मौनी अमावस्या
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन। पवित्र माघ मास की अमावस्या का दिन अत्यंत ही दुर्लभ दिवस माना जाता है। कार्तिक मास के समान ही मान्यता वाला पवित्र माघ मास अति पुण्यदायी माना जाता है, इस मास में भी कार्तिक से समान ही स्नानादि होता है। इस माह की अमावस्या को माघ अमावस्या, मौनी अमावस्या अथवा दर्श अमावस्या भी कहा जाता है। पौराणिक कथानक के अनुसार इस दिन प्रयागराज पर संगम पर स्वयं देवतागण भी पधारते हैं, इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्त्व है और इसी कारण से गंगा तट पर भक्तजन एक मास तक कुटिया बनाकर कल्पवास भी करते हैं। नाम के अनुरूप ही मौनी अमावस्या को मौन व्रत का पालन भी किया जाता है। वैसे भी हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार कहा गया है कि अपने होठों से ईश्वर का जाप करने से जितना पुण्य मिलता है उससे कई गुना अधिक पुण्य मन का मनका फेरकर हरि नाम जपने से मिलता है, इसलिए इस दिन मौन रहें और अगर संभव नहीं हो तो कम से कम अपने मुख से किसी प्रकार का कटु शब्द नहीं निकालें। हमारा यह 148 वां लेख रूपी पुष्प पावन मौनी अमावस्या को समर्पित है।
वर्तमान में प्रयागराज में महाकुम्भ के अवसर पर स्नान पर भी चर्चा आवश्यक है। सागर मंथन के समय पर जब भगवान धन्वन्तरि जी अमृत कलश लेकर प्रकट हुवे थे, उस समय अमृत कलश के लिए देवताओं और असुरों में खींचतान प्रारम्भ हुई जिससे तब अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे छलक गई और वे बूंदे प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में जाकर गिरी थीं, इसी कारण से यहाँ कुम्भ परम्परा प्रारम्भ हुई और इस कालावधि में इन स्थानों पर पवित्र नदियों में स्नान करने पर अमृत स्नान का काफी पुण्य बताया गया है। ऐसी मान्यता है कि इस अवसर पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित समस्त देवता भी पधारते हैं, इसी कारण से देश विदेश से भी सनातन धर्म प्रेमीजन इस समय इस पुण्य लाभ की प्राप्ति हेतु स्नान करने आते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि सतयुग में तप से, द्वापर युग में हरि भक्ति से, त्रेता युग में ज्ञान से और कलियुग में दान से जो पुण्य मिलता है, उससे कही अधिक पुण्य माघ मास में संगम स्नान करने पर प्राप्त हो जाता है। इस दिन स्नान उपरांत अपनी सामर्थ्य अनुसार दान का अपना अलग ही महत्त्व है, वैसे इस दिन तिल का दान सर्वोत्तम माना गया है। इस दिन भगवान विष्णु जी और शिव जी की पूजा का विधान है तथा पीपल के वृक्ष में अर्ध्य देकर परिक्रमा करने और दीपदान का भी महत्त्व है। कुछ लोग इस दिन व्रत करते हैं तो कुछ लोग इस दिन मीठा भोजन करते हैं।
पितरों को समर्पित इस अमावस्या पर पितृ कर्म किये जाते हैं। इस दिन ऐसा कोई कार्य न करें जिससे पितरों को कष्ट हो। पितरों के निमित्त धूप, तर्पण, दान आदि भी इस दिन किये जाते हैं। सांयकाल में जब पितृ अपने लोक को लौटते हैं तब उनका मार्ग रोशन करने के लिए दक्षिण दिशा में दीपक भी लगाया जाता है, इससे पितृ संतुष्ट होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। महाकुम्भ में स्नान के समय पाँच डुबकी लगाने का अपना विशेष महत्त्व बताया गया है। पहली डुबकी पूर्व दिशा में मुख करके जल देवता और नदियों को प्रणाम करते हुवे लगाई जाती है, इससे हमारे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। दूसरी डुबकी भी पूर्व दिशा में मुख करके लगाई जाती है, इससे कुल देवता और इष्ट देवता की कृपा प्राप्त होती है। तीसरी डुबकी उत्तर दिशा में मुख करके लगाई जाती है, इससे भगवान शिव, माता पार्वती, सप्त ऋषियों और गुरुजनों का आशीर्वाद मिलता है। चौथी डुबकी पश्चिम दिशा में मुख करके लगाई जाती है, इससे किन्नर, यक्ष, गरुड़ और 33 कोटि देवी देवताओं का आशीर्वाद मिलता है। पाँचवी डुबकी दक्षिण दिशा में मुख करके लगाई जाती है, यह डुबकी पूर्वजों की आत्मिक शांति और कल्याण के लिए होती है। इस प्रकार से इन पाँच डुबकियो के माध्यम से सभी देवी देवताओं और पितरों का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है।
