सागर मंथन से प्राप्त अनमोल चौदह रत्न
(6) कल्प द्रुम अथवा कल्प वृक्ष - समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने वाला कल्प वृक्ष भी सागर मंथन से ही प्राप्त हुआ था, जिसे देवताओं ने स्वर्ग स्थापित कर दिया। कल्प वृक्ष को कल्पद्रुम अथवा कल्प तरु भी कहा जाता है। कल्पद्रुम के विषय में कुछ भ्राँतियाँ भी हैं, कुछ मान्यताएँ यह है कि यह दुनिया का सबसे पहला धर्म ग्रंथ है, जो कि सागर मंथन के समय प्रकट हुआ है। इसी प्रकार से कुछ मान्यताएँ अनुसार इसे संस्कृत भाषा से जोड़ती हैं।
(7) रम्भा - समुद्र मंथन के दौरान रम्भा नाम की एक सुंदर अप्सरा भी प्रकट हुई। प्रकट होते ही रम्भा स्वयं ही देवताओं के पास चली गई, जिसे देवताओं ने इंद्र को प्रदान कर दिया। कुछ धर्म ग्रंथो में रंभा का चित्रण एक प्रसिद्ध अप्सरा के रूप में माना जाता है, जो कि कुबेर की सभा में थी। रंभा कुबेर के पुत्र नलकुबर के साथ पत्नी रूप में रहती थी। ऋषि कश्यप और प्राधा की पुत्री का नाम भी रंभा था। महाभारत में इसे तुरुंब नाम के गंधर्व की पत्नी बताया गया है। समुद्र मंथन के दौरान देवराज इन्द्र ने देवताओं से रंभा को अपनी राजसभा के लिए प्राप्त किया था। विश्वामित्र की घोर तपस्या से विचलित होकर देवराज इंद्र ने रंभा को बुलाकर विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा था। अप्सरा को गंधर्वलोक का वासी माना जाता है। कुछ लोग इन्हें परी भी कहते हैं।
(8) लक्ष्मी - सागर मंथन के दौरान खिले हुवे कमल के आसन पर विराजमान अपने हाथों में कमल पुष्प लिए हुवे देवी लक्ष्मी जी की उत्पत्ति भी हुई, जिन्होने स्वयं ही भगवान श्री विष्णु जी का वरण कर लिया। लक्ष्मी अर्थात श्री और समृद्धि की उत्पत्ति। कुछ लोग इसे स्वर्ण से भी जोड़ते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस भी घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां सदैव ही समृद्धि रहती है। देवी लक्ष्मी जी के बारे में एक मान्यता यह भी है किं महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति के गर्भ से एक त्रिलोक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई जिनका नाम लक्ष्मी था और जिन्होंने भगवान विष्णु जी से विवाह किया।
(9) वारुणि (मदिरा) - सागर मंथन से वारुणी नाम की एक मदिरा की भी उत्पत्ति हुई, जो दैत्यों ने भगवान श्री विष्णु जी की अनुमति से प्राप्त कर लिया। एक प्रकार की मदिरा को वारुणी नाम प्रदान किया गया है। वैसे वारुणी नाम का एक पर्व भी होता है और वारुणी नाम से एक खगोलीय योग का भी उल्लेख मिलता है। समुद्र मंथन के दौरान जिस मदिरा की उत्पत्ति हुई उसका नाम वारुणी रखा गया। वरुण का अर्थ जल, और जल से उत्पन्न होने के कारण उसे वारुणी कहा गया। वरुण नाम के एक देवता हैं, जो असुरों की तरफ थे। वरुण की पत्नी को भी वरुणी कहते हैं। कदंब के फलों से बनाई जाने वाली मदिरा को भी वारुणी कहते हैं।
(10) चन्द्रमा - सागर मंथन से चन्द्रमा का भी प्राकट्य हुआ, जिन्हे भगवान शिवजी ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। क्षत्रियों में कई गोत्र होते हैं, उनमें चंद्र से जुड़े गोत्र को चंद्रवंशी के नाम से जाना जाता है। भगवान श्री कृष्ण जी चन्द्रवंशीय रहे हैं। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि ऋषि और अनुसूया जी की संतान बताया गया है जिनका नाम 'सोम' है। दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियां थीं जिनके नाम पर 27 नक्षत्रों के नाम पड़े हैं, इन सभी का विवाह चन्द्रमा के साथ ही संपन्न हुआ था।
(11) पारिजात वृक्ष - समुद्र मंथन के दौरान पारिजात वृक्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। 'पारिजात' या 'हरसिंगार' उन प्रमुख वृक्षों में से एक है जिसके पुष्प ईश्वर की आराधना में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। धन की देवी लक्ष्मी जी को पारिजात के पुष्प अति प्रिय हैं। यह भी माना जाता है कि पारिजात के वृक्ष के स्पर्श मात्र से ही व्यक्ति की थकान मिट जाती है। पारिजात वृक्ष में कई औषधीय गुण भी होते हैं। हमारे सनातन धर्म में कल्पवृक्ष के बाद पारिजात के वृक्ष को भी महत्व दिया गया है। बरगद, पीपल और नीम आदि का महत्व इनके पश्चात की श्रेणी के हैं।
