महर्षि व्यास और राजा जन्मेजय का प्रसंग - सब कुछ निश्चित है

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन। मानव जन्म लेकर इस धरा पर आये हम लोग परमपिता परमेश्वर की इच्छा और कृपा से ही आये हैं और इस धरा पर मानव जीवन में इस मानव शरीर के माध्यम से हमें कब क्या करना है, यह सब भी पूर्वनिर्धारित होता है। हम इस संसार रूपी रंगमंच के केवल एक कलाकार हैं और हमें यहाँ पर केवल हमारा रोल अदा करना है तथा अपना रोल पूर्ण होने पर यहाँ से चले जाना है। हमारे जीवन में नित्य प्रतिदिन कोई न कोई घटना आदि घटित होती ही रहती है, जिन्हें होनी अनहोनी भी कहा जाता है। यह सभी घटनाऐं हमारे भाग्य और प्रारब्ध पर आधारित होती है। कई बार ऐसी होनी अनहोनी के सम्बन्ध में हमें स्वयं भी आभास हो जाता है अथवा किसी माध्यम से हमें अलर्ट भी किया जाता है ताकि हम संभल सकें, किन्तु कई बार हमारा अभिमान, हठधर्मिता के कारण भी हम उन घटनाओं का प्रभाव कम कर पाने या उनका उपचार करने में असमर्थ हो जाते हैं। घटनाऐं तो होना निश्चित है किन्तु प्रभाव को कम किये जाने का प्रयास तो किया ही जा सकता है जैसे कहा जाता है कि तलवार की चोट सुई सी चोट पर निकल गई। इस बेबसाईट के इस 135 वें लेख में आज हम महर्षि वेद व्यास और पाण्डु पुत्र अर्जुन के प्रपौत्र राजा जन्मेजय के एक प्रसंग  से अवगत हो रहे हैं, जो कि इसी प्रकार की एक घटना पर आधारित है। 
पाण्डुपुत्र धनुर्धर अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के पुत्र ,राजा परीक्षित थे। राजा परीक्षित के बाद उनके पुत्र  जन्मेजय राजा बने, इन्हीं राजा जन्मेजय ने सर्प यज्ञ किया था एक दिन राजा जन्मेजय महर्षि वेदव्यास जी के पास बैठकर धर्म चर्चा कर रहे थे। धर्म चर्चा के ही मध्य राजा जन्मेजय द्वारा कुछ नाराजगी से महर्षि वेदव्यास जी से कहा.. कि प्रभु जहां आप समर्थ थे ,भगवान श्रीकृष्ण थे, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कुलगुरू कृपाचार्य जी, धर्मराज युधिष्ठिर, जैसे महान लोग उपस्थित थे फिर भी आप महाभारत के युद्ध को क्यों नहीं रोक पाए और उस महा युद्ध में देखते ही देखते अपार जन धन की हानि हो गई। यदि मैं उस कालावधि में रहा होता तो, अपने पुरुषार्थ से युद्ध को होने से रोक देता और उससे हुवे विनाश को होने से बचा लेता।

महर्षि वेदव्यास जी अहंकार से भरे राजा जन्मेजय के शब्दों को सुन कर भी शांत रहे और उन्होंने कहा, पुत्र अपने पूर्वजों की क्षमता पर किसी प्रकार की कोई शंका न करो। यह विधि द्वारा निश्चित था, जो बदला नहीं जा सकता था, यदि ऐसा हो सकता तो केवल श्रीकृष्ण में ही इतनी सामर्थ्य थी कि वे उस युद्ध को रोक सकते थे। राजा जन्मेजय अपनी बात पर अड़े रहे और बोले प्रभु मैं इस सिद्धांत को नहीं मानता। आप तो त्रिकालदर्शी भविष्यवक्ता है, मेरे जीवन में घटित होने वाली किसी होनी को आप मुझे बताइए, मैं उसे रोककर यह प्रमाणित कर दूंगा कि विधि का विधान निश्चित नहीं होता।

राजा जन्मेजय के अहंकार से भरे वचनों को सुनकर महर्षि वेद व्यास जी बोले पुत्र यदि तुम यही चाहते हो तो अपने बारे में सुनो - कुछ वर्षों के बाद तुम काले घोड़े पर बैठकर शिकार करने जाओगे और वह घोडा तुम्हें लेकर दक्षिण दिशा में समुद्र तट पर पहुंचेगा। वहां तुम्हें एक अति सुंदर स्त्री मिलेगी जिस पर तुम मोहित होकर उसे अपने महलों में ले आओगे, और बाद में उससे विवाह करोगे। यह सब करने के लिए मैं तुम्हें मना कर रहा हूँ किन्तु तुम यह सब करोगे। उसके बाद अपनी पत्नी के कहने पर तुम एक यज्ञ करोगे। मैं तुम्हें आज चेतावनी दे रहा हूँ कि उस यज्ञ को तुम वृद्ध ब्राह्मणों से ही कराना किन्तु तुम ऐसा नहीं करोगे, तुम वह यज्ञ युवा ब्राह्मणों से ही कराओगे। राजा जन्मेजय महर्षि वेद व्यास जी की बात को उपहास में लेते हुवे और उनकी बात काटते हुवे बोले कि मैं आज के बाद काले घोड़े पर ही नहीं बैठूंगा तो यह सब घटनाएं होंगी ही नहीं।    

महर्षि वेद व्यास जी मुस्कुराकर बोले यह सब कुछ होगा और अभी उससे आगे की भी सुनो।  उस यज्ञ में कुछ ऐसी घटना घटित होