भगवान श्री परशुरामजी

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन। हमारे धर्मग्रंथों में भगवान श्री नारायण के कई अवतारों का उल्लेख मिलता है किन्तु मुख्य रूप से दशावतार माने गए हैं, जोकि मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंग, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि। श्रीमद भगवद गीता में स्वयं भगवान द्वारा स्वीकार करते हुवे कहा गया है कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहम।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।  धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। अर्थात हे पार्थ जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब ही मैं अपने साकाररूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।  साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग युग में प्रकट हुआ करता हूँ। भगवान श्री परशुराम विष्णु भगवान के छठे अवतार अपने ओज और तेज के लिए विख्यात हैं, हमारा यह 156 वाँ लेख उन्हीं के श्री चरणों में अर्पित है।  चारों वेदों के ज्ञाता, धनुष बाण एवं परशु धारण करने वाले आतताइयों के संहारक के रूप में जाने जाते हैं, श्री परशुराम जी। भगवान श्री परशुराम एकमात्र ऐसे अवतारी हैं, जिन्होंने अकेले ही दुष्टों का एक बार नहीं पुरे इक्कीस बार समूल विनाश किया, जबकि श्री रामचंद्र जी के साथ वानर सेना थी, तो श्री कृष्ण जी के साथ यदुवंशी और पांडव थे। भगवान श्री परशुराम जी के अतिरिक्त अन्य सभी अवतार अपने अवतार के कार्यों को पूर्ण करके स्वधाम को चले गए जबकि भगवान श्री परशुरामजी आज भी चिरजीवी होकर विद्यमान हैं।     
भृगु वंश में अवतरित भगवान श्री परशुरामजी की वंशावली के बारे में हमारे धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि महर्षि भृगु के अन्य पुत्रों के अलावा एक पुत्र आप्नुवान, जिनके पुत्र ओर्व थे। ओर्व के पुत्र ऋचीक और इन्हीं ऋचीक के पुत्र थे जमदग्नि, जिनका विवाह रेणुका देवी के साथ संपन्न हुआ होकर इन्हीं के पाँचवे और सबसे कनिष्ठ पुत्र के रूप में अवतरित हुवे थे, भगवान श्री परशुराम जी। उसी काल में हैहयराजवंश में कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु का शासन था जोकि भगवान दत्तात्रय जी के अनन्य भक्त थे, जिनको भगवान दत्तात्रय जी द्वारा कई वरदान, शक्तियाँ और एक स्वर्ण विमान प्रदान किया हुआ था।  भगवान दत्तात्रय जी की कृपा और प्राप्त शक्तियों के मद में चूर अजेय सहस्त्रबाहु देवताओं, यक्ष, गन्धर्वो एवं ऋषि मुनियों पर काफी अत्याचार कर उन्हें प्रताड़ित करता था, तब सभी  देवता, यक्ष, गंधर्व और ऋषिगण देवराज इंद्र के साथ भगवान श्री विष्णु जी के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना की तब भगवान ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे शीघ्र ही स्वयं अवतरित होकर उसका संहार करेंगे तथा पृथ्वी को उसके अत्याचारों से मुक्त करेंगे। भगवान द्वारा अपने इसी वचन को पुरा करने के लिए बैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में परसुराम जी के रूप में अवतार लिया था। 

