गणगौर महोत्सव

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिननंदन। सनातन धर्म में प्रत्येक प्रथा के पीछे कोई न कोई सन्देश है, कोई कहानी है, कोई आस्था है,  अथवा कोई भावना समाहित है।  कुछ इसी प्रकार से होलिका दहन के बाद मनाया जाने वाला पर्व गणगौर का है।  गणगौर का त्यौहार भगवान शिवजी और माता पार्वती को समर्पित होकर शक्ति, वीरता और वैवाहिक निष्ठाओं का प्रतीक है। विवाहित महिलायें अपने जीवनसाथी के दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए इस पर्व को मनाती हैं, तो अविवाहित बेटियां श्रेष्ठ एवं अनुकूल जीवनसाथी की प्राप्ति की अभिलाषा हेतु इस पर्व को मनाती हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश के विशेषकर मालवा निमाड़ क्षेत्र, बुंदेलखंड के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी काफी धूमधाम से मनाया जाता है। गुजरात, महाराष्ट्र में चैत्र गौरी के रूप में, उत्तरी कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सौभाग्य गौरी के नाम से और पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्रों में भी यह पर्व मनाया जाता है।  सनातन धर्म की संस्कृति के साथ ही पति पत्नी के पारस्परिक प्रेम और विवाहित महिलाओं की अपने पति के प्रति भक्ति को व्यक्त करने वाले इस आनंददायक पर्व गणगौर पर आधारित यह हमारा यह 154 वाँ आलेख गणगौर माता को समर्पित है।  
होलिका दहन के  दूसरे दिन अर्थात चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तक करीव 18 दिनों तक चलने वाला पर्व है, गणगौर पर्व। इस पर्व से संबंधित कई लोक कथाएं भी प्रचलन में हैं। ऐसी  मन्यता है कि होली के दूसरे दिन माता गौरजा अपने पीहर आती हैं और उसके बाद उन्हें लिवाने पति ईशर जी की बड़ी बहन और जीजाजी आते हैं, जिन्हें लौटा दिया जाता है फिर पश्चात् में स्वयं ईशर जी अपनी पत्नी को लिवाने आते हैं, उसी प्रसंग को इस पर्व के माध्यम से आनन्दपूर्वक हंसी ठिठोली के साथ हर्षोल्लास से मनाया जाता है। गणगौर की पूजा पद्धति और उसमें गाए जाने वाले गीत इस अनोखे पर्व को और भी अधिक सुन्दर एवं मनमोहक बना देते हैं। होली के दूसरे दिन से प्रारम्भ होने वाले इस पर्व में अविवाहित बेटियाँ 16 दिन पूजन करती हैं, तो नवविवहित बेटियाँ पूरे 18 दिन पूजन करती हैं, इस सम्पूर्ण समयावधि में पूजन करने वाली साधिका एक समय भोजन करती हैं। चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की तीज को कई स्थानों पर गणगौर की सामुहिक पूजा और मेला भी लगता है।  विवाह के पश्चात पहली बार गणगौर नवविवहिता अपने मायके में ही करती होकर गुणों और सास के कपड़ो का बायना उसके ससुराल भेजा जाता है, बाद में प्रतिवर्ष गणगौर पर्व वह अपने ससुराल में ही मनाती है।     

गणगौर पर्व पर पूजन के लिए भगवान शिवजी और माता पार्वती स्वरूपा ईशर जी और माता गणगौर की मूर्तियाँ मिटटी से बनाई जाती है, तो कई लोग स्थाई रूप से लकड़ी की प्रतिमाएं बनवा लेते है, जिनपर समय समय पर रंग कर दिया जाता है तथा वस्त्रादि से सुसज्जित कर दिया जाता है। अक्षत, धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य आदि से विधिवत पंचोपचार से ईशर जी और माता गणगौर की पूजन की जाती है, विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग अर्पित किया जाता है। गणगौर माता के भोग में गुणे और चूरमे का विशेष महत्त्व होता है। पारम्परिक गीत गाकर हंसी ठिठोली के माहौल में कंकू, हल्दी, सिंदूर, मेहँदी, काजल अर्पित कर जल में दूर्वा डुबोकर पानी पिलाने की प्रक्रिया गौर गौर गणपति... के साथ संपन्न की जाती है। इसी पानी पिलाने की प्रक्रिया के समय सखियाँ आपस में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर पूजा से रोकने का प्रयास कर पूजा करने के लिए यह शर्त रखती है कि वे अपने पति का नाम बोले, चूँकि हमारे यहाँ पत्नी अपने पति का नाम नहीं लेती है किन्तु पूजा संपन्न करने की मंशा से वे दोहों के माध्यम से अपने अपने पतियों के नाम बताती हैं, इन दोहों से यह पूजन और भी अधिक मनमोहक बन जाता है। 

चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की तीज के दिन गणगौर के पूजन उपरांत  सभी महिलायें एकत्र होकर ईशर जी और माता गणगौर के स्वरुप की प्रतिमाओं को अपने सिर पर रखकर जुलूस के रूप में धूमधाम से बाजे गाजे ढोल ताशों के साथ गीत नृत्य करते हुवे बाग बगीचे, कुवे बावड़ी आदि पर भ्रमण के लिए ले जाते हैं, जहाँ सभी महिलाये हंसी मजाक और मस्ती भरे माहौल में इस पर्व का भरपूर आनन्द लेते हुवे गणगौर की बिदाई वाले गीत गाकर गणगौर की बिदाई की प्रक्रिया की ओर अग्रसर होते हुवे उस जुलुस को वापस लाती हैं।  इसी दिन भोजन प्रसादी का भी आयोजन अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार आयोजकों द्वारा किया जाता है तो कई जगहों पर इस अंतिम दिन भंडारे का भी आयोजन होता है तथा अगले दिन माता की बिदाई के साथ ही यह पर्व पूर्ण हो जाता है। महिलायें अपने अखंड सौभाग्य के लिए, अपने पीहर की समृद्धता के लिए, तीर्थयात्रियों की सकुशलता के लिए गणगौर माता से प्रार्थना कर उन्हें पुनः पधारने का आग्रह करती हैं।  

राजस्थान में वैसे तो गणगौर पर्व काफी हर्षोल्लास के साथ मानते हैं, जयपुर में बड़े भव्य तरीके से इस पर्व को मनाया  जाता है, पर्व के दिन स्थानीय अवकाश भी होता है। नाथद्वारा में लगातार सात दिन तक गणगौर माता की सवारी निकाली जाती है। राजस्थान के मारवाड़ में सांस्कृतिक धरोहर के रूप में प्रतिवर्ष इस पर्व को मनाया जाता है, जिसमें विवाहित महिलायें गणगौर की पूजन गणगौर के गीतों की गूंज के साथ ही घुड़ला परम्परा का भी निर्वाह करती दिखाई देती हैं। ऐसा कहा जाता है कि वर्षो पहले गणगौर पूजन के समय घुड़ले खां नामक एक आतताई तीजणियों को उठाकर के गया था, तब राव सातल जी ने घुड़ले खां का पीछा कर युद्ध किया और घुड़ले खां का सिर धड़ से पृथक कर दिया था। उस समय आक्रोशित तीजणियां घुड़ले खां के सिर को लेकर घर घर घूमी थी। होली के बाद अष्टमी के दिन घुड़ला पूजन की परम्परा है। एक प्रकार के मिट्टी के बर्तन, जिनको घुड़लिया कहते है उनमें चारों ओर कई छेद होते हैं, उसके अंदर एक दीपक रखकर जलाया जाता है, फिर अविवाहित बच्चियाँ उसे अपने सिर पर रखकर घुड़लिया के गीत गाती हुई घर घर घूमती हैं। इस भ्रमण के रास्ते में उन्हें नकदी, मिठाई, गुड़, घी, तेल सहित काफी सामग्री उपहार में मिलती है, यह प्रक्रिया 10 दिनों तक चलती है। इस प्रक्रिया के अंत में वे बच्चियाँ उन घुड़लों को तोड़कर उन टुकडों को कुवे-बावड़ी में फेंक देती है तथा उपहार में प्राप्त सामग्री से भोजन तैयार कर भोजन पा लेती हैं।   

निमाड़ में गणगौर माता को लोकमाताओं की माता के रूप में पूजने की परम्परा है। निमाड़ में त्यौहारों का शुभारम्भ लोकपर्व जिरौती से होता है तथा समापन गणगौर पर होता है।  गणगौर का पर्व देवीपूजन के साथ साथ  बहू बेटियों का भी विशेष पर्व है। निमाड़ में चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन से यह पर्व प्रारम्भ होता है।  सम्पूर्ण निमाड़ में गणगौर माता को सर्वोच्च सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त है।  गणगौर पर्व निमाड़ में अत्यंत ही उमंग और हर्षोल्लास  के साथ मनाया जाता है।  निमाड़ में गणगौर माता को पावणी लाने की भी परम्परा है, जिन घरों में माता को पावणी लाते हैं वहाँ पहले से ही तैयारी प्रारम्भ हो जाती है।  घरों में साफ सफाई, लिपाई, पुताई कर मांडणो से घरों  को सजाया जाता है।  गणगौर माता का अनुष्ठान चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन से प्रारम्भ होकर चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी तक चलता है।  माता की मूठ  रखी जाती है अर्थात बांस की छोटी छोटी टोकरियों में गेहूँ के ज्वारे बोकर माता की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है तथा तीज के दिन प्रातःकाल को सार्वजानिक रूप से दर्शन खोले जाते हैं। शेष पूजा से विसर्जन तक की प्रक्रिया सामान ही होती है। लोकमाताओं की माता गणगौर माता के पर्व के अवसर पर माता को दंडवत प्रणाम - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।   

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