श्री शीतला माता सप्तमी/अष्टमी
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी एवं अष्टमी तिथि को की जाने वाली शीतला माता की उपासना आदिकाल से ही हमारे देश में की जाती रही है, शीतला माता की उपासना स्वच्छता और पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टी से प्रासंगिक है। हमारा यह 153 वां आलेख श्री शीतला माता जी के श्री चरणों में समर्पित है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार स्वच्छ्ता की अधिष्ठात्री देवी शीतला माता का पूजन चेचक, खसरा आदि रोगों के प्रकोप से सुरक्षार्थ किया जाता रहा है। शीतला माता की उपासना से हमें यह सन्देश मिलता है कि हमें संक्रमण और बीमारियों से बचना है तो हमें अपने आसपास की स्वच्छता को बनाये रखना है, साथ ही हमें पर्यावरण की भी सुरक्षा करनी होगी। ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ के समय शीतला माता की उपासना का यह पर्व धार्मिक, दृष्टी से तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है। होली के बाद सातवें और आठवें दिन पति और संतान की सुरक्षा और निरोगी काया के लिए महिलाएं यह उपासना करती हैं। केवल यही एक ऐसा पर्व है जिसमें माता जी को एक दिन पहले बने हुए ठण्डे बासी भोजन का भोग लगाया जाता है।
स्कन्द पुराण में वर्णन अनुसार शीतला माता का स्वरुप गर्दभ (गधे) पर विराजित माता जी का है, जिन्होंने अपने हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाड़ू) और नीम की पत्तियाँ धारण किये हुवे हैं। ऐसी मान्यता है कि ज्वर एवं चेचक के रोगियों की समस्त परेशानी माता हर लेती हैं। सूप से रोगी को हवा की जाती है, तो झाड़ू से चेचक के फोड़े फूट जाते हैं, वहीं नीम के पत्तों से फोड़ों के दर्द से आराम मिलता है। सनातन धर्म के रीति रिवाज एवं परम्परानुसार की जाने वाली इस उपासना से बच्चों को निरोगी रहने का आशीर्वाद प्राप्त होने की भी मान्यता है, बच्चों को बुखार, खसरा, चेचक एवं आँखों के रोगों से सुरक्षा मिलती है। माता को बासी भोजन का भोग लगाने के पीछे भी यह सन्देश है कि अब पुरे गर्मी के मौसम में ठण्डा बासी भोजन नहीं करना है। ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में ठण्डक प्रदान करने वाली शीतला माता की उपासना करने के पीछे यह मान्यता भी है कि ग्रीष्मकाल में हमारे शरीर में शीतलता बनी रहे और रोगों से बचाव हो सके।
शीतला माता का पूजन मालवा, निमाड़ सहित सम्पूर्ण मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र में किया जाता है, उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों पर यह पूजन भाद्रपद मास में संपन्न किया जाता है। इस दिन कुछ परिवार में केवल पूजन करने की परम्परा है, तो कुछ परिवारों में व्रत भी रखा जाता है। शीतला माता के इस बसौड़ा नामक पर्व को अपनी पारम्परिक प्रथानुसार सप्तमी तिथि या अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। पूजन के एक दिन पहले रात्रि में माताजी के भोग का भोजन बनाया जाता है, पृथक पृथक स्थानों पर पृथक पृथक भोज्य सामग्री तैयार की जाती है तथा अगले दिन प्रातः जल्दी उठकर स्नानदि से निवृत्त होकर सूर्योदय के पूर्व माताजी का पूजन करने की परम्परा है। पूजन के उपरांत शीतला माता की कथा का श्रवण भी किया जाता है। शीतला माता अग्नि तत्व से विरोधाभास रखती होने के कारण इस दिन घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता है, भोजन को गर्म भी नहीं किया जाता है। इस दिन अग्नि का उपयोग नहीं किया जाता है, पूजन में दीपक भी बगैर जलाये ही रखा जाता है।
माता पार्वती स्वरूपा शीतला माता की अर्चना के स्त्रोत का वर्णन शीतलाष्टक के रूप में स्कन्द पुराण में प्राप्त होता है, जिसके बारे में मान्यता है कि स्त्रोत की रचना स्वयं देवाधिदेव महादेव जी ने की थी। शीतला माता की वंदना के रूप में "वंदेहं शीतलांदेवीं रासभस्थां दिगंबराम। मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृत मस्तकाम।। अर्थात हम शीतला माता की वंदना करते हैं, जो गधे पर विराजमान हैं, दिगंबरा हैं। जिनके एक हाथ में झाड़ू और दूसरे हाथ में कलश धारण किये हुवे हैं, सूप और नीम पत्तों से अलंकारित माता शीतला की हम वंदना करते हैं। शीतला माता स्वस्थ एवं स्वच्छ वातावरण को पसंद करती हैं। माता के हाथ में झाड़ू होने का अभिप्राय है कि प्रत्येक जन को साफ सफाई के प्रति सदैव सतर्क रहना चाहिए। झाड़ू से अलक्ष्मी एवं दरिद्रता भी दूर होती है। माता अपने हाथ में कलश में शीतल पेय, रोगाणुनाशक जल और दाल के दाने रखती है, स्वस्थ एवं स्वच्छ वातावरण से घर परिवार में कलश रूपी सुख समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का बसेरा हो, हमारा मन श्रद्धा, तरलता, संवेदना एवं सरलता से परिपूर्ण रहे तथा क्रोध, लोभ, मोह-माया, ईर्ष्या और घृणा आदि कुत्सित भावनाओं से सदैव दूर रहे।
शीतला माता जी के पूजन उपरांत पथवारी के रूप में रास्ते के पत्थर को भी देवी रूप में पूजने की परम्परा है, जिसके बारे में मान्यता है कि पथवारी देवी भक्तों को रास्ते में सुरक्षित रखकर पथभ्रष्ट होने से बचाती है तथा संकटों से मुक्ति प्रदान करती है। शीतला माता और पथवारी के पूजन पश्चात् शीतलता के लिए होली पूजन करने की भी परम्परा है, जिसे महिलाओं द्वारा पारम्परिक रूप से परिवार की सम्पन्नता, परिवारजन के मान सम्मान की वृद्धि तथा प्राकतिक आपदाओं से सुरक्षा के लिए विधिवत सम्पन्न किया जाता है। शीतला माता जी की पूजन का मुख्य उद्देश्य यह है कि हमें अपनी दैनिक जीवनशैली में स्वच्छता और सादगी को अपनाना चहिये ताकि हम शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और सुखी रहें। गंभीर बीमारियों से हमारी रक्षा करने वाली, आरोग्यता का वरदान प्रदान करने वाली तथा शीतलता प्रदान करने वाली श्री शीतला माता को बारम्बार दंडवत प्रणाम एवं शीतला सप्तमी के पावन अवसर पर समस्त सनातन धर्मप्रेमीजन को जय माता दी - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर।
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