भगवान श्री परशुराम जी की जन्मस्थली के विषय में भी कई मतभेद हैं। एक मान्यता के अनुसार मध्य प्रदेश में जानापाव में इनकी जन्मस्थली बताई जाती है तो एक अन्य मान्यता उत्तर प्रदेश में वाराणसी के तुर्तीपार के निकट खैरागढ़ नामक स्थान पर बताई जाती है। कुछ मान्यता महेंद्र पर्वत की है, तो कुछ गुजरात के भड़ौंच की भी है। इसी प्रकार से उत्तरकाशी के पास यमुना नदी के तट पर गगनाणी को भी उनकी जन्मस्थली बताई जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पितृ भक्त परशुराम जी प्रतिदिन प्रातः अपने पिता के संध्या पूजन के लिए उत्तरकाशी से गंगाजल का कलश लाते थे, एक दिन उन्होंने विचार किया कि भागीरथी का जल यहाँ क्यों नहीं उपलब्ध हो सकता ? यह विचार कर उन्होंने गगनाणी में यमुना नदी के तट पर एक बाण मारा, जो पर्वत की तलहटी को चीरता हुआ करीब एक किलोमीटर दूर भागीरथी नदी के तट तक पहुंचा और उस सुरंगनुमा छिद्र से भागीरथी नदी का जल जमदग्नि ऋषि के आश्रम तक प्रवाहित होने लगा। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर में रेणुका घाटी और रेणुका झील है, जहाँ श्री परशुराम जी का तथा माता रेणुका का मंदिर है, श्री परशुराम जी की जन्मस्थली होने के बारे में इस स्थान की भी मान्यता है। कहा जाता है कि सहस्त्रबाहु का संहार करने के बाद श्री परशुराम जी महेंद्र पर्वत पर तप करने चले गए थे, तब माता रेणुका उनकी याद में दुखी होकर रोने लगी। तब भगवान परशुराम जी प्रकट हो गए और माता को वचन दिया कि वर्ष में एक बार माता के दर्शनार्थ यहाँ आते रहेंगे। तब से उनके यहाँ आने के समय अर्थात कार्तिक शुक्ल पक्ष की दशमी से पूर्णिमा तक यहाँ भव्य मेला लगता है।   

एक बार अपने पति ऋषि जमदग्नि के संध्या पूजन हेतु जल लेने के लिए माता रेणुका गई थी किन्तु उस समय वहाँ गंधर्व चित्ररथ अपनी प्रणयनीयों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे तब माता संकोचवश उनके लौटने की प्रतीक्षा करते हुवे वहॉ रुक गई तथा उन्हें देखकर भावावेश में भी आ गई। जब विलम्ब हुआ तो ऋषि उन्हें खोजने निकले किन्तु मार्ग में मिल जाने पर आश्रम वापस लौट आये। ऋषि द्वारा विलम्ब का कारण पूछने पर भावावेश में माता ने वहाँ की स्थिति बताने के साथ ही अपने भी विचार व्यक्त किये, जिसपर ऋषि कुपित हो गए। कुपित ऋषिवर ने एक एक करके अपने चारों  पुत्रों को आदेश दिया कि कुटिया में जाकर अपनी माता रेणुका का वध करो किन्तु चारों पुत्र कुटिया में तो गए किन्तु पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया तो ऋषि ने उन्हें भी श्राप देकर अचेत कर दिया।  परशुराम जी के आने के बाद पिता ने उन्हें आज्ञा दी कि तुम्हारी माता ने मर्यादा का हनन किया है इसलिए उनका वध कर दो। पिता की आज्ञा का पालन करते हुवे परशुराम जी ने कुटिया में प्रवेश किया और क्षण भर में माता का मस्तक पृथक कर दिया तथा उसके बाद प्रायश्चित स्वरुप अपना मस्तक काटने को उद्धत हो गए तो पिता ने उन्हें रोक दिया। ऋषि बोले पुत्र मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ मांगों क्या वरदान चाहते हो ? तब परशुराम जी बोले यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरी माता पुनः जीवित हो जाय, उन्हें मेरे द्वारा किये गए उनके वध की स्मृति न रहे , मुझे माता वध का पाप स्पर्श न करे, मेरे चारों भाई पूर्व की स्थिति में आ जाये और युद्ध में मुझे कोई भी पराजित नहीं कर सके।  ऋषि जमदग्नि जी ने सभी वरदान उन्हें प्रसन्नता पूर्वक प्रदान किये। 

