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Showing posts from January, 2023

श्री रामचरित मानस - कौन जीवित व्यक्ति है मृतक समान

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मृत्यु एक शास्वत सत्य है, जो इस संसार में आया है उसे एक न एक दिन जाना है, किन्तु कई लोग इस प्रकार के होते हैं, जो मरने के बाद भी अमर हो जाते हैं लोग उनका नाम भूलते नहीं उनके जीवन को आदर्श मानकर उपदेशों में भी उनके जीवन का दृष्टांत बताते हैं, तो कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी पहचान उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाया करती है किन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो जीवित होते हुवे भी मृतक समान माने जाते हैं। श्री रामचरित मानस में भी ऐसे लोगों का उल्लेख लंका काण्ड में राम रावण युद्ध के समय अंगद - रावण संवाद में आया है जब अंगद ने लंकापति रावण से कहा है कि हे रावण तुम तो मरे हुवे हो और मरे हुवे को मारने से क्या फायदा। तब लंकापति रावण ने पूछा कि मैं जीवित हूँ, मुझे किस आधार पर मरा हुआ बता रहे हो तो अंगद बोले कि केवल श्वांस लेने वाले को ही जीवित नहीं कहते, श्वांस तो लौहार की धौंकनी भी लिया करती है इंसान के कर्म और उसकी स्थिति ही निर्धारित करती है कि उसे जीवित माना जाय या मृतक। 

दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले

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दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले के नाम से हमारे देश में कई लोग अपरिचित होंगे, स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे क्रांतिकारी हैं जो कि गुमनामी के अंधेरों में गुम हो चुके है, उन्हीं में से एक नाम है दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले का।  सन 1723 में सेठ फतेहचंद जी को तत्कालीन बादशाह ने जगत सेठ की उपाधि प्रदान की थी, तब से ही वह सम्पूर्ण घराना जगत सेठ के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। दानवीर क्रांतिकारी सेठ रामदास जी गुड़वाले के पिता सेठ मानिकचंद जी इस घराने के संस्थापक थे। सेठ मानिकचंद जी ने 17 वीं शताब्दी में राजस्थान के नागौर जिले के एक मारवाड़ी परिवार में हीरानंद जी साहू के घर जन्म लिया था।  हीरानंद जी साहू ने अपने व्यवसाय हेतु बिहार का चयन करते हुवे उन्होंने अपना व्यवसाय का विस्तार बिहार, बंगाल, दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई प्रमुख बड़े शहरों तक किया। यह घराना उस समय का सबसे धनवान बैंकर घराना माना जाता था,  इन घरानों की सम्पन्नता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय ब्रिटिश की सभी बैंकों से भी अधिक पैसा इन जगत सेठों के पास हुआ करता था और समय समय पर ये...

ठाकुर जी की दर्पण सेवा

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 एक गांव में एक वृद्ध माताजी अपने घर में श्यामसुंदर जी की बड़ी सेवा किया करती थी। वे प्रातः जल्दी उठकर अपने ठाकुरजी को बड़े ही प्यार, दुलार और मनुहार करके उठाती, उसके बाद उन्हें स्नान कराकर, उनका श्रृंगार करत्ती और श्रृंगार के बाद ठाकुरजी को दर्पण में उनका श्रृंगार दिखाकर ही उन्हें भोग लगाती थी। इस प्रकार वे वृद्ध माताजी नित्य अपने ठाकुरजी की सेवा में लीन रहते हुवे अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। एक बार उन माताजी को एक माह की लम्बी यात्रा पर जाने का अवसर आया तो सवाल ठाकुरजी की सेवा का सामने आया। तब उन वृद्ध माताजी ने जाने के पहले ठाकुरजी की सेवा अपनी पुत्रवधु को सौंपते हुवे समझा रही थी कि ठाकुरजी की सेवा में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रखना, उनको श्रृंगार के बाद दर्पण अवश्य दिखाना और श्रृंगार इतना अच्छा करना कि ठाकुरजी मुस्कुरा दे।