नेताजी सुभाषचंद्र बोस
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। हमारा देश जिस समय स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था, उस समय काफी देशभक्त अपने अपने स्तर से आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान प्रदान कर रहे थे, इस लड़ाई में कई देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति प्रदान कर दी थी, कई देशभक्त गुमनामी के अंधेरों में चले गए, तो कई याद भी रहे। आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन कर अत्यंत ही दबंगता से भाग लेने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम हमारे इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है, जिन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज में भर्ती होने आये समस्त युवक युवतियों को सम्बोधित करते हुवे नारा दिया था कि "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा"। उनके द्वारा दिया गया 'जय हिन्द" का नारा हमारे भारत देश का राष्ट्रीय नारा बन गया।यह 147 वाँ लेख रूपी पुष्प नेताजी के जन्मदिवस के अवसर पर उन्हीं को समर्पित है। उड़ीसा में कटक के एक सम्पन्न बंगाली परिवार में दिनांक 23 जनवरी 1897 को नेताजी का जन्म हुआ था, नेताजी के पिता श्री जानकीनाथ जी बोस कटक के प्रसिद्ध वकील थे। नेताजी की माता का नाम श्रीमती प्रभावती था, इस दम्पत्ति की 14 संतानों, जिनमें 6 बेटियाँ और 8 बेटों में नेताजी नौवीं संतान थे।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रारंभिक शिक्षा कटक में ही संपन्न हुई होकर उनकी उच्च शिक्षा कलकत्ता में संपन्न हुई। इसके पश्चात भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए माता पिता ने नेताजी को इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। उस समय ब्रिटिश शासनकाल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना अत्यंत ही दुष्कर माना जाता था किन्तु नेताजी ने अपनी कठिन मेहनत से सिविल सर्विस की उस परीक्षा मेँ चौथा स्थान प्राप्त किया था। सिविल सर्विस के लिए चयनित होने के बाद भी देशसेवा के लिए नेताजी सबकुछ छोड़कर भारत लौट आये और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए, हालांकि क्रांतिकारी विचारों वाले नेताजी महात्मा गाँधी के अहिंसा और उदारतावादी विचारों से सहमत नहीं थे किन्तु वे यह भी विचार रखते थे कि भले ही विचार भिन्न हों मकसद तो एक ही है और वह है देश की आजादी।
सक्रिय राजनीति में आने के पहले नेताजी ने पूरी दुनिया का भ्रमण किया था। सन 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद नेताजी ने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया, हालांकि उनकी यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी फिर भी उन्होंने इस पर कार्य किया। सन 1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस पुनः अध्यक्ष निर्वाचित हुवे। इस बार नेताजी गाँधीवादी प्रतिद्वंदी को हराकर विजयी हुवे थे, जिसे गांधीजी ने अपनी हार के रूप में मान लिया और कांग्रेस वर्किंग कमेटी से त्यागपत्र देने के लिए तत्पर हो गए थे। गांधीजी के लगातार विरोध को देखते हुवे नेताजी ने स्वयं ही कांग्रेस छोड़ दी। इसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया था, तब नेताजी ने अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आजादी प्राप्त करने का विचार किया, जिसकी भनक ब्रिटिश सरकार को मिलते ही कोलकाता में नेताजी को नजरबंद कर लिया किन्तु नेताजी अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहाँ से निकल गए और अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुवे जर्मनी पहुँच गए।
नेताजी जानते थे कि आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए राजनीतिक गतिविधियों के साथ साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग की भी आवश्यकता होगी, जर्मनी का निशाना इंग्लैंड था और भारत पर भी अंग्रेजों का कब्ज़ा था। कूटनीति में दुश्मन का दुश्मन दोस्त हो सकता है, इस कारण इंग्लैंड के विरूद्ध लड़ाई में नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य के मित्र नजर आये। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस हिटलर से भी मिले थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध देश की आजादी के लिए कई काम किये। सन 1943 में उन्होंने जर्मनी छोड़ दिया और वहाँ से जापान पहुँचे उसके बाद वे सिंगापुर पहुंचे, जहाँ उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आज़ाद हिन्द फ़ौज की कमान अपने हाथों में ले ली। उस समय रास बिहारी बोस आज़ाद हिन्द फ़ौज के नेता थे तब नेताजी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज का पुनर्गठन किया साथ ही आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की। नेताजी के इस संगठन के प्रतीक चिन्ह स्वरुप झण्डे पर दहाड़ते हुवे बाघ का चित्र बना होता था। उन्होंने महिलाओं के लिए रानी झाँसी रेजिमेंट का भी गठन किया, जिसकी कैप्टन लक्ष्मी सहगल को बनाया गया। नेताजी अपनी आज़ाद हिन्द फ़ौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुंचे, यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्द नारा "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा" दिया था।
