सच्चा श्राद्ध - जीवित माता पिता की सेवा
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। अभी श्राद्ध पक्ष चल रहे हैं और इसी कालावधि में अभी कुछ दिनों पूर्व समाचार पत्र में कुछ खबरें पढ़ी, जिससे दुःख भी हुआ साथ ही मन भी काफी विचलित हुआ इसलिए पितृपक्ष में पितरों को समर्पित इस 146 वॉँ लेख की प्रस्तुति का कारण बना। एक खबर कुछ इस प्रकार की थी जिसमें अपने मृत परिजन के अंतिम संस्कार में आने के लिए उनके पुत्र को समय नहीं मिला और उसने अपने पड़ोसियों को ही अंत्येष्टि करने को कह दिया, तब उन पड़ोसियों ने उनका अंतिम संस्कार संपन्न किया, वही दूसरी खबर के अनुसार अपने माता पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ने के बाद पुत्र ने उनकी कोई खैर खबर लेना उचित नहीं समझा, बाद में माता पिता की मृत्यु भी हो गई, वह तब भी नहीं आया। कालांतर में कुछ परेशानी आने पर ज्योतिष के समक्ष अपनी परेशानी के कारण और समाधान हेतु गया तो ज्ञात हुआ कि पितृदोष के कारण परेशानियाँ आ रही है, तब वह उस वृद्धाश्रम पहुंचा जहाँ मता पिता को छोड़ा था और वहाँ उसने अपने मृत माता पिता की अस्थियाँ अथवा कोई अन्य निशानी की मांग की ताकि अपने माता पिता का विधिवत श्राद्ध कर्म कर सके। इन दोनों ही खबरों ने काफी सोचने विचारने के लिए विवश कर दिया कि आखिर हमारे भारत देश में ऐसी स्थितियाँ क्यों निर्मित हो रही है जबकि हमारी संस्कृति इस प्रकार की है ही नहीं।
हमारा भारत देश अपनी परम्पराओं के कारण सम्पूर्ण विश्व मेँ प्रसिद्द है। आज हमारे सनातन धर्म को विश्व भर में लोग अपनाकर हमारी संस्कृति एवं परम्परा अनुसार कार्य कर रहे हैं और हम हैं कि आधुनिकता का चश्मा लगाकर अपनी संस्कृति और परम्पराओं को त्यागते जा रहे हैं। विदेशी लोग हमारे देश में आकर हमारा धर्म अंगीकार कर हमारे धर्मानुकूल कार्य कर रहे हैं, शाकाहार अपना रहे हैं, हमारे देश में आकर हमारी परम्परानुसार पाणिग्रहण संस्कार और अन्य संस्कार को संपन्न कर रहे हैं वहीं हम अपने संस्कारों को छोड़ते जा रहे हैं, उनसे विमुख होते जा रहे हैं। हमारे यहाँ प्राचीन समय से ही संयुक्त परिवार की परम्परा रही है जोकि आज विलुप्ति की कगार पर है। संयुक्त परिवार में दादा-दादी, काका-काकी, ताऊ-ताई, मामा-मामी, बुआ-फूफा, मौसा-मौसी, भाई- बहन, भतीजे-भतीजी आदि कई रिश्ते अपनी अपनी एक पृथक पहचान रखते थे और इन सभी रिश्तों में परस्पर प्रेम, स्नेह और अपनत्व हुआ करता था किन्तु आज की पीढ़ी संयुक्त परिवार तो छोड़ दीजिये वे अपने माता पिता के साथ भी रहना उचित नहीं समझती है। माता पिता भी उन्हें एक बोझ समान लगने लग गए हैं, जिसका परिणाम आज हम वृद्धाश्रम और उनमें बढ़ती वृद्धजनों की संख्या के रूप में देख ही रहे हैं।
वर्तमान समय में यह स्थिति कैसे बनी, यह संस्कृति कहाँ से प्रकट हुई, यह भी एक खोज का विषय है। हालांकि कोई भी माता-पिता अपनी संतान का अहित नहीं चाहते हैं, प्रत्येक माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान उनसे अधिक तरक्की करे, उनकी संतान को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो, जीवन पथ पर उनका सफर बगैर किसी रूकावट या संकट के चलता रहे। फिर भी वर्तमान पीढ़ी उन्हें समझने में इतना गलत क्यों है, यह बात भी समझ से परे है। आज यदि कोई माता-पिता अपनी उम्र और अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर यदि कोई सलाह अपनी संतान को देते हैं तो वह उन्हें नागवार क्यों लगती है, जबकि वह सलाह उन्हीं के भले के लिए होती है। माता-पिता की किसी बात या समझाइश को आज की पीढ़ी रोक टोक या दखल अंदाजी क्यों समझ रही है, यह भी समझ से परे है। आज की पीढ़ी अपने माता-पिता को साथ रखना नहीं चाहती या ऐसा भी कह सकते हैं कि उनके साथ रहना नहीं चाहती, आखिर क्यों ?
संयुक्त परिवार प्रणाली में इतने फायदे हुआ करते थे जिनका उल्लेख भी नहीं किया जा सकता है, फिर भी वह लुप्त क्यों हो रही है ? हालांकि आज की पीढ़ी अकेले रहकर परेशान भी होती है, असुरक्षा भी महसूस करती है, बच्चों की परवरिश, देखरेख, उनके लालन पालन में भी परेशानी उठा रही है फिर भी वे अपने परिजनों से दूरियाँ क्यों बनाते जा रहे हैं, यह भी समझ में नहीं आता है। अपने माता-पिता के साथ रहकर उनका उसी प्रकार ध्यान क्यों नहीं रख पा रहे हैं, जिस प्रकार से उन्होंने अपने बच्चों का उनके बचपन में ध्यान रखा था। बच्चों को एक बात समझाने के लिए उन्होंने पचासों बार उस बात को दोहराया होगा किन्तु आज वही संतान अपने माता-पिता की किसी बात का दोबारा दोहराना क्यों सहन नहीं कर पा रही हैं ? वे माता-पिता जो अपनी संतान की सुरक्षा के लिए, उसकी देखरेख के लिए, उसे भोजन कराने के लिए घंटो उसके पास बैठे, आज वही संतान अपने माता-पिता के पास चंद मिनिट भी क्यों नहीं बैठ पा रही है ?
जिन माता-पिता ने अपनी सुख सुविधाओं का गला घोंटकर अपनी संतान की सुख सुविधाओं पर बेहिसाब खर्च किया, आज वे ही संतान अपने माता-पिता पर खर्च क्यों नहीं कर पा रही है, जो माता-पिता ने अपनी संतान को उसके कहने के साथ उसका मनपसंद भोजन बनाकर उसे खिलाया हो, वही संतान आज अपने माता-पिता को उनका मनपसंद भोजन तो दूर उन्हें भरपेट भोजन भी उपलब्ध क्यों नहीं करा पा रही है ? जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को सदैव अपनी नजरों के सामने रखा, आज वही संतान अपने माता -पिता को नजर अंदाज क्यों कर रही है ? जो माता-पिता अपने बच्चों को अपने कंधे पर बैठाकर उन्हें घुमाया फिराया करते थे, आज वही संतान अपने माता-पिता को कहीं घुमाने फिराने में शर्म महसूस क्यों करती है ?
आज वे संतान जिन्होंने अपने उन माता-पिता (जिनका उन्होंने जीते जी ध्यान नहीं रखा) का श्राद्ध करके उनके मनपसंद भोजन बनाकर धूप ध्यान इस अपेक्षा के साथ कर रहे हैं कि वे तृप्त होकर उनपर अपना आशीर्वाद और कृपा बनाकर रखें। र्मैं यह नहीं कह रहा कि श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए, मेरा कहना है कि आपके श्राद्ध कर्म से आपके परिजन को मोक्ष की प्राप्ति होगी या नहीं यह तो पृथक बात है किन्तु जब आपको माता-पिता के रूप में प्रत्यक्ष भगवान की प्राप्ति हुई थी तब आपने उनकी सेवा क्यों नहीं की, तब आपने उनका आदर सम्मान क्यों नहीं किया, तब आपने अपने कर्तव्यों का पालन क्यों नहीं किया, यह मुख्य प्रश्न है। इन प्रश्नो का समाधान हो जाता है तो वही सच्चा श्राद्ध होगा। आपको अपने परिजनों का सम्मान करते, सेवा करते हुवे जब आपकी संतान देखेगी तो वे भी इसे याद रखेंगे और आपके जीते जी तो करेंगे ही आपके इस दुनिया से विदा लेने के बाद भी निर्बाध रूप से करेँगे अन्यथा आप भी अपनी संतानों से किसी प्रकार की कोई आशा नहीं रख सकते हैं।
संयुक्त परिवार में हमारे वृद्धजन भले ही अपने जन्मदिन की तिथि याद नहीं रखते हैं और न उन्हें अपनी विवाह की तिथि याद होगी किन्तु वे अपनी तीन तीन पीढ़ियों तक के लोगों की मृत्यु तिथि याद रखकर आज भी श्रद्धापूर्वक उनका श्राद्ध कर्म करते हैं, जोकि एकल परिवार में नहीं हो पा रहे होकर बच्चों की जानकारी में भी नहीं आ पा रहे हैं तो वे बच्चे उन कार्यों को कैसे करेँगे। आज जो कार्य हम करेंगे वही बच्चे देखेंगे और करेंगे, जो संस्कार हम आज बच्चों को देंगे वही संस्कार वे अपनी अगली पीढ़ी को दे पायेंगे, तभी हमारी परम्पराएँ और संस्कृति यथावत रहेगी अन्यथा विलुप्त तो होना ही है। लेख के अंत में पितरों को नमन करते हुवे केवल यही कहना चाहूंगा कि मत तोड़ो टहनियों से इन पीले पत्तों को यारों, कुछ दिनों बाद खुदबखुद झड़कर गिर जायेंगे। बैठा करो अपने घर के बुजुर्गों के पास, देखना चंद ही मिनटों में ये कैसे चार्ज हो जायेंगे। मत टोको इन्हें एक ही बात बार बार दोहराने से, एक न एक दिन खुदबखुद खामोश हो जायेंगे। खर्च करने दो इनको बेहिसाब यारों, एक दिन सब कुछ आपके लिए छोड़ जायेंगे। लीजिये इनका आशीर्वाद हमेशा अपने सर पर, फिर तो ये सिर्फ तस्वीर में ही नजर आयेंगे। खिला दिया करो इनको इनकी पसंद का यारों, फिर ये श्राद्ध खाने भी नहीं आएंगे। - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।
Comments
Post a Comment