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Showing posts from July, 2021

गुरुदेव श्री अर्जुन देव जी

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सिख संप्रदाय के पंचम गुरुदेव श्री गुरुदेव अर्जुनदेव जी का जन्म गोइंदवाल साहिब में हुआ था।  चतुर्थ गुरुदेव श्री रामदास जी और बीबी भानी जी के छोटे सुपुत्र गुरु अर्जुनदेव जी का विवाह गंगादेवीजी के साथ संपन्न हुआ था।  पिता श्री गुरुदेव रामदास जी ने अर्जुनदेव जी को सर्वगुण संपन्न देखकर १८ वर्ष की आयु में ही गुरुगादी सौंप दी थी। गुरुदेव श्री अर्जुनदेव जी अत्यंत ही शांत और गंभीर स्वाभाव के स्वामी थे और दिन रात संगत सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह स्नेह था, उन्होंने मानव कल्याण के लिए आजीवन कार्य किया। शहीदों के सरताज और शान्तिपुंज गुरुदेव श्री अर्जुनदेव जी को आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उन्होंने ही धर्म कार्यों के लिए सिखों की कमाई से दशमांश की मर्यादा निर्धारित की थी। 

राजा भोज और सिंहासन बत्तीसी का प्रसंग

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परम पराक्रमी , बलशाली , अति न्यायप्रिय और बुद्धिमान राजा   चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के न्याय से प्रभावित और प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उन्हें बत्तीस पुतलियों से युक्त उत्तम सिंहासन भेंट किया था , इस रहस्यमयी सिंहासन का क्या हुआ यह तो कोई भी नहीं जानता किन्तु ऐसा कहा जाता है कि यह सिंहासन ग्यारह सौ वर्षों के बाद उन्हीं के वंशज राजा भोज को मिला था। तब तक तो इतिहास भी बदल गया था और इस सिंहासन के मिलने के बाद राजा भोज द्वारा सिंहासन पर बैठने की इच्छा के परिणामस्वरूप ही सिंहासन की  बत्तीस   पुतलियों में से प्रत्येक ने चक्रवर्ती  सम्राट   विक्रमादित्य के बल, पराक्रम, महानता, न्याय और बुद्धिमानी की कथाएँ राजा भोज को सुनाई थी। वे ही बत्तीस कथाएँ सिंहासन बत्तीसी के नाम से जगप्रसिद्ध हुई। 

श्री जगन्नाथ धाम और रथ यात्रा

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भगवान विष्णु के पावन धाम और सनातन धर्म के धार्मिक श्रद्धा के स्थापित प्रमुख केंद्र जिन्हें हम लोग चार धाम के नाम से जानते हैं, उनमें से एक धाम है श्री जगन्नाथ धाम। जगन्नाथ धाम जोकि श्री हरि विष्णु जी के अवतार श्री कृष्ण जी का स्थान होकर भारतवर्ष के उड़ीसा राज्य में सागर की तटवर्ती पुरी नगरी में स्थित है, जहाँ जगत के स्वामी श्री जगन्नाथ भगवान (श्री कृष्णजी) विराजमान हैं और उन्हीं के नाम से यह स्थान जगन्नाथ पुरी कहलाया गया है। श्री जगन्नाथ धाम में भगवान श्री जगन्नाथ जी के साथ उनके बड़े भ्राता श्री बलभद्र जी और भगिनी सुभद्रा जी भी विराजमान हैं। भगवान श्री विष्णु जी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने चारों दिशाओं में बसे हुए अपने चारों धाम की यात्रा करते हैं तो यात्रा के उस क्रम में वे उत्तर दिशा स्थित हिमालय की ऊँची चोटियों पर विध्यमान अपने धाम बद्रीनाथ धाम में स्नान करते हैं उसके बाद पश्चिम दिशा स्थित गुजरात की द्वारिका नगरी में वस्त्र धारण करते हैं। यात्रा के अगले क्रम में वे पूर्व दिशा में स्थित जगन्नाथ पुरी धाम में भोजन ग्रहण करने के पश्चात् दक्षिण दिशा में स्थित रामेश्वरम धाम में जाकर ...

चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य और उनके नवरत्न

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इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य का नाम सर्वविदित है तो उनका शासनकाल भी इतिहास में स्वर्णिम युग के रूप में ही माना जाता है। अत्यंत ही न्यायप्रिय, प्रजापालक,  पराक्रमी, बलशाली और बुद्धिमान  राजा रहे चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य अपनी प्रजा का अपनी संतान की भांति ध्यान रखते थे। अपनी प्रजा के कल्याण और विकास के लिए हरसंभव प्रयास वे करते ही रहते थे, अपने शासनकाल में प्रजा के हितों को दृष्टिगत रखते हुए हर क्षेत्र में कल्याणकारी कार्य तत्काल किये जाने की व्यवस्थाऍ उन्होंने की थी। प्रजा के कल्याण और सुविधाओं की व्यवस्था में किसी प्रकार का कोई अवरोध उत्पन्न न हो इसलिए उन्होंने हर क्षेत्र के विशेषज्ञ अपने दरबार में नियुक्त किये थे, जिनसे समय समय पर सलाह लेकर कल्याणकारी कार्य संपन्न किये जाते थे। 

चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य

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  चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य के जन्म को लेकर इतिहासकारों के मध्य कई मतभेद हैं फिर भी इस प्रकार की मान्यता है कि उनका जन्म करीब 2300 वर्ष पूर्व हुवा था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे।गंधर्वसेन को महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था, इनकी पांच पत्नियाँ मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी थी। रानी मदनलेखा को वीरमति और सौम्यदर्शना भी कहा जाता था, जोकि विक्रमादित्य की माता थी। विक्रमादित्य के भृतहरि, शंख एवं अन्य  भाई के अलावा एक बहन मैनावती भी थी। मैनावती का विवाह धारानगरी के राजा पद्मसेन के साथ हुआ था मैनावती का पुत्र गोपीचंद था जिन दोनों माता पुत्र ने योग दीक्षा ले ली थी। सम्राट वीर विक्रमादित्य का जन्म लगभग 101 ईसा पूर्व हुवा था,  जिन्होंने भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी  के राजसिंहासन पर  बैठकर करीब 100 सालों तक राज किया। राजा  विक्रमादित्य बड़े ही पराक्रमी थे साथ  ही वे अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्द थे, उनके दरबार के नवरत्न भी उनकी शान थे।सम्राट विक्रमा...