(12) पाञ्चजन्य शंख - शंख तो कई प्रकार के पाए जाते हैं, लेकिन पांचजञ्य शंख अत्यंत ही दुर्लभ माना गया है। समुद्र मंथन से विजय के प्रतीक पांचजञ्य शंख की भी उत्पत्ति हुई थी, जोकि भगवान श्री विष्णु जी ने अपने पास रख लिया। विष्णु पुराण के अनुसार देवी लक्ष्मी जी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख लक्ष्मी जी का सहोदर भाई है, इस कारण यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख होगा वहाँ लक्ष्मी का भी वास होगा। अनमोल 14 रत्नों में से एक पांचजञ्य शंख को भी माना गया है। पांचजञ्य शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। 1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि शंख ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने की उत्तम औषधि है। शंख 3 प्रकार के होते हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं।
(13) धन्वन्तरि वैद्य - देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के शांत हो जाने पर भी समुद्र में स्वयं ही मंथन चल रहा था, जिसके चलते श्याम वर्ण, चतुर्भुज रूपी भगवान धन्वंतरि हाथ में अमृत का स्वर्ण कलश लेकर प्रकट हुए थे । विद्वजन कहते हैं कि सागर मंथन के समय कई प्रकार की दिव्य औषधियां भी उत्पन्न हुईं थी और उसके बाद अमृत निकला। हालांकि श्री धन्वंतरि वैद्य आयुर्वेद के जन्मदाता माने गए है। उन्होंने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव और गुण को प्रकट किया। भगवान श्री धन्वंतरि जी के हजारों ग्रंथों में से अब केवल धन्वंतरि संहिता ही पाई जाती है, जो आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है। अमृत-वितरण के पश्चात देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देवों के वैद्य का पद स्वीकार कर लिया और अमरावती उनका निवास स्थान बन गया। बाद में जब पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गए तो इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की वह पृथ्वी पर अवतार लें। देवराज इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान धन्वन्तरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। "धन्वन्तरि-संहिता" आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है, आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। कहा जाता है कि आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वंतरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था, पश्चात में चरक ऋषि आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। 'धनतेरस' के दिन उनका प्राकट्य हुआ था। भगवान श्री धन्वंतरि जी आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। रामायण, महाभारत, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, शार्गधर, श्रीमद्भावत पुराण आदि में भी उनका उल्लेख मिलता है। धन्वंतरि नाम से और भी कई आयुर्वेदाचार्य हुए हैं।
(14) अमृत - सागर मंथन के अंत में अमृत कलश की प्राप्ति हुई थी, जिसके पश्चात देवताओं एवं असुरों में अमृत प्राप्त करने के लिए संघर्ष हुआ। इसमें अमृत की कुछ बुँदे चार स्थानों पर छलक गई, जहां कुम्भ का आयोजन होता है। अमृत को देखकर दानव आपस में लड़ने लगे। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर छल पूर्वक देवताओं को अमृत पान करवा दिया, जिसमे देवता के भेष में एक असुर का बैठना, चन्द्रमा द्वारा पहचानना, सुदर्शन चक्र से असुर का मस्तक कटना किन्तु अमृत प्रभाव से राहू और केतु का प्रादुर्भाव होना, यह सब सागर मंथन से प्राप्त रत्नों के इस विषय से पृथक है। अमृत' का शाब्दिक अर्थ 'अमरता' है। निश्चित ही यह एक ऐसा पेय पदार्थ या रसायन रहा होगा जिसको पीने से व्यक्ति हजारों वर्ष तक जीने की क्षमता हासिल कर लेता होगा। यही कारण है कि बहुत से ऋषि रामायण काल में भी पाए जाते हैं और महाभारत काल में भी। अमृत के नाम पर ही चरणामृत और पंचामृत का भी प्रचलन हुआ, हमने भी प्रभु श्री हरि जी की कृपा से इस लेख के माध्यम से दिव्य अमृत का रसास्वादन किया उन्हीं प्रभु की विशेष कृपा हम सभी सनातन धर्मप्रेमीजन पर इसी प्रकार से सदैव बनी रहे। सभी को जय श्री कृष्ण - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।
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