एक समय हैहयवंशी सहस्त्रबाहु आखेट के लिए उसी वन में आये जहॉ ऋषि जमदग्नि जी का आश्रम था।  मदोन्मत सहस्त्रार्जुन को अपनी भुजाओं पर बड़ा गर्व था, उन्होंने भगवान दत्तात्रेय जी की आराधना करके हजार भुजाएं, एक स्वर्ण रथ और कई अमोघ शक्तियाँ वरदान के रूप में प्राप्त की थी।  दिनभर आखेट करते हुवे घूमते हुवे थक कर चूर हो चुके, सेना भी निढ़ाल हो गई थी, तब उन्होंने ऋषि जमदग्नि जी के आश्रम के निकट ही पड़ाव डाला।  रात्रि भूखे प्यासे ही निकल गई, प्रातः स्नानादि से निवृत होकर भगवान दत्तात्रेय जी की आराधना करने लगे।  उस समय आश्रम के निकट आये अतिथियों से परिचय कर उनकी यथोचित सेवा की भावना से ऋषि जमदग्नि वहाँ पधारे, उन्होंने भूख प्यास से व्याकुल सहस्त्रबाहु को देखा तो ऋषि ने प्रेमपूर्वक राजा को सेना सहित भोजन का निमंत्रण दिया।  राजा ने मौन स्वीकृति तो प्रदान कर दी साथ ही विचार करने लगा कि यह कुटिया में रहने वाला साधु मेरी और इतनी विशाल सेना की क्या व्यवस्था करेगा। उधर ऋषि ने आश्रम में आकर माता कामधेनु को सारी बात बताई, कामधेनु जोकि सर्वविध कामनाओं की पूर्ति करने में सक्षम एक गौ माता हैं, जोकि देवराज इन्द्र ने प्रसन्न होकर ऋषिवर जमदग्नि जी को प्रदान की थी।  

गौ माता कामधेनु ने उन सभी के लिए त्रैलोक्य में दुर्लभ पदार्थ के 36 प्रकार के व्यंजन स्वर्ण के पात्रों में प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें पाकर सहस्त्रबाहु भी विस्मित रह गए और उन्होंने  अपने मंत्री  से कहा कि इनके पास यह सब कहाँ से आया इसकी जानकारी प्राप्त करो। चतुर मंत्री ने आश्रम में ऋषि के पास पहुँचकर प्रणाम किया, ऋषि ने पूछा अतिथि सत्कार में कोई कमी हुई हो तो बताइये।  तब मंत्री ने ताम्बूल (पानबीडा) की इच्छा व्यक्त की तो ऋषि तत्काल माता कामधेनु  सम्मुख गए और स्थिति बताई।  माता कामधेनु ने तत्काल स्वर्ण तश्तरी में लवंग एवं स्वर्ण वर्क युक्त पान का बीड़ा प्रस्तुत कर दिया।  मंत्री ने सबकुछ देखकर  राजा को बतला दिया तो राजा ऋषि के सम्मुख आकर बोले हे मुनिश्रेष्ठ आप मुझे भिक्षा में कामधेनु प्रदान करें। ऋषि के समझाने पर नहीं माने और कामधेनु को बलपूर्वक ले जाने लगे, तब वहाँ सहस्त्रार्जुन की सेना तथा कामधेनु द्वारा प्रदत्त दैवीय सेना का भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध को स्वयं ब्रह्मा जी को आकर रोकना पड़ा।  उस समय तो सहस्त्रार्जुन ब्रह्मा जी की बात मानकर अपने नगर को लौट गए किन्तु कुछ समय बाद फिर से बड़ी सेना लेकर ऋषि के आश्रम पहुंच गए और आश्रम को चारों ओर से घेर लिया, ऋषि ध्यानमग्न थे। जब राजा के सैनिक कामधेनु को बलपूर्वक ले जाने लगे, तब ऋषि का ध्यान भंग हुआ किन्तु वे अपने शस्त्र उठा पाते इसके पहले ही सहस्त्रबाहु ने दत्तात्रेय भगवान द्वारा प्रदत्त अमोघ शक्ति का प्रहार ऋषि पर कर दिया जिससे ऋषि का वक्षस्थल विदीर्ण हो गया और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।  ऋषि के मृत शरीर को देखकर कामधेनु भी विलाप करती हुई गौलोक को चली गई।  

