देवी माता सती ( 51 शक्ति पीठ) - (1)
ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि निर्माण का संकल्प लिया तब उन्होंने अपने पुत्र दक्ष प्रजापति को सृष्टि रचना हेतु प्रेरित कर संतानोत्पत्ति का निर्देश दिया। दक्ष प्रजापति की साठ कन्याएँ हुई, जिनका उन्होंने यथायोग्य विवाह संपन्न करवाया। मात्र उनकी सबसे छोटी पुत्री सती का ही विवाह होना शेष था। सती बाल्य काल से ही अपने ह्रदय में भगवान शिवजी को ही वरण करने की कामना लेकर उनकी आराधना करते हुवे बालिका से किशोरी एवं युवती हो गई थी। उस समय दक्ष प्रजापति ने सती के विवाह के लिए एक स्वयंवर सभा का आयोजन किया। विशाल राज सभा में आमंत्रित कई देवतागण एवं राजपुरुष सिंहासनारूढ़ हुवे थे। उस समय हाथ में वरमाला लिए सती ने सभा में प्रवेश किया। उस समय सती ने चारों ओर दृष्टी डाली किन्तु उनकी दृष्टी जिन्हें खोज़ रही थी वे उस सभा में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रहे थे। तब अंत में हताश होकर सती सभा के मध्य स्थान में आकर खड़ी हुई और उन्होंने अपने हाथ की वरमाला को ऊपर फेंककर कहा कि यदि मैं यथार्थ में सती हूँ तो हे शिव तुम मेरी यह वरमाला ग्रहण करो। सती के ऐसा कहने के बाद सभा में उपस्थित सभी लोगों में बड़े ही आश्चर्य से देखा कि सती द्वारा ऊपर फेंकी हुई उसी वरमाला को धारण किये हुवे स्वयं महादेव उस विशाल सभा के मध्य में सती के समीप प्रकट हो गए। तब दक्ष प्रजापति ने कुछ अप्रसन्न मन से अपनी पुत्री सती का विवाह उनके द्वारा वरेण्य शिव के साथ कर उनके साथ विदा कर दिया। सती को लेकर महादेव जी कैलाश पर्वत पर आ गए।
एक बार प्रयागराज में संत मण्डली के समस्त साधु महात्मा एकत्रित हुवे और उन्होंने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। उस यज्ञ में सनकादि, देवर्षि, प्रजापति, देवता, सिद्ध गण एवं अन्य ज्ञानियों सहित स्वयं ब्रह्माजी भी पधारे थे। उसी समय भगवान शिव भी अपने पार्षदगण सहित वहां पधारे। शिवजी को आया देख सम्पूर्ण देवताओं, सिद्ध मुनियों और ब्रह्माजी ने भक्तिभाव से शिवजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति की तथा पश्चात् में शिवजी की आज्ञा से सभी यथास्थान बैठ गए। उसी समय दक्ष प्रजापति भी वहां पंहुचे। दक्ष प्रजापति उस समय समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति बनाये गए थे, इस कारण सभी के द्वारा सम्मानीय थे। इस गौरव पद को पाकर उन्हें अहंकार भी हो गया था। यज्ञ सभा में उपस्थित विद्वानों ने दक्ष प्रजापति के समक्ष नतमस्तक होकर प्रणाम किया और स्तुति की। किन्तु देवों के देव महादेव जी जो स्वयं सबके आराध्य हैं, उन्होंने दक्ष के सामने न तो मस्तक झुकाया और न स्वागत किया। शिवजी अपने आसन पर यथावत बैठे रहे, जिससे दक्ष प्रजापति ने अप्रसन्न होकर क्रोध में शिवजी को काफी अपशब्द कहे। महादेव चुपचाप सुनते रहे, नंदी रोष में आकर दक्ष प्रजापति को फटकारने और श्राप देने को उद्दत हो गए तब महादेव ने उन्हें समझाया और अपने पार्षदगणों को साथ लेकर वापस कैलाश पर आ गए। उधर दक्ष प्रजापति अपने अहंकार के मद में अपने आप को शिव द्वारा अपमानित मानकर शिवद्रोही बन गए और शिवजी को यज्ञ भाग से वंचित रखने तथा अपमान का बदला लेने के प्रतिक्षा करने लगे।
कैलाश पर्वत पर शिव जी और सती सुखपूर्वक निवास कर रहे थे। तभी देवर्षि नारद जी अपनी वीणा लिए उपस्थित हुवे और शिवजी के पास गए। शिव जी ध्यानमग्न थे, जब उनका ध्यान भंग हुआ और देवर्षि नारद पर दृष्टी पड़ी तब नारद जी बोले कि प्रभु आपके श्वसुर दक्ष प्रजापति एक महोत्सव का आयोजन करने जा रहे हैं, जिसमें एक विशाल यज्ञ भी होगा। इस आयोजन में सभी लोग निमंत्रित हुवे हैं किन्तु आपको उन्होंने निमंत्रित नहीं किया है। इतने बड़े अनुष्ठान के आयोजन में आपको निमंत्रित नहीं करने से आप अपमानित महसूस नहीं कर रहे हैं, क्या यह धर्म विरूद्ध नहीं है। जब शिव जी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली तब नारद जी माता सती के पास पंहुचकर सब समाचार सुनाया फिर माता सती ने स्त्री स्वभाववश कौतुहल पूर्वक कई प्रश्न आयोजन के सम्बन्ध में नारद जी से किये, नारद जी से माता सती को आयोजन की पूर्ण जानकारी हो गई। अंत में माता सती आयोजन में जाने का निश्चय करके उठी और शिवजी के समक्ष पंहुची।
