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Showing posts from June, 2020

पंचाग की समझ अति आवश्यक

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सनातन धर्म की रक्षार्थ हमें जागरूक होना होगा और हमारी नव पीढ़ी को भी जागरूक करना होगा।  इसके लिए जहाँ हमें अपने बच्चों को शुरू से ही संस्कारित करना होगा वहीं उन्हें बचपन से ही अपने धर्म के बारे में जानकारी भी देते रहना है।  बच्चों को जहाँ अपनी परम्परा और रीती रिवाजों से अवगत कराते हुवे अपने धर्म के प्रति उनमें बचपन से ही रुझान बना रहे इस बारे में भी हमें प्रयास करना होगा।  आज पाश्चत्य संस्कृति के प्रति आकर्षित होकर हम उसका अनुसरण करते जा रहें हैं, उस पर भी हमें रोक लगानी होगी।  आज पाश्चत्य संस्कृति के प्रति आकर्षित होकर हम अपनी संस्कृति और अपनी मर्यादाएं भूलकर फूहड़ता और अश्लीलता की ओर बढ़े चले जा रहे हैं, जिसमें सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति आये दिन पाश्चत्य संस्कृति अनुसार विभिन्न प्रकार के डे अर्थात दिवस मनाने से हो रही है। इसमें प्रमुख हैं 31 दिसंबर, न्यू ईयर डे, वैलेंटाइन डे की आड़ में पूरा सप्ताह कोई न कोई डे मनाने के तरीकों से हमारे धर्म और संस्कृति  को हम कितना नुकसान पंहुचा रहे हैं, कितना धर्म के विपरीत आचरण हमारे द्वा...

चन्द्र शेखर आज़ाद

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भारत की स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यंत ही साहसी स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्र शेखर आज़ाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाभरा नामक गांव (जो आजकल आजाद नगर के नाम से जाना जाता है) में एक ब्राह्मण परिवार में पंडित सीताराम जी तिवारी एवं जगदानी देवी के पुत्र के रूप में २३ जुलाई १९०६ में हुआ था। चन्द्र शेखर आज़ाद के पिताजी अत्यंत ही ईमानदार और बात के धनी थे, वहीं स्वाभिमानी और साहसी भी थे,  चन्द्र  शेखर आज़ाद को अपने पिता से ही इन गुणों की प्राप्ति हुई थी । चन्द्र शेखर आज़ाद को उनकी माताजी संस्कृत का विद्वान् बनाना चाहती थी इस कारण १४ वर्ष की आयु में उन्हें बनारस में संस्कृत पाठशाला में अध्धयन हेतु भेजा गया किन्तु बालक चन्द्र शेखर आज़ाद तो देश को अंग्रेजों से आजाद कराने हेतु संकल्पित हो गए थे।   

संत श्री सिंगा जी

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संत सिंगा जी निमाड़ मध्य प्रदेश के महान संत हो गए हैं।  निमाड़ की जनता आज भी  उनके द्वारा रचित भजनों का  बड़े ही प्रेम और भक्तिभाव से गान करती है।  पिपलिया के पास घने जंगल मेँ नदी के तट पर संत सिंगा जी ने समाधि ली थी, प्रतिवर्ष आश्विन माह में इनके समाधिस्थल पर आज भी बहुत बड़ा मेला लगता है।  जहाँ लाखों की संख्या में जनता अपना मस्तक नवाने के लिए जाती है।  संत सिंगाजी के कई भक्तजन आज भी अपने कई कामों के लिए विशेषकर पशुओं के खो जाने या पशुओं की किसी समस्या के लिए संत सिंगा जी से मन्नत लेकर कार्य सिद्धि पर मन्नत उतारने उनके समाधिस्थल पर पंहुचते है।  

