिश के मौसम में प्रकृति पर आई बहार की ख़ुशी के साथ भगवान शिव की आराधना और पितृ पूजन के साथ ही इस दिन वृक्षारोपण भी किया जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में वृक्षों में देवता का वास  जैसे पीपल में त्रिदेव, बेल में शिव, आंवले में लक्ष्मीनारायण आदि, भ...

मार्कण्डेय पर शिव कृपा

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भगवान शिव के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण काफी दुःखी रहा करते थे। पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा से उन्होंने अपनी पत्नी मरुद्गति के साथ भगवान शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए उनकी आराधना एवं कठोर नियमों का पालन करते हुवे तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर  भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हुवे और उनसे पूछा कि हे मुने, तुम उत्तम गुणों से रहित चिरजीवी पुत्र चाहते हो या अल्पायु गुणवान पुत्र तुम्हें चाहिए।  मुनि कुछ सोच कर बोले प्रभु सद्गुण रहित दीर्घजीवी पुत्र से किसी का क्या भला होगा, मुझे तो धर्मात्मा गुणवान पुत्र चाहिए, भले ही वह थोड़े समय तक जीवित रहे। भगवान शंकर वरदान देकर अंतर्धान हो गए। समय आने पर मुनि के यहाँ एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ।  बालक के गर्भाधान संस्कार से लेकर बाद तक के समस्त संस्कार विधिपूर्वक संपन्न कराये गए।  रूप और तेज में साक्षात् शिव के समान प्रतीत होने वाले बालक का नाम मार्कण्डेय रखा गया।  मृकण्ड मुनि को पता था कि उनके पुत्र को मात्र सोलह वर्ष की ही आयु प्राप्त हुई है, आयु के विषय में कुछ मतभेद भी है कुछ जगह बारह व...

हमारी प्राचीन व्यवस्थाऐ और वैज्ञानिक धारणाऐ

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वर्तमान के कोरोना काल में जिन व्यवस्थाओं से हम रूबरू हो रहे हैं उसमें सहसा हमें अपने दादा दादी वाले समय की स्मृति हो जाती है कि उन्होंने किस प्रकार की व्यवस्थाऐं बना रखी थी कि दैनिक जीवन में आपको क्या करना है क्या नहीं करना है। अपने जुते  चप्पल कहाँ उतारना है, बाहर के कपड़े कहाँ रखना है, कैसे भोजन करना है, अपनी दिनचर्या किस प्रकार रखना है, घर से बाहर जाने पर बगैर नहाये रसोई में प्रवेश नहीं करना आदि मर्यादाएँ और पाबंदियाँ उस समय हमें  बड़ी बुरी लगती थी किन्तु आज हम उन्हीं मान्यताओं का अनुसरण कोरोना के भय के कारण कर रहे हैं, ऐसे में लगता है कि हम गलत हैं या हमारे बुजुर्ग गलत थे।  हमारे  पूर्वजों ने हमारे लिए अपने अनुभवों का अद्भुत ज्ञान हमें विरासत में प्रदान किया है किन्तु हम उसे अपना नहीं पा रहे हैं या यह कहें कि आज के आधुनिक युग में हम पिछड़े हुए कहलाना नहीं चाहते हैं।  

गुरु पूर्णिमा

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गुरु का मनुष्य के जीवन में काफी महत्त्व है। गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ यदि देखा जाए तो गु अर्थात अंधेरा और रु अर्थात अंधेरे को दूर करने का प्रतीक। दोनों शब्द हमारे मस्तिष्क और आत्मा को जाग्रत कर हमारे जीवन के अंधकार को दूर करते हैं। हिन्दू कैलेण्डर अनुसार आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को गुरुपूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। हमारे सनातन हिन्दू धर्म में गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर माना गया है, क्योंकि गुरु बिन न तो ज्ञान मिलता है और न मानव जीवन अनुशासन का पालन कर भक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। तभी तो कहा है कि गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आप की जो गोविन्द दियो मिलाय । गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है इसी बात को समझने और समझाने के लिए इस पर्व को मनाया जाता है।  इसदिन लोग श्रद्धा पूर्वक अपने गुरुजनों का पूजन कर उन्हें याद करते हुवे उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते है और उन्हें अपनी सामर्थ्य अनुसार भेंट दक्षिणा प्रदान कर उनका आभार व्यक्त करते है।    

दादाजी धूनीवाले

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श्री श्री १००८ श्री केशवानंद जी महाराज जोकि दादाजी धूनीवाले के नाम से सभी की स्मृति में विद्यमान हैं। भारत के महान संतों में उनका नाम पूर्ण आस्था और सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रतिदिन पवित्र अग्नि (धूनी) के समक्ष ध्यानमग्न बैठने के कारण लोग उन्हें धूनी वाले दादाजी के नाम से स्मरण करने लगे थे। कहा जाता है कि वे सदैव घूमते रहते थे, यह भी मान्यता है कि वे शिव तथा दत्तात्रय भगवान के अवतार थे।  दादाजी धूनीवाले के दरबार में आने से बिनमांगी मुराद पूरी होने की भी कई कथाएँ प्रचलित है। दादाजी ने सम्पूर्ण भारत में यात्रा कर अंत में दादाजी ने मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में समाधि ली थी वहीं पर उनका दरबार उनके समाधि स्थल पर विद्यमान है, जहाँ दादाजी के समय से ही आज तक निरंतर धूनी प्रज्वलित है। देश विदेश में दादाजी के असंख्य भक्त हैं,जो प्रत्येक वर्ष गुरु पूर्णिमा पर दादाजी के धाम पर उनका आशीर्वाद लेने आते हैं।