नेताजी ने आजाद हिन्द फ़ौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाई, जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशों की सरकारॉ ने मान्यता भी दी थी। जापान ने अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह इस अस्थाई सरकार को प्रदान कर दिए। आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजों से दो बार युद्ध कर कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सबसे पहले 1921 में सर्वप्रथम छह महीने का कारावास हुआ था, उसके बाद उनके जीवन में 10 बार और कारावास हुआ था। माण्डले कारागार में रहते हुवे नेताजी की तबीयत काफी ख़राब हो गई, उन्हें तपेदिक हो गया था फिर भी अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा करने से मना कर यह शर्त रखी कि वे ईलाज के लिए यूरोप चले जाएं किन्तु यह स्पष्ट नहीं किया कि भारत वापस कब तक लौटेंगे, इस पर नेताजी ने ही शर्त अस्वीकार कर दी। आखिर में स्थिति इतनी विकट हो गई कि जेल अधिकारियों को आशंका हो गई कि कारावास में ही कहीं मृत्यु न हो जाय, अंग्रेज सरकार भी कोई खतरा नहीं लेना चाहती थी, इस कारण उन्हें रिहा कर दिया गया।
एक बार तो नेताजी कारावास में रहते हुवे चुनाव में कोलकाता के महापौर निर्वाचित हो गए होने से ब्रिटिश सरकार को मजबूरन उन्हें रिहा करना पड़ा। 1932 में जब नेताजी को कारावास हुआ तो उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया, अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से ख़राब हो गई तब डॉक्टरों की सलाह पर नेताजी इलाज के लिए यूरोप जाने के लिए सहमत हो गए। सन 1934 में जब नेताजी ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने के लिए ठहरे हुवे थे, उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने के लिए एक अंग्रेजी टाइपिस्ट की आवश्यकता थी, तब उनके एक मित्र ने एक प्रसिद्द पशु चिकित्सक की पुत्री एमिली शेंकल नामक एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात कराइ, जिनसे 1942 में नेताजी ने हिन्दू रीति रिवाज अनुसार विवाह किया। इस वैवाहिक संबंध से एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया था, उनकी पुत्री का नाम अनीता बोस रखा गया।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के बारे में आज भी कोई स्पष्टता नहीं है, हालाँकि जापान में 18 अगस्त को उनका शहीद दिवस मनाया जाता है। सार्वजानिक रूप से यह स्थिति है कि 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया जा रहे थे, इसी सफर के बाद उन्हें किसी ने देखा नहीं है। टोकियो रेडिओ ने 23 अगस्त 1945 को बताया था कि नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और विमान में उनके साथ सवार अन्य लोग मारे गए। नेताजी गंभीर रूप से जल गए थे, उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया तथा उनका अंतिम संस्कार भी ताइहोकू में ही कर दिया गया। यह भी बताते हैं कि बाद में नेताजी की अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रेंकोजी मंदिर में रख दी गई है। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार के दस्तावेजों के अनुसार भी नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू सैनिक अस्पताल में रात्रि 9 बजे होना बताई जाती है।
18 अगस्त 1945 के बाद नेताजी के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी तो आई नहीं किन्तु देश के कई भागों से उन्हें देखे जाने की खबरें आती रही, यहाँ तक कि उनके रूस में नजरबन्द होने की खबरें भी चलती रही, तो फ़ैजाबाद के गुमनामी बाबा के बारे में भी यही कहा जाता रहा कि वे नेताजी ही हैं किन्तु प्रामाणिक रूप से स्थिति स्पष्ट नहीं रही होकर यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया। आजादी के बाद भारत सरकार ने घटना की जाँच करने के लिए 1956 और 1977 में दो बार आयोग का गठन किया गया, दोनों ही बार आयोग द्वारा नेताजी के उस विमान दुर्घटना में शहीद होने की बात बताई गई। उसके बाद 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया जिसमें जाँच के दौरान ताईवान सरकार यह बताया गया कि 1945 में ताईवान की भूमि पर कोई भी विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं। मुखर्जी आयोग द्वारा 2005 में भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर अवगत कराया कि 1945 की उस दुर्घटना में नेताजी के शहीद होने के बात के कोई भी सबूत नहीं हैं, किन्तु भारत सरकार द्वारा मुखर्जी आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
इस प्रकार से नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के बारे में स्पष्टतः कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है किन्तु नेताजी का देश की सेवा के लिए किया गया कार्य तो सर्वविदित है। उनके द्वारा दिया गया 'जय हिन्द" का नारा आज भी हम हमारे देश की जयगाथा के रूप में बुलंद करते हुवे नेताजी का स्मरण करते हैं। भारत के समस्त देशवासियों की और से 23 जनवरी को नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जन्म दिवस के अवसर पर नेताजी का स्मरण करते हुवे नेताजी को शत शत नमन करते हैं - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।
Comments
Post a Comment