महात्मा विदुर जी एवं उनकी धर्मपत्नी पर प्रभु श्री कृष्ण की कृपा

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर सादर अभिनन्दन। प्रभु श्री कृष्ण जी और महाभारत के विषय में तो सभी को जानकारी होगी ही, आज मेरा महान देश के इस 136 वें पुष्प में हम महाभारत के ही एक महत्वपूर्ण चरित्र महात्मा विदुर जी एवं उनकी धर्मपत्नी पर प्रभु श्री कृष्ण की कृपा के अत्यंत ही रोचक प्रसंग से अवगत होंगे, जिसमें प्रभु श्री कृष्ण बगैर आमंत्रण के महात्मा विदुर जी के घर जाकर उनके यहाँ भोजन करने की इच्छा व्यक्त करते हैं। इस संबंध में आज भी कहा जाता है कि दुर्योधन के मेवा त्यागे साग विदुर घर खाई। भगवान श्री वेद व्यास जी के पुत्र होने के कारण महात्मा विदुर जी महाराज धृतराष्ट्र एवं महाराज पांडू के सहोदर थे, किंतु उनकी माता के एक दासी होने के कारण धर्मात्मा एवं विद्वान विदुर जी को  परिवार में वह सम्मान प्राप्त नहीं होता था जिसके कि वे अधिकारी थे। आदर्श भगवतभक्त, उच्च कोटि के साधु एवं स्पष्टवादी महात्मा विदुर जी हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री एवं महाराज धृतराष्ट्र के प्रमुख सलाहकार थे।
महाराज धृतराष्ट्र के पुत्रमोह और दुर्योधन के व्यवहार पर महात्मा विदुर जी का सदैव ही विरोध रहा होकर उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र को समझाने के भी काफी प्रयास किये किंतु दोनों पिता पुत्र के व्यवहार में किसी प्रकार कोई परिवर्तन नहीं आता बल्कि दुर्योधन अपशब्द कहकर महात्मा विदुर जी का तिरस्कार कर अपमान करता था। द्यूत क्रीडा के बाद पांड़वों के वनवास और अज्ञातवास के लिए जाने के पश्चात महात्मा विदुर जी भी हस्तिनापुर छोड़ कर अपनी पत्नी के साथ वन को चले गए और वहीं नदी किनारे अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे और प्रभु भक्ति में लीन हो गये। महात्मा विदुर जी की पत्नी भी उन्हीं के समान परम साध्वी, त्यागमूर्ति भक्ता थी और प्रभु श्री कृष्ण में उनकी अनुपम प्रीति थी, श्री कृष्ण की इन परम भक्ता का नाम पारसंवी था किंतु कहीं कहीं इनका नाम सुलभा भी बताया गया है। 

पांडवों के वनवास के समय महात्मा विदुर जी और उनकी धर्मपत्नी ने भी वन की उसी कुटिया में अन्न का त्याग कर केवल साग आदि ही ग्रहण कर प्रभु भक्ति में 12 वर्ष व्यतीत कर दिए थे। महात्मा विदुर जी को जब यह जानकारी प्राप्त हुई कि पांडवों का वनवास और अज्ञातवास काल समाप्त हो गया है और द्वारिकाधीश स्वयं कौरवों और पांडवों में संधि कराने हस्तिनापुर पधार रहे हैं, तब वे अपनी पत्नी से बोले कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि द्वारिकाधीश दुर्योधन के लिए नहीं बल्कि हमारे लिए यहाँ आ रहे हैं। हस्तिनापुर में भी धृतराष्ट्र और दुर्योधन द्वारिकाधीश के स्वागत की तैयारी कर रहे थे, उनके लिये छप्पन भोग तैयार कराए जा रहे थे किंतु उनके मन में भाव नहीं कुभाव थे और कुभाव मन में रखकर की गई सेवा से प्रभु प्रसन्न नहीं होते हैं।

श्री द्वारिकाधीश जब शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर पधारे तब दुर्योधन ने उनका भव्य स्वागत किया किंतु वह सत्कार प्रेम रहित था। दुर्योधन ने संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और उसके उपरांत द्वारिकाधीश को रात्रि विश्राम और भोजन करने को कहा तो द्वारिकाधीश ने दुर्योधन का आतिथ्य अस्वीकार कर दिया। दुर्योधन के पूछने पर द्वारिकाधीश बोले कि आतिथ्य स्वीकारोक्ति के लिए तीन कारण होते हैं, वे हैं - भाव,  प्रभाव और आभाव और यहाँ ये तीनों ही नहीं हैं। श्री द्वारिकाधीश द्वारा इन तीनों कारणों की भी बड़ी ही सुंदर व्याख्या करते हुए कहा कि भाव अर्थात तुम्हारा भाव ही ऐसा नहीं है कि जिसके वशीभूत होकर तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जा सके। प्रभाव अर्थात तुम्हारा प्रभाव भी ऐसा नहीं है कि जिससे भयभीत होकर आतिथ्य स्वीकार किया जा सके तथा आभाव अर्थात मुझे ऐसा आभाव भी नहीं है जिससे विवश होकर तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जा सके। 