इस प्रकार से सहस्त्रार्जुन को गौ भी नहीं मिली और ब्रह्म हत्या का पाप भी लग गया, जिससे भयभीत होकर वह अपने नगर को लौट आया। पति की मृत्यु की जानकारी होने पर माता रेणुका विलाप करते हुवे अपने पुत्र राम को पुकारने लगी। परशुराम जी उस समय पुष्कर क्षेत्र में थे, माता की पुकार पर वे तत्काल वहाँ पहुंचे। पिता की मृत्यु का कारण और कामधेनु के चले जाने से उनका रोष बढ़ता गया और माता के विलाप को देख भावावेश में बोले माता आपने मेरे सम्मुख अपनी छाती को 21 बार पीटा है, इसलिए मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं दुष्ट, मर्यादाविहीन, अत्याचारी क्षत्रियों से इस पृथ्वी को 21 बार शून्य कर दूंगा। माता ने उन्हें समझाने और युद्ध नहीं करने को काफी समझाया किन्तु परशुराम जी बोले हे माता यदि समाज में आतताइयों को दंडित नहीं किया तो अत्याचार बढ़ेंगे, निर्दोष को सताने मारने वालों को तो दण्डित करना ही होगा।  महर्षि भृगु ने भी आकर परशुराम जी को तथा उनकी माता रेणुका को उपदेश दिया, उन्होंने अपने तप बल से कुछ समय के लिए ऋषि जमदग्नि जी को  पुनर्जीवित भी किया। तब ऋषि जमदग्नि जी बोले मैंने तो अतिथि सत्कार किया था इसमें मेरा क्या दोष था, तब महर्षि भृगु बोले इसमें  किसी का भी दोष नहीं है, सहस्त्रार्जुन ने जो कृत्य किया वह महर्षि वशिष्ठ के श्राप के प्रभाव से किया क्योंकि उसे महर्षि वशिष्ठ ने श्राप था कि जब वह किसी ब्राह्मण का अपराध करेगा तभी उसकी मृत्यु होगी और उसकी मृत्यु जमदग्नितनय परशुराम के हाथों होगी। 

इसके बाद महर्षि भृगु अंतर्धान हो गए। ऋषि जमदग्नि जी ने भी परशुराम जी को उनकी प्रतिज्ञा के संबंध में काफी समझाया और इस संबंध में उन्हें ब्रह्माजी से मिलने का निर्देश देकर शून्य में विलीन हो गए।  माता रेणुका ने भी अपने पुत्र परशुराम को यथोचित ज्ञानोपदेश देकर अपने पति  के साथ चितारुढ़ हो गई।  परशुराम जी ने चिता को अग्नि प्रदान की। वैकुण्ठधाम से आये दिव्यरथ में दूत जमदग्नि ऋषि और माता रेणुका को लेकर वैकुण्ठ को चले गए।  माता पिता के समस्त औध्र्व दैहिक क्रियाएं सम्पन्न कर परशुराम जी ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर संपूर्ण घटनाक्रम बताया और मार्गदर्शन चाहा। तब  ब्रह्माजी भी बोले तात तुमने बड़ी भीषण प्रतिज्ञा की है, तुम एक क्षत्रिय के दोष के कारण समस्त क्षत्रिय जाति को नष्ट करना चाहते हो और वह भी 21 बार। ब्रह्माजी बोले महादेव तुम्हारे गुरु हैं, अतः तुम उन्हीं के पास जाओ वे ही कुछ उपाय बताएंगे। 

