प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा में चौंसठ कलाएँ


प्राचीनकाल में शिक्षा का काफी विस्तृत क्षेत्र था, जिसमे शिक्षा के साथ ही कलाओं का भी अपना अलग ही स्थान होता था। विभिन्न कलाओं की भी विधिवत शिक्षा गुरुकुल में प्रदान की जाती थी।  हमारे शास्त्रों में भी इन कलाओं के बारे में काफी कुछ उल्लेख मिलता है। कलाएँ अनंत हैं जिनके नाम की भी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं, फिर भी मुख्य रूप से चौंसठ कलाएँ मानी गई है, जिन कलाओं को चौंसठ कलाओं के रूप  में जाना जाता है।  विभिन्न शास्त्रों में तथा विभिन्न ऋषि मुनियों आदि ने भी अपने अपने विचार अनुसार इन कलाओं को समझाया है, जिनमें कुछ मतभेद भी हैं। उनमें से शुक्राचार्य जी के द्वारा अपने नीतिसार में किये गए उल्लेख अनुसार इन चौंसठ कलाओं को संक्षिप्त में इस प्रकार समझने का प्रयास किया जा सकता  है - 


- पहली कला नृत्य कला अर्थात नाचना। हाव भाव की अभिव्यक्ति के साथ प्रस्तुत नृत्य के कई प्रकार और तरीके हैं और कई नाम भी हैं।  नृत्य एक स्वाभाविक क्रिया है जिसमें ह्रदय की प्रसन्नता बाहर व्यक्त होती है।  शिव जी का तांडव नृत्य प्रसिद्द है, तो कत्थक, ओडिसी, घूमर, भांगड़ा आदि भी प्रचलन में हैं।  - वाद्य कला में विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों को बजाने की कला होती है।  इनके चार प्रकार - तत, सुषिर, अवनद्ध और घन हैं।  तत - अर्थात तार के उपयोग से बजने वाला यंत्र जैसे वीणा, सारंगी, तम्बूरा, सरोद आदि।  सुषिर - अर्थात अंदर से पोला और छिद्र वाला  यंत्र जैसे बांसुरी, अलगोजा, शहनाई, शंख आदि।  अवनद्ध - अर्थात चमड़े से मढ़ा हुआ यंत्र जैसे ढोल, नगाड़ा, मृदंग, तबला आदि।  घन - अर्थात एक दूसरे से टकराकर बजने वाले यंत्र जैसे झांझ, मंजीरा, करताल आदि। वाद्य के बगैर गायन भी अधूरा ही होता है।  हमारे देवी देवता में भी सरस्वती देवी की  वीणा, श्री कृष्ण जी की बांसुरी, शिव जी का डमरू प्रसिद्ध है। -  स्त्री और पुरुषों की व्यवस्थित रूप से वस्त्र अलंकार को पहनने अर्थात धारण करने की कला।  - विभिन्न प्रकार के वेश धारण करना जैसे बहुरूपिये अलग अलग रूप धरते हैं।  -  सूंदर तरीके से बिछौना अर्थात शैया को बिछाना और पुष्पों को अनेक प्रकार से गूंथना।  ६ - द्युत क्रीड़ा अथवा चौंसर।  - अनेक आसनों के द्वारा की जाने वाली सूरत क्रीड़ा का ज्ञान।  

- विभिन्न प्रकार के फूलों से आसव अर्थात अर्क या इत्र, मद्य आदि बनाने की कला। - शल्य कला जिसमें शरीर में नाड़ी या फोड़े फुंसी को चीरफाड़ कर निकलना, चुभे कांटे या अन्य वस्तु को निकालने की कला। डॉक्टरों की सर्जरी भी इसी कला का उदाहरण है। १० - हींग आदि विभिन्न मसालों का उपयोग करके स्वादिस्ट भोजन बनाना।  ११ - वृक्ष, पौधे और लतांऐ लगाना, उनका संरक्षण करना और उनमे से विविध प्रकार के फल फूल उत्पन्न करने की कला। १२ - सोने, चांदी आदि धातुओं एवं कीमती पत्थर अर्थात रत्नों को परखना और उनकी भस्म बनाने की कला। १३ -  ईख अर्थात गन्ने से राब, गुड़, खांड, चीनी, मिश्री आदि पदार्थ को बनाने की कला।  १४ -  स्वर्ण  आदि धातुओं और अनेक औषधियों को मिश्रित करने की कला।  १५ -  मिश्रित धातुओं को उस मिश्रण से अलग अलग करने की कला।  १६ - धातुओं के मिश्रण का ज्ञान।  १७ - समुद्र से अथवा मिटटी से लवण (नमक) को निकालने की कला।  इस प्रकार से ये आठ से सत्रह तक की कला आयुर्वेद से सम्बंधित हैं।  

१८ - पैंतरा बदलते हुवे लक्ष्य स्थिर करते हुवे शस्त्र चलाना।  १९ - शरीर के विभिन्न अंगो पर आघात करते हुवे मल्ल युद्ध (कुश्ती) करना।  २० - जब घात लगाकर अथवा असावधानी की अवस्था में शत्रु ने हमला किया हो तो उसके आघात से बचते हुवे शत्रु पर आघात करने की कला।  २१ - लक्ष्य निर्धारित कर मन्त्र शक्ति से  यंत्रो के माध्यम से अस्त्र चलने की कला जो प्राचीन काल में ब्रह्मास्त्र आदि दिव्यास्त्र होते थे तो आज तोप मशीनगन आदि हैं।  २२ - युद्ध में हाथी, घोड़े, रथ आदि का सुचारु उपयोग करने की कला। इस प्रकार से ये अठारह से बाइस तक की कला धनुर्वेद से सम्बंधित हैं।

२३ - विविध प्रकार से आसन (बैठने के प्रकार) और हाथों व अंगुलियों की मुद्रा का आश्रय लेकर की जाने वाली आराधना की कला।  २४ - सारथ्य अर्थात रथ हांकने के साथ ही हाथी और घोड़ों को साधने एवं चलाने की कला। २५ - मिटटी, लकड़ी, पत्थर एवं धातुओं के बर्तन बनाने की कला। २६ - चित्रकारी करते हुवे चित्र बनाने की कला।  २७ - भूमि को समतल करना, तालाब, बावड़ी, कुंवे, महल, मंदिर आदि बनाने की कला।  २८ - घटी पल (घडी) आदि समय की जानकारी देने वाले यंत्रों के निर्माण की कला। प्राचीन काल में जल यंत्र, बालुका यंत्र, धूप घड़ी आदि समय की जानकारी देने वाले साधन हुआ करते थे।  २९ - विभिन्न वाद्यों का निर्माण करने की कला।  ३० - अलग अलग रंगो को कम, ज्यादा अथवा समान रूप से मिला कर रंग बनाना और उससे कपडे अथवा वस्तुओं को रंगने की कला।

३१ -  जल, वायु और अग्नि के संयोग से उत्पन्न वाष्प अर्थात भाप को रोककर उसकी शक्ति से विभिन्न कार्य करने की कला। ३२ - नौका, रथ आदि जल और थल पर आवागमन के लिए यातायात के साधनों के निर्माण की कला।  ३३ - धागे, सन आदि तंतुओं से रस्सी को बनाने की कला।  ३४ - धागों को बुनकर उनसे वस्त्र बनाने की कला।  ३५ - रत्नो की पहचान कर उसमें छिद्र करना और उसे धारण करने की कला।  ३६ - सोना, चांदी आदि कीमती धातुओं की शुद्धता की पहचान करने की कला।  ३७ - नकली सोने चांदी एवं रत्नों को असली जैसा बनाने की कला।  ३८ - सोने चांदी के आभूषण बनाना और उस पर मीनाकारी करने की कला।  ३९ - चमड़े को मुलायम करके उससे आवश्यक उपयोगी सामान तैयार करने  की कला। ४० - पशुओं के शरीर से चमड़ा पृथक करने की कला। ४१  - गाय भैंस आदि का दूध दुहकर दही जमाना, मथना, मक्खन निकालना, घी बनाने तक की समस्त क्रियाओं को जानने की कला।  ४२ - पहनने के वस्त्र जैसे कुर्ता आदि सिलने की कला।    

