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Showing posts from August, 2020

गुरु श्री अंगद देव जी

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  परमपूज्य श्री गुरु नानक देव जी के पश्चात् सिखमत के द्वितीय गुरु श्री अंगद देव जी हुवे थे, जिन्हें द्वितीय नानक भी कहा जाता है। गुरुदेव अंगद देव जी का पूर्व नाम लहणा जी था। लहणा जी का जन्म पंजाब के फिरोजपुर के हरिके गांव में हुआ था।  भत्ते की सराह नामक स्थान इनका पैतृक स्थान कहा जाता है। गुरु अंगद देव जी के पिता फेरुमल जी खत्री और माता दया कुंवरि थे। लहणा जी का विवाह संघर गाँव निवासी देवीचंद जी खत्री की सुपुत्री बीबी खिबीजी के साथ संपन्न हुआ था। लहणा जी के दो पुत्र दासुजी और दातुजी तथा दो पुत्रियां बीबी अमरोजी और बीबी अनोखी जी थे।  मुग़ल शासक बाबर द्वारा हमले के समय भत्ते की सराह भी लूट ली गई होने के बाद लहणा जी ने भी अपना निवास स्थान भत्ते की सराह से हटा कर खडूर साहब को बना लिया था। पिता के देहांत के बाद पिता के समस्त कारोबार का भार और जिम्मा लहणा जी पर आ गया था किन्तु उन्होंने भी अपने पिता के उस कारोबार को बड़ी ही जिम्मेदारी से अच्छे तरीके से संभाल लिया था। उनकी ईमानदारी और सच्चाई के कारण सभी लोग उनका आदर करते थे और उन पर अटूट विश्वास भी करते थे। ...

भक्तराज केवट

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भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, भक्ति के कारण भगवान भी भक्त के अधीन हो जाते हैं।  भक्त के लिए भगवान अवतरित तो होते ही हैं साथ ही भक्त के मन के अनुरूप कार्य भी करते हैं। भक्त प्रह्लाद, बालक ध्रुव, भक्त नरसी मेहता, शबरी जैसे कई दृष्टांत हमारे शास्त्रों में मिलते हैं, उसी श्रृंखला में त्रेता युग के भक्त निषादराज केवट का भी नाम सर्वोपरि है। किसी भी रामकथा, भागवत कथा अथवा भगवत प्रसंग में भक्तराज केवट के नाम का स्मरण अवश्य ही होता है। भक्तराज केवट की भक्ति में तो इतनी शक्ति थी कि भगवान श्री राम जी को भी भक्त का आश्रय लेना पड़ा और भक्त के कहने के अनुसार कार्य भी करना पडा। भक्त और भगवान की  इस अद्भुत लीला वाला भजन भी काफी प्रचलित है कि  "कभी कभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े। ''  इस भजन में भक्त और भगवान  की लीला का इतना सुन्दर भाव मिलता है कि भगवान श्री राम जी को गंगा नदी के  पार जाना था जिसमे उन्हें केवट का सहयोग लेना था और केवट बगैर शर्त अपनी नाव उन्हें चढ़ाना नहीं चाहते थे।

दानवीर भामाशाह जी

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भारत देश के इतिहास में भामाशाह जी का नाम देश सेवा और मातृ भूमि के प्रति अगाध प्रेम के साथ ही दानवीरता के लिए आज भी अमर है।  राजस्थान के मेवाड़ राज्य में एक तेली परिवार में भामाशाह जी का जन्म हुवा था, इनके पिता भारमल जी को राणा सांगा द्वारा रणथम्बौर के किले का किलेदार नियुक्त किया था। भामाशाह जी बाल्यकाल से ही महाराणा प्रताप के मित्र और सहयोगी तो थे ही साथ ही वे उनके विश्वासपात्र सलाहकार भी रहे थे। संग्रहण की प्रकिया से खुद तो दूर रहते ही थे साथ ही लोगों को भी प्रेरित करने में भामाशाह जी अग्रणीय थे।  भामाशाह जी की निष्ठा, सहयोग और धन सम्पदा के  दान का महाराणा प्रताप के जीवन में काफी महत्वपूर्ण योगदान  रहा है। मातृभूमि की रक्षा में जब महाराणा प्रताप का सबकुछ धन आदि नहीं रहा तब भामाशाह जी ने अपनी सम्पूर्ण धन सम्पदा, जिसके बारे में बताया जाता है कि उस सम्पत्ति से 25 हजार सैनिकों का 11 वर्ष तक का खर्च पूरा किया जा सकता था, उन्हें अर्पित कर दी, और स्वयं भी महाराणा की सेवा में  आ गए।

मेवाड़ की हाड़ी रानी

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                           राजस्थान के मेवाड़ राज्य के महाराणा राज सिंह जी के सलूम्बर प्रान्त के सामंत थे  राव रतन सिंह   चूंडावत ।  चूंडावत खानदान अपनी बहादुरी, सेवाभाव और कर्तव्य निष्ठा के लिए आज भी जाना जाता है, हाड़ी रानी इसी चूंडावत परिवार में हुई थी।  उस समय भारत देश पर मुग़ल शासन रहा होकर औरंगज़ेब का शासन था, जिसके शासनकाल में हमारे देश के कई मंदिरों को तोड़ दिया गया और लाखो लोगों का नरसंहार कर दिया गया था। मुग़ल शासक औरंगज़ेब जिसने अपने भाइयों तक का क़त्ल  कर दिया था और अपने पिता को भी कैद कर दिया था, इतना क्रूर शासक भी मेवाड़  के महाराणा राज सिंह का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। औरंगज़ेब  के शासन में कई राजपूत ठिकानों  ने उसके खिलाफ विद्रोह किया था, जिनमे मेवाड़ के महाराणा राज सिंह भी थे।  महाराणा राज सिंह मुग़ल शासक औरंगज़ेब के बहुत बड़े दुश्मन थे।