तब परशुराम जी शिवलोक पहुँचे और वहाँ उपस्थित सम्पूर्ण शिवपरिवार को प्रणाम कर प्रार्थना की तथा सम्पूर्ण वृतांत शिवजी को सुनाया। माता पार्वती वृतांत सुनकर आश्चर्य से बोली कि तुम उस सहस्त्रबाहु सहित क्षत्रियों का विनाश करना चाहते हो, जिसने लंकापति दशानन रावण को भी पराजित कर  दिया था।  भगवान दत्तात्रेय ने उसे अमोघ शक्ति, कवच सहित कई वरदान दिए हुवे हैं। किन्तु  देवाधिदेव महदेव जी के चरणों को पकड़ कर बैठे थे, उनके नैत्र छलछला रहे थे। इस मुद्रा को देखकर भगवान आशुतोष भी द्रवित हो गए और बोले हे वत्स आज से तुम मेरे पुत्र के समान हो, मैं तुम्हें तीनों लोकों में दुर्लभ गुप्त मन्त्र प्रदान करूंगा।  इसके बाद  महादेव जी ने त्रैलोक्य विजय नामक अति विलक्षण चमत्कारी कवच परशुराम जी को प्रदान कर उसकी सम्पूर्ण विधि बताई। इसके साथ ही परशुराम जी को वेद वेदांग, अस्त्र शस्त्र, गदा, शक्ति, उत्तम त्रिशूल, परशु, धनुष विद्या का भी सांगोपांग अध्ययन करवाया। दिव्यास्त्रों का प्रयोग, माया युद्ध, आत्मरक्षा के उपाय, सेना का संहार, सेना की रक्षा और संसार को मोहित करने की विद्या भी सिखाई। जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और निंद्रा पर विजय प्राप्त करने का रहस्य भी समझाया। इसके पश्चात शत्रु संहारकारी और स्वसर्वांग रक्षक मंत्र प्रदान कर उसकी विधि समझाई। इसके अलावा अपना पाशुपतास्त्र, विष्णु जी द्वारा प्रदत्त दिव्य धनुष तथा अमोघ परशु प्रदान कर परशुराम जी को आशीर्वाद दिया कि अब तुम 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन बनाओगे। साथ ही परशुराम नाम भी प्रदान किया, उसके बाद परशुराम जी भी सभी को नमन कर उनसे आज्ञा पाकर अपने आश्रम में लौट आए। नाम के संबंध में एक मान्यता यह भी है कि अपने शिष्य राम के युद्ध कौशल की परिक्षा लेने के आशय से शिवजी और परशुराम जी के युद्ध के भी प्रमाण हमारे शास्त्रों में मिलते हैं, जिसमें युद्ध कौशल से प्रसन्न होकर शिवजी ने परशुराम नाम प्रदान किया था।

उसके बाद पुष्कर तीर्थ में जाकर एक मास पर्यंत अन्न जल का परित्याग कर श्रद्धा भक्ति पूर्वक प्रभु श्री कृष्ण की आराधना की। तब श्री कृष्ण प्रसन्न होकर प्रकट हुए तो परशुराम जी ने विनम्रतापूर्वक उन्हें प्रणाम कर याचना की कि कृपया आशीर्वाद प्रदान करें, मैं पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से रहित कर सकूं। श्री कृष्ण भी उन्हें वरदान देकर अंतर्धान हो गए। उसके बाद परशुराम जी ने अपने आश्रम में आकर अपने भाइयों से विचारविमर्श कर विजययात्रा के लिए प्रस्थान करने का निर्णय लिया। अगले दिन श्री परशुराम जी ने सहस्त्रार्जुन के पास अपना दूत भेजा। दूत ने शिष्टाचारपूर्वक राजा का अभिवादन कर संदेश सुनाया कि युद्ध भूमि में परशुराम आपकी प्रतिक्षा में है और वे 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन बनाने की अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए तत्पर है,  यदि आप यथासमय नहीं पहुँचें तो वे नगर पर आक्रमण कर देंगे।     

 
परशुरामजी की चुनौती स्वीकार कर सहस्त्रार्जुन युद्ध भूमि में जाने के लिए तत्पर हो गया, उस समय  उनकी पत्नी ने भी उन्हें समझाने  प्रयास किया कि अपने अपराध के लिए क्षमा याचना कर लीजिये, युद्ध भूमि में मत जाइये किन्तु सहस्त्रार्जुन नहीं माने और बोले प्रिये मैं जानता हूँ कि परशुराम स्वयं नारायण के अवतार हैं और उन्होंने 21 बार पृथ्वी क्षत्रियविहीन करने की प्रतिज्ञा कर ली है, तो वह प्रतिज्ञा विफल हो ही नहीं सकती साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि मैं उनके द्वारा वध्य हूँ तो उनकी शरण में कैसे जा सकता हूँ। तब रानी मनोरमा भी भविष्य जान गई तथा अपने पुत्रों, संबंधियों को अपने समक्ष बुलाकर भगन्नाम स्मरण करते हुवे योगविद्या से अपने शरीर का त्याग कर दिया।  अपनी पत्नी की मृत देह को देखकर सहस्त्रार्जुन भी व्यथित हो उठा, अपनी पत्नी का औध्र्व दैहिक संस्कार सम्पन्न कर अपनी विशाल सेना के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान किया।  नर्मदा नदी के तट पर परशुराम जी राजा की प्रतीक्षा कर रहे थे।  युद्ध भूमि में परशुराम जी को सामने देख राजा रथ से उतरे और भगवान परशुराम जी को दंडवत प्रणाम किया।   परशुराम जी ने भी स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।  उसके बाद राजा रथारूढ़ हो गया। 

