भगवान श्री वामन का प्राकट्य
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी, जिसे कि भगवान श्री विष्णु जी के वामन अवतार लिए जाने के कारण वामन द्वादशी के रूप में मनाया जाता है। त्रेता युग के प्रारम्भिक कालावधि में भगवान श्री हरि विष्णु जी प्रजापति कश्यप एवं माता अदिति के पुत्र के रूप में अवतरित हुवे भगवान श्री वामन भगवान विष्णु जी के पहले ऐसे अवतार रहे जो कि मानव रूप में प्रकट हुवे। दक्षिण भारत में इन्हें उपेन्द्र के नाम से जाना जाता है। इनके बड़े भाई विवस्वान, इन्द्र, वरुण, पूषा, अर्यमा, भग, धाता, पर्जन्य, अंशुमान, त्वष्टा और मित्र थे। इस 145 वें पुष्प को उन्हीं भगवान श्री वामन को समर्पित। ब्रह्मचारी बालक का वेष धारण किये हुवे मेखला, मृगचर्म, दण्ड, कमंडल एवं छत्र इत्यादि से सुशोभित हो रहे भगवान श्री वामन की इन्द्रादि समस्त देवताओं ने दर्शन कर महर्षियों के साथ स्तुति की -पीताम्बरोत्तरीयोऽसौ, मौञ्जीकौपीन- धृग्धरि:। कमण्डलुं च दध्यन्नं, दण्डं छत्रं करैर्दधत्।यज्ञोपवीती नीलाभो, ध्यातव्यश्छद्मवामन:॥ अर्थात हम नीली आभा से शोभायमान वामन का रूप धारण करने वाले भगवान श्री विष्णुजी का ध्यान करते हैं जो उत्तरीयरूप में पीताम्बर धारण किये हुए है, जो मौञ्जी-कौपीन धारण किये हुवे हैं तथा जिनके हाथों में कमण्डल, अन्न ग्रहण करने का पात्र, दण्ड एवं छत्र है।
हिरण्यकश्यपु के पुत्र भक्त प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ था।दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे।इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था।इस प्रकार राजा बलि समस्त त्रिलोकी पर राज्य करते थे। इंद्रादिक देवता दासभाव से उनकी सेवा में खड़े रहते थे। राजा बलि परम भक्त तो थे किन्तु उन्हें अपने बल का अभिमान भी था, और जब अभिमान आ जाय तो भले ही कितना भी बड़ा भक्त हो सारी भक्ति व्यर्थ हो जाती है। तब महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित देखकर तप किया और भगवान श्री विष्णु जी से बलि को मायापूर्वक परास्त करके इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान करने का वरदान माँगा। तदन्तर एक हजार वर्ष उपरांत महर्षि कश्यप की भार्या अदिति के गर्भ से वामनरूपधारी भगवान श्री विष्णु जी प्रकट हुवे।
उसके पश्चात जब देवता उनके दर्शन के लिए उपस्थित हुवे और स्तुति की तो भगवान श्री वामन प्रसन्न होकर बोले हे देवगण बताइये मुझे क्या करना है? तब देवताओं ने कहा कि प्रभु इस समय राजा बलि के यहाँ यज्ञ हो रहा है और ऐसे अवसर पर वे कुछ भी देने से इंकार नहीं करेंगे, इसलिए आप दैत्यराज बलि से तीनों लोक प्राप्त कर देवराज इन्द्र को प्रदान करने की कृपा करें। देवगण की ईच्छा जान भगवान श्री वामन यज्ञशाला में महर्षियों के साथ बैठे राजा बलि के पास पहुँचे। ब्रह्मचारी को आया देखकर दैत्यराज सहसा उठकर खड़े हो गए और मुस्कुराते हुवे उनका स्वागत कर उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया और उनके चरणों में प्रणाम करके बोले आप साक्षात् विष्णु भगवान ही यहाँ पधारे हैं आपकी पूजन और दर्शन से मेरा जीवन सफल हो गया, कृपया आदेश करें कि आप यहाँ किस प्रयोजन से पधारे हैं, मैं अवश्य आपके प्रयोजन को पूर्ण करूँगा। तब भगवान श्री वामन जी बोले महाराज भूमिदान समस्त दानों में श्रेष्ठ है, अतः आप मुझे तीन पग भूमि का दान कीजिये।
भगवान श्री वामन जी के वचन सुनकर राजा बलि सहर्ष भूमिदान हेतु तत्पर हो गये, उन्हें ऐसा करते देखकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य जी बोले राजन ये साक्षात परमेश्वर विष्णु जी हैं और देवताओं की प्रार्थना पर यहाँ तुम्हारा सबकुछ लेने आये हैं, इसलिए इन्हें भूमि नहीं देकर कुछ और वस्तु दे दो। अपने गुरु के वचन सुनकर राजा बलि हँसते हुवे बोले गुरुदेव मैंने सारा पुण्यकर्म भगवान वासुदेव जी की प्रसन्नता के लिए ही किया है और जब वे स्वयं ही यहाँ पधारे हैं तब तो मैं धन्य हो गया और इन ब्रह्मदेव को तीनों लोक का दान करने में भी मुझे कोई संकोच नहीं होगा। उसके पश्चात राजा बलि ने भक्तिपूर्वक भगवान श्री वामनजी के चरण पखारे और अपने हाथ में जल लेकर विधिपूर्वक भूमिदान का संकल्प कर दान देकर नमस्कार किया दक्षिणा प्रदान कर कहा कि आप अपनी इच्छानुसार भूमि ग्रहण करें। तब श्री वामन भगवान बोले राजन अब मैं तुम्हारे सामने ही भूमि को नापता हूँ, ऐसा कहकर उन्होंने विराट रूप धारण कर लिया। देवताओं के हितार्थ भगवान का यह विराट स्वरुप महान तेजस्वी रूप था, भगवान वामन द्वारा राजा बलि को दिव्यदृष्टि प्रदान कर अपने विराट स्वरुप का दर्शन कराया।