आध्यात्मिक प्रगति हेतु अपनी वाणी का शुद्ध और सरल होना अत्यंत ही आवश्यक होता है, जो कि मौन से ही संभव है। मौन से वाणी शुद्ध और नियंत्रित तो होती ही है साथ ही उससे व्यक्ति के सोचने समझने की शक्ति भी विकसित होती है तथा मानसिक शक्ति में भी वृद्धि होती है, इसीलिए मौन का विशेष महत्त्व बताया गया है। हमारे ऋषि मुनि अधिकांशतः मौन ही रहते थे, चिंतकगण भी अक्सर मौन रहकर ही चिंतन मनन करते हैं। पूजनादि अथवा अनुष्ठान भी अक्सर मौन रहकर ही संपन्न किये जाते हैं। हमारे धर्म शास्त्र प्रातःकाल और सांयकाल के समय व्यक्ति को अधिकाधिक मौन रहने के लिए निर्देश प्रदान करते हैं। मौन रहने से जहाँ मानसिक तनाव कम होता है वहीं स्वास्थ्य लाभ भी होता है तथा मन को शांति एवं मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। श्रीमद भगवद गीता में मानस तप के बारे में कहा गया है "मौनमात्म विनिग्रहः, भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसः उच्यते" अर्थात मन को शुद्ध करने के लिए मानसिक तप की आवश्यकता होती है, जोकि मौनव्रत से ही हो सकता है।
मौन के विषय में यदि हम चर्चा करें तो मौन भी दो प्रकार का होता है पहला वाणी का मौन और दूसरा मन का मौन। वाणी का मौन अर्थात कम बोलना, संयमित बोलना, सोच विचार करके बोलना, मनन चिंतन करके बोलना। जब हम वाणी को कम से कम उपयोग में लाते हैं, संयमित बोलते हैं तो यह अभ्यास हमारी काफी ऊर्जा तो बचाता ही है साथ ही काफी बुराइयों से भी बचाता है। उसी प्रकार से मन का मौन अर्थात मन में आये कुविचारों पर नियंत्रण रखना, मन भटकाव पर काबू रखना, अशुद्ध विचारॉ को दूर करके शुद्ध विचारों को ग्रहण करना, अपने मन को आध्यात्म और आत्मिकता के अनुरूप बनाये रखना। इससे मन से विकार दूर हो जाते हैं, चित्त शांत रहता है, साथ ही स्वास्थ्य भी उत्तम रहता है। इस प्रकार से मौन की महिमा अपार है और मौन को धारण करना तप करने के समान माना गया है।
हमारे सनातन धर्म में कई प्रकार के व्रतों के बारे में बताया गया है किन्तु मौन व्रत अपने आप में अनूठा व्रत होता है। मौनी अमावस्या को ही नहीं इस व्रत को तो कभी भी किया जा सकता है। जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए तथा मानव जीवन में दिव्य ऊर्जा को संचारित करने के लिए जब जब भी अवसर मिले तब तब इस मौन व्रत को करते रहना चाहिए। मौन से क्रोध का दमन, वाणी का नियंत्रण तो होता ही है इससे मानव के आत्म बल, शरीर बल, संकल्प बल की भी वृद्धि होती है, आंतरिक शक्तियों का विकास होता है तथा ऊर्जा का क्षरण रुकता है तथा शारीरिक, मानसिक और दैवीय ऊर्जा की भी प्राप्ति होती है। इसलिए कभी कभी कुछ समय के लिए प्रत्येक व्यक्ति को मौन व्रत रखना ही चाहिए, यदि उतना भी संभव नहीं हो तो कम से कम प्रातःकाल और सायंकाल के समय तो मौन व्रत धारण कर ही लेना चाहिए। आइये हम भी आज मौनी अमावस्या के इस पावन पर्व और महाकुम्भ की पावन बेला में यह संकल्प लें कि हम भी अब मौन व्रत का सतत पालन करेंगे। ईश्वर आप सभी को इस मौन व्रत के संकल्प को पूर्ण करने में सहायक बनें, इसी शुभेच्छा के साथ आप सभी सनातन धर्म प्रेमीजन को मौनी अमावस्या की जय श्री कृष्ण - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर।
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