उस समय परशुराम जी ने राजा से पूछा कि आप धर्मनिष्ठ हैं, भगवान दत्तात्रेय जी के शिष्य हैं, विद्वान् हैं फिर भी आपने अधर्माचरण क्यों किया ? आपने अपने पुण्यो को नष्ट कर लिया, आपका यश इस दुष्कृत्य से अपयश में बदल गया। तब राजा बोले कि रजोगुण राजा का तत्व है, विषयानुराग से मैंने कामधेनु  को लेना चाहा, यह कोई दोष की बात नहीं। आपने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन बनाने की प्रतिज्ञा ली है, आप उसे पूरी कीजिये। इसके बाद भीषण युद्ध हुआ और युद्ध में भगवान श्री परशुराम ने विशाल सेना सहित सहस्त्रार्जुन की सहायता के लिए आये हुवे राजाओं सहित सहस्त्रार्जुन का भी संहार किया।  भगवान श्री परशुराम जी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय ही रहा।  वे सदैव ही अन्याय और अत्याचारों की विरूद्ध निरंतर लड़ते रहे। हैहयवंशीय सहस्त्रार्जुन तथा उसके पुत्रों के अतिरिक्त वे दुष्ट क्षत्रियों का संहार करते रहे।  उन्होंने यह संहार की प्रक्रिया 21 बार दोहराई होकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। साथ ही हरियाणा के रामह्रद नामक स्थान पर पाँच कुण्डों में क्षत्रियों का रक्त भरकर उससे अपने पितरों को तर्पण करने की भी प्रतिज्ञा पूर्ण की। 

दुष्ट क्षत्रियो में परशुराम जी का नाम एक विभीषिका का रूप धारण कर चुका था। क्षत्रिय कुलों में त्राहिमाम त्राहिमाम होने लगा था। तब महर्षि ऋचीक और महर्षि भृगुकुल के पूर्वजों ने परशुराम जी को समझाया। पितरों ने कहा वीरवर परशुराम तुम्हारी पितृ भक्ति प्रशंसनीय है, अब तुम्हारा प्रतिशोध रुकना चाहिये। हम तुमसे प्रसन्न हैं, तुम्हारा कल्याण हो, इन समस्त रक्त कुण्डों का रक्त पावन निर्मल जल में परिवर्तित हो जाएगा तथा जो भी व्यक्ति इनमें स्नान कर अपने पितरो तर्पण करेंगे, उनके पितृ तृप्त हो जायेंगे। हरियाणा के जींद जनपद के रामह्रद नामक स्थान मेँ आज भी तालाब में श्रद्धालुजन स्नानदान करते है। श्रावण, कार्तिक और बैसाख की पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है।  हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता के भी यहाँ नियमित आने के प्रमाण मिलते हैं तो एक बार सूर्य ग्रहण के समय बलराम जी के साथ भगवान श्री कृष्ण जी के आने के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।  