संत श्री पीपाजी महाराज

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राजस्थान  के झालावाड़ जिले के गागरोन गढ़ का सैन्य दृष्टि से काफी महत्त्व रहा था।  शत्रुओं के मंसूबो को विफल करने वाले भारतीय दुर्गों में यह दुर्ग सदैव अग्रणी रहा होकर कई मुग़ल बादशाह अपनी सेना के साथ अपना युद्ध कौशल यहाँ नहीं दिखा पाए थे।  इस स्थान की प्राकृतिक छटा भी काफी मनोरम और सुन्दर है। हरे भरे पेड़, झाड़ियां और लताकुंज के साथ ही जलप्रपात तथा कालीसिंध व सहायक नदियों से घिरा हुआ यह दुर्ग अत्यंत ही अनुपम प्राकृतिक छटा के कारण सहसा आकर्षित करता है।  इसी गागरोन दुर्ग में राजपरिवार में भक्त प्रवर संत पीपाजी महाराज का जन्म हुआ था।  राजकुमार प्रतापसिंह (पीपाजी) इसी स्थान पर प्रकृति की गोद में पले बढ़े।  बाल्यकाल से ही स्वभावतः धार्मिक प्रवृति वाले पीपाजी ने अपने पिताजी की मृत्यु के बाद राजगद्दी संभाली, वे युवा और सुन्दर थे।  उन्होंने कुल बारह राजकुमारियों से विवाह किया किन्तु सबसे छोटी रानी सीता पर उनका अधिक स्नेह था। राजसी विलासपूर्ण वातावरण में भी वे धर्म विमुख नहीं हुऐ उनके राज्य में धार्मिक कार्य सदैव होते रहत...

सनातन धर्म - व्यक्तिगत सोलह संस्कार

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हमारे पूर्वजों द्वारा हिन्दू सनातन धर्म में कई व्यवस्थाएं बड़ी सोच समझ कर निर्धारित की थी जैसे - मानव जीवन को आश्रम वर्णादि में  विभक्त करना, व्यक्ति को सोलह संस्कारों से संस्कारित करना इन सभी के पीछे एक गहरी सोच छिपी हुई है। प्राचीनकाल से ही सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही होकर प्रत्येक संस्कार का अपना अलग ही महत्त्व है। संस्कार शब्द अपने आप में व्यापक शब्द है और बहुत सरे अर्थ अपने में छिपाये हुए है।    

प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा में चौंसठ कलाएँ

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प्राचीनकाल में शिक्षा का काफी विस्तृत क्षेत्र था, जिसमे शिक्षा के साथ ही कलाओं का भी अपना अलग ही स्थान होता था। विभिन्न कलाओं की भी विधिवत शिक्षा गुरुकुल में प्रदान की जाती थी।  हमारे शास्त्रों में भी इन कलाओं के बारे में काफी कुछ उल्लेख मिलता है। कलाएँ अनंत हैं जिनके नाम की भी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं, फिर भी मुख्य रूप से चौंसठ कलाएँ मानी गई है, जिन कलाओं को चौंसठ कलाओं के रूप  में जाना जाता है।  विभिन्न शास्त्रों में तथा विभिन्न ऋषि मुनियों आदि ने भी अपने अपने विचार अनुसार इन कलाओं को समझाया है, जिनमें कुछ मतभेद भी हैं। उनमें से शुक्राचार्य जी के द्वारा अपने नीतिसार में किये गए उल्लेख अनुसार इन चौंसठ कलाओं को संक्षिप्त में इस प्रकार समझने का प्रयास किया जा सकता  है - 

राजमाता जीजा बाई

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छत्रपति शिवाजी महाराज की पुण्यमयी माताजी जीजा बाई अपने बाल्यकाल से ही हिन्दू जाति के मान सम्मान  और गौरव की रक्षा के लिए सदैव समर्पित रही थी।  सोलहवीं सदी में सिंदखेड के यदुवंशीय देशमुख जाधवराव की पुत्री के रूप में जीजा बाई का जन्म हुआ था।  दक्षिण भारत में सतारा के राज्य संस्थापक सुजान सिंह मेवाड़ के महाराणा प्रताप के वंशज थे, जो कि भोसवंत या भौंसले कहलाया करते थे। इस  भौंसले वंश के मालोजी नामक सरदार बड़े ही वीर और पराक्रमी थे।  सिंदखेड के अधिपति जाधवराव से उनके काफी अच्छे सम्बन्ध थे।  एक बार होली के उत्सव पर मालोजी सिंदखेड में थे, जहां उन्होंने जाधवराव की छोटी पुत्री जीजा बाई को देखकर कहा कि यह तो मेरे पुत्र शाहजी की वधु होने योग्य है, जाधवराव जी की सहमति के बाद उस समय बचपन में ही जीजाबाई और शाहजी का विवाह हो गया था।