४३ - जल में तैरने के साथ ही डूबते हुवे को बचाने और जल में खुद पर हुवे हमले से बचने की कला। ४४ - घर के बर्तनों को मांजकर साफ करने की कला।  ४५ - कपड़ों को अच्छी तरह से धोकर साफ करने कला।  ४६ - क्षौर कर्म अर्थात हजामत बनाने की कला।  ४७ - तिलहन आदि से तेल निकालने की कला।  ४८ - भूमि पर हल चला कर भूमि को जोतने की कला।  ४९ - पेड़ों पर चढ़ने की कला।  ५० - दूसरों के मनोनुकूल उनकी सेवा करने की कला, जिसमे सेवक, नौकर और शिष्य के कार्य जिनसे उनके स्वामी और गुरुजन प्रसन्न होते हैं । ५१ - बांस, ताड, खजूर आदि से टोकरी एवं अन्य पात्र बनाने की कला।  ५२ - कांच के बर्तन बनाने की कला। ५३ - खेतों को जल से अच्छी प्रकार से सींचने की कला।  ५४ - अधिक जल या दलदल वाली भूमि से जल को बाहर निकाल कर दूर ले जाने की कला।  ५५ - लोहे के अस्त्र शस्त्र बनाने की कला।  ५६ - हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट की सवारी के लिए जीन (काठी) बनाकर उन पर उसे कसने की कला। ५७ - शिशुओं के लालन पालन और संरक्षण करने की कला। ५८ - पोषण करना।  ५९ - बच्चो के खेलने के लिए तरह तरह के खिलोने बनाने की कला।

६० - अपराधियों को उनके अपराध अनुसार दण्डित के ज्ञान की कला।  ६१ - विभिन्न विभिन्न देशों की लिपि को सुंदरता के साथ लिखने की कला।  ६२ - पान को अधिक समय तक सुरक्षित रखने  की कला जिससे कि  वह  न तो सड़े और  न ही  गले।  इस प्रकार से बांसठ पृथक पृथक कलाओं के अलावा दो कला इन सबकी जान है और इन्हें ही सब कलाओं का गुण भी कहा जाता है।  इनमे ६३ - आदान अर्थात किसी काम को जल्दी और फुर्ती से करने की कला।  ६४ - प्रतिदान अर्थात उस काम को चिरकाल अथवा लम्बे समय तक करते रहना।  इस प्रकार ६४ कलाओं का यह संक्षिप्त विवरण है। 

प्राचीनकाल में शिक्षा का पाठ्यक्रम कितना विस्तृत होता था जिसमे शिक्षा का मूल उद्देश्य ही यह होता था कि  उस शिक्षा से ज्ञान की वृद्धि हो, जीवन में सदाचार का समावेश हो और जीविकोपार्जन में भी सहायता मिले। आज भी आवश्यकता है हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में सुधार किया जाकर प्राचीन काल की उसी प्रकार की उद्देश्यपूर्ण  शिक्षा व्यवस्था की, जिससे शिक्षा और ज्ञान के साथ सदाचार तो मानव जीवन में आये, साथ ही मानव आत्मनिर्भर भी बने। हम स्व आकलन भी कर  सकते हैं कि हम कितनी कलाओं में पारंगत हैं।              

  

Comments

  1. 64 कलाओं के बारे में जो जानकारी आप ने दी है बहुत अच्छी है आजकल के जो शिक्षक गण है ना तो उन्हें यह 64 कलाएं आती है और ना ही उन्हें इसकी जानकारी भी होगी ऐसा मेरा मानना है फिर वह बच्चों को क्या सिखाएंगे परंतु यही 64 कलाएं आज भी स्कूलों में सिखाई जाए तो हर बच्चा आत्मनिर्भर बन सकता है परंतु आज के शिक्षा में सिर्फ किताबी ज्ञान है रट्टा मार काश यह सारे पुराने दिन पुराने शिक्षा प्रणाली वापस लौट आए

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    1. धन्यवाद।
      सभी को प्रयास करना होंगे

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  2. बहुत सुन्दर , रोचक जानकारी 64 कलाओं के बारे में।
    लेकिन 64 कलाओं में पारंगत होना बिरला ही होगा। शिक्षक हो या विद्यार्थी । बेसिक शिक्षा के बाद क्षमता एवं रूचि अनुसार ही आगे शिक्षण ग्रहण करना चाहिए।कुछ विषयों में पारंगत हो कर आगे तक जाया जा सकता है। निशा जोशी।

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    1. धन्यवाद।
      सही कहा किन्तु सामूहिक प्रयास से असंभव भी नहीं है

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    2. धन्यवाद।
      सही कहा

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  3. This comment has been removed by the author.

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