अपने पितरो की आज्ञा को शिरोधार्य करके परशुराम जी क्षत्रिय संहार से विरत हो गए और ब्राह्मणों से परामर्श कर सरस्वती नदी के पावन तट पर विश्वजीत नामक महायज्ञ का आयोजन किया। देवराज इन्द्र को प्रसन्न करने वाला महायज्ञ सम्पन्न किया तथा उसमें अपने द्वारा विजीत्त  सम्पूर्ण भूमि यज्ञ में भाग लेने वाले ब्राह्मणों को दान कर दी। यज्ञ पूर्ण होने उपरांत महर्षि कश्यप ने क्षत्रियों की रक्षा की भावना से परशुराम जी से कहा वत्स दान दी हुई पृथ्वी पर तुम्हारा निवास उचित नहीं है, अब तुम दक्षिण तट पर चले जाओ।  महर्षि कश्यप की आज्ञा शिरोधार्य का वे दक्षिण तट पर जाने के लिए तैयार हो गए किन्तु उसके पूर्व देवाधिदेव महादेव जी के प्रति विनम्र आभार व्यक्त करने वे शिवधाम पहुंचे। उस समय शिवजी शयन कर रहे थे, भगवान श्री गणेश जी द्वारा उन्हें रोकना चाहा तो वे यह कहकर आगे बढ़ने लगे कि मैं अपने गुरु के दर्शन अभी ही करूँगा। तब श्री गणेश जी ने यह भी कहा कि इस समय वहाँ आपका जाना उचित नहीं है, उन्होंने यह भी कहा कि जो व्यक्ति पिता अथवा गुरु को पत्नी सहित एकांत में रहते हुवे देखता है, वह सात जन्मों तक अपनी स्त्री से विमुक्त रहता है अर्थात सात जन्म तक स्त्री का सानिध्य प्राप्त नहीं होता है।  

तब परशुराम जी गणेश जी का उपहास करते हुवे बोले कि आप कैसी बात करते हो, शिवजी और माता पार्वती तो जगत के माता पिता हैं और अपने पुत्र के सामने माता पिता को कोई लज्जा नहीं होती है और यह कहते हुवे परशुराम जी अंत:पुर में जाने लगे तब गणेश ने उन्हें पुनः समझाते हुवे रोकने का प्रयास किया तो परशुराम जी ने अपने परशु का प्रहार गणेश जी पर कर दिया, जिससे श्री गणेश जी का बांया दांत टूट कर पृथ्वी पर गिर गया और वहाँ भयानक कोलाहल मच गया। इस उपद्रव से महादेवजी की निंद्रा भंग हुई और वे माता पार्वती के साथ अंतः पुर से बाहर आये।  रक्त से लिप्त मुख और खंडित दाँत वाले पुत्र गणेश को देखकर माता पार्वती क्रुद्ध हो गई और बोली परशुराम तुम भगवान शिव जी के शिष्य हो, गुरु को दक्षिणा देने का विधान है, तुमने तो गुरुपुत्र का दाँत ही तोड़ दिया।  ऐसा कहकर माता पार्वती परशुराम जी को मारने को उद्धत हो गई तभी समस्त देवता वहाँ पधारे और माता पार्वती को विनय अनुनय कर शांत किया तथा परशुराम जी से भी गणेशजी की स्तुति करने को कहा।  

इसके बाद परशुराम जी ने माता पार्वती का स्तवन किया, गणेश जी की स्तुति कर पूजा की तथा समस्त शिव परिवार को बारम्बार प्रणाम कर उनसे आज्ञा लेकर अपने आश्रम लौट आये।  अपने आश्रम की समस्त व्यवस्था अपने शिष्यों को सौंपकर आश्रम से प्रस्थान कर दक्षिण में सागर तट पर आ गए जहॉ समुद्र ने परमत्यागी भगवान श्री परशुराम जी का श्रद्धाभाव से स्वागत किया और उनके निवास के लिए स्थान खालीकर शुपारक देश का निर्माण किया, ऐसा कहते हैं कि वर्तमान में यह क्षेत्र केरल प्रदेश के नाम से जाना जाता है।  भगवान श्री परशुराम जी के प्रमुख शिष्यों में भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण रहे हैं। आज अक्षय तृतीया है, भगवान श्री परशुराम जी का जन्मोत्सव का पावन अवसर है, इसी पावन अवसर पर यह लेख भगवान श्री परशुराम जी के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम सहित समर्पित कर आप समस्त सनातन धर्मप्रेमीजन को हार्दिक शुभकामना - जय श्री परशुराम -दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर।       

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