इतना कहकर प्रभु श्री कृष्ण जी ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। उस समय आचार्य द्रोण एवं दरबार में उपस्थित कई राजाओं ने द्वारिकाधीश को अपने घर चलने का निवेदन किया किन्तु  द्वारिकाधीश बोले कि उनका एक प्रिय भक्त गंगा किनारे उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। श्री कृष्ण महात्मा विदुर और उनकी धर्म पत्नी के भाव को जानते थे और उन्हीं भावों के वशीभूत दुर्योधन के महल से निकल कर वे सीधे महात्मा विदुर की कुटिया पर पहुंचे। महात्मा विदुर जी उस समय वहां नहीं थे तथा उनकी धर्मपत्नी उस समय स्नान कर रही थी। द्वार पर पहुँच कर द्वारिकाधीश ने आवाज लगाई कि द्वार खोलो, मैं श्री कृष्ण हूँ और मुझे बड़ी ही भूख लगी है।  महात्मा विदुर जी की धर्मपत्नी ने जैसे ही श्री कृष्ण की आवाज सुनी, वह अपना आपा खो बैठी और सुधबुध खोकर भावविह्वल होकर नहाते नहाते ही दौड़ पड़ी और द्वार खोल दिया। 

श्री कृष्ण जी ने उनकी उस अवस्था को देखकर अपना पीताम्बर उनपर डाल दिया।  अपनी सुधबुध खो बैठी उस परम भक्ता को अपने आप की सुध नहीं थी, उसे तो केवल यह ध्यान था कि श्री कृष्ण आये हैं और वे बड़े ही भूखे हैं।  वह उनका हाथ पकड़ कर अंदर ले गई, समझ नहीं आ रहा कि प्रभु को क्या खिलाया जाय ? ऐसी स्थिति में उन्होंने श्री कृष्ण को उल्टे रखे हुवे पीठे पर ही बैठा दिया, प्रभु भी प्रेम के वशीभूत उल्टे पीठे पर ही बैठ गए।  श्री कृष्ण को बैठाकर वे अंदर गई और प्रभु को खिलाने के लिए केले लेकर आई और श्री कृष्ण की क्षुधा शांत करने के लिए उन्हें केले खिलाने बैठ गई। वे द्वारिकाधीश के प्रेमभाव में इतनी मग्न हो गई थी कि केले छीलकर छिलके प्रभु को खाने के लिए देती रही और गूदा फेंकती जा रही थी। प्रभु श्री कृष्ण भी अनन्य प्रेम  वशीभूत होकर केले के छिलके आनंद पूर्वक खाने लगे। उसी समय महात्मा विदुर जी पधारे। सबकुछ देखकर वे स्तंभित होकर खड़े रहे और अपनी धर्मपत्नी को ऐसे कार्य पर डांटा, तब उन्हें होश आया कि प्रभु को उसने छिलके खिला दिए। 

अब उन्हें पश्चाताप होने लगा और मन की सरलता से श्री कृष्ण पर ही नाराज होकर उन्हें उलाहना देने लगी कि प्रभु मैंने यदि छिलके आपको खाने के लिए दिए तो आपने क्यों खाये, मुझे कहा क्यों नहीं।  श्री कृष्ण भी इस सरलता पर हँस पड़े और महात्मा विदुर जी से बोले कि विदुरजी आप गलत समय पर आ गए, मुझे तो बड़ा ही सुख मिल रहा था।  मैं तो ऐसे भोजन के लिए सदैव ही अतृप्त रहता हूँ।  अब महात्मा विदुर जी भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे, तब भगवान बोले विदुरजी आपने बड़ी ही सावधानी से मुझे केले खिलाये किन्तु इनमें उन छिलकों जैसा स्वाद नहीं आया। यह सुनकर महात्मा विदुर जी और उनकी पत्नी के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। भगवान केवल भाव के भूखे होते हैं और भक्तों के प्रेमोन्माद में ऐसी लीलाएँ भी करते हैं, चाहे शबरी के बैर हों, गोपियों का माखन हो या विदुरजी की धर्मपत्नी द्वारा दिए गए केले के छिलके हों। आज अपरा एकादशी के पावन पर्व के अवसर पर यह प्रसंग पुष्प प्रभु श्री द्वारिकाधीश के श्री चरणों में अर्पित कर इस प्रसंग को पढ़ने वाले समस्त सनातन धर्म प्रेमीजन को दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर जय श्री कृष्ण।     

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