भगवान श्री वामन द्वारा विराट स्वरुप धारण कर समस्त पर्वत, समुद्र, द्वीप, देवता, असुर और मनुष्यों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने एक ही पैर से नाप लिया और भगवान का वह पग सारी पृथ्वी को भी लांघकर सौ योजन तक आगे बढ़ गया तब उन्होंने दैत्यराज से पूछा राजन अब क्या करुँ, उस समय विराट स्वरुप के दर्शन से राजा बलि के हर्ष की सीमा नहीं रही उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उन्होंने नमन कर स्तुति की और बोले परमेश्वर मैं आपके दर्शन करके धन्य हो गया अब आप ही इन तीनो लोकों को ग्रहण करें। तब भगवान ने अपने द्वितीय पग को नापने के लिए ऊपर की ओर आगे बढ़ाया तो वह पग नक्षत्र, ग्रह और देवलोक को लांघते हुवे ब्रह्मलोक के अंत तक पहुँच गया उस समय पितामह ब्रह्माजी ने भगवान के श्री चरणों को देखकर हर्षपूर्वक अपने आप को धन्य मानते हुवे अपने कमण्डलु के जल से भक्तिपूर्वक भगवान के श्री चरणों को पखारा तो भगवान श्री विष्णुजी के प्रभाव से वह चरणोदक अक्षय हो गया और यह निर्मल जल मेरुपर्वत के शिखर पर गिरकर समस्त जगत को पावन करने के लिए चारो दिशाओं में बह चला।
मेरुपर्वत के शिखर से बहने वाली ये चारों धाराएँ सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा के नाम से प्रसिद्द हुई। इनमें से अलकनन्दा तीन धाराओं में विभक्त होने से त्रिपथगा और त्रिस्रोता भी कहलाई तथा लोकपावनी गंगा भी कहलाई। तीनों लोक में श्री गंगा जी ऊपर स्वर्गलोक में मंदाकिनी, नीचे पाताललोक में भोगवती तथा मध्य अर्थात मृत्युलोक में वेगवती गंगा कहलाई। तदन्तर राजा भागीरथ तथा महातपस्वी गौतम ऋषि द्वारा तपस्या करके तथा शिवजी को प्रसन्न करके श्री गंगाजी को पृथ्वी पर लाने का प्रयास किया गया तब शिवजी ने समस्त विश्व के कल्याण हेतु उन दोनों की इच्छापूर्ति मेँ सहयोग कर गंगाजी को पृथ्वी पर पहुँचाया, महर्षि गौतम द्वारा लाई गंगाजी गौतमी और गोदावरी कहलाई तथा भगीरथ जी द्वारा लाई गंगाजी भागीरथी गंगा कहलाई।
भगवान श्री वामन जी ने जब अपना तीसरा पग नापना चाहा तो कुछ शेष नहीं रहा तब उन्होंने राजा बलि से पूछा दैत्यराज तीसरा पग कहाँ रखूँ, तब बलि उनके सन्मुख हाथ जोड़कर बोले प्रभु यह पग मेरे मस्तक पर रख दीजिये। भगवान श्री वामन जी ने भी यही किया और बलि के मस्तक पर तृतीय पग रखते ही वह धरती में समाते हुवे पाताललोक को चले गए। तदन्तर भक्तवत्सल भगवान श्री वामन द्वारा दैत्यराज बलि को रसातल का उत्तम लोक प्रदान किया गया और उन्हें समस्त दानवों, नागों, तथा जल तंतुओं का कल्पभर के लिए राजा बना दिया साथ ही भगवान ने राजा बलि को यह वरदान भी दिया कि चातुर्मास में उनका एक स्वरुप तो क्षीरसागर में शयन करेगा किन्तु दूसरा स्वरुप राजा बलि के द्वार पर पहरा देगा। राजा बलि से तीनों लोक लेकर भगवान श्री वामनजी ने सबकुछ देवराज इंद्र को प्रदान कर दिया तब समस्त देवताओं ने उनका स्तवन कर उनका पूजन किया उसके बाद भगवान श्री वामनजी अंतर्धान हो गए।
हे प्रभु यदि राजा बलि चाहते तो अपने गुरु की बात को मानकर तीन पग भूमि नहीं देते किन्तु उन्होंने भक्ति-दान-धर्म के मार्ग से हटकर आपके विराट स्वरुप के दर्शन पाकर अपने जीवन को धन्य किया आपने वामनरूप में राजा बलि से तीनों लोकों का राजपाट छीनकर देवराज इन्द्र को दे दिया, आपने अपने पग बढ़ाकर राजा बलि को छलने की लीला की तथा अपने चरणोदक के जल से समस्त जगत को पावन किया ऐसे आप मायामय वामनरूपधारी और लक्ष्मीजी को ह्रदय में धारण करने वाले जगत्पति श्री हरि विष्णुजी आपकी सदा जय हो, आपको नमस्कार है। धन्य है राजा बलि जो आपके इस स्वरुप का दर्शन कर सके और हम भी धन्य हैं जो हमने आपके प्राकट्य दिवस के दिन आपके स्वरूप के इस वर्णन के माध्यम से आपके दर्शन का अनुभव किया, प्रभु आपको कोटि कोटि दण्डवत प्रणाम - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।
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