माता सती शिवजी से बोली मैं उत्सव देखने के लिए जाना चाहती हूँ जब शिवजी द्वारा निमंत्रण का पूछने पर माता सती बोली कि पिता के घर जाने के लिए पुत्री को किसी निमंत्रण की आवशयकता नहीं होती। इस पर शिव जी बोले वह तो ठीक है किन्तु वे मुझसे द्वेष रखते हैं, वे तुम्हारा अपमान भी कर सकते हैं, तुम्हे कोई क्षति भी हो सकती है, तुम्हारा वहां जाना कतई उचित नहीं होगा किन्तु माता सती के निश्चय के आगे शिवजी को उन्हें जाने की अनुमति देना पड़ी। नंदीगण को साथ लेकर माता सती एक श्मशानवासी भिक्षुक की पत्नी की वेशभूषा में अपने पिता दक्ष के नगर की ओर चल पड़ी। वहां पहुंच कर माता सती यज्ञ मंडप में प्रविष्ट हुई, जहां पर अट्टहास और उपहास से उनका स्वागत हुआ। माता सती ने देखा यज्ञ स्थल के अंतिम छोर पर उनके पिता अपने जमाताओं के साथ बैठे हुवे यज्ञ आरम्भ करने के लिए स्वस्तिवाचन कर रहे थे। जब माता सती उनके सम्मुख चरण स्पर्श के लिए आई तो दक्ष प्रजापति क्रोधित हो गए और उन्होंने माता सती का तो उपहास और अपमान किया साथ ही महादेव जी को भी काफी भलाबुरा कहा।
अपने पिता के मुख से अपने पति के बारे में ऐसे अपशब्द सुनकर माता सती अपने पिता से बोली पिताजी एक पतिव्रता नारी के लिए यह सब सुनना उचित नहीं है, जिन कानों ने आपकी यह बात सुनी वह शरीर और जीवन आपका दिया हुवा दान है और अब इतना होने पर यह दान आपको वापस लौटा रही हूँ यह शरीर जीवन सब आपका रहे अब मैं एक क्षण के लिए भी इस शरीर को नहीं रखूंगी। इसी के साथ माता सती के देहपिंजर से मुक्त होकर उनकी आत्मा उधर्व लोक को चली गई। नंदी यह सब देखकर कैलाश की ओर भागे, उधर कैलाश पर महादेवजी ध्यानमग्न थे जब उनका ध्यान भंग हुआ और नंदी से सम्पूर्ण जनकारी ज्ञात हुई तब शिवजी क्रोध एवं शोक से भर गए। उन्होंने अपनी जटा से एक केश तोड़कर पृथ्वी पर फेंका, जिससे अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित दैत्याकार गण प्रकट हुआ जो शिवजी के पार्षदों के साथ दक्षपुरी की ओर चल पड़ा। वहां पहुंच कर शिव वाहिनी ने दक्ष प्रजापति का सिर धड़ से पृथक कर दिया और उस यज्ञ का विध्वंस कर दिया।
शिवजी सीधे उस स्थान पर पहुंचे जहां मृत सती की देह थी। अत्यंत प्रेमपूर्वक सती की देह कंधे पर उठाकर शिवजी उस स्थान को छोड़कर जाने लगे, तभी दक्ष प्रजापति की पत्नी करुण रुदन करते हुवे वहां शिवजी के समक्ष उपस्थित हुई। शिवजी शांत स्वर में बोले कहो माँ क्या चाहती हो। इस पर वे बोली मुझे केवल तुम्हारी कृपा और अपने पति दक्ष का जीवन चाहिए। महादेव जी ने तथास्तु कहकर अपने गणो को दक्ष का जीवन लौटने का आदेश दिया। दक्ष का सिर तो शिव गणो ने यज्ञ में नष्ट कर दिया था अब वह सिर मिलना तो संभव नहीं था तब यज्ञ पूर्ण न होने के कारण जिस बकरे को बलि के लिए लाया गया था उसका सिर दक्ष प्रजापति के धड़ से शिवगणों ने जोड़ दिया और दक्ष प्रजापति को जीवित कर दिया। शिवजी माता सती की मृत देह लेकर जिस प्रकार विरह से व्याकुल होकर विचरण करने लगे और भगवान श्री हरी विष्णु जी के सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के जो जो अंग जहां जहां गिरे वे शक्तिपीठ के रूप में आज भी पूजित हैं वह अगले लेख में अवश्य पढ़े। हर हर महादेव।
बहुत ही रोचक जानकारी ..... ........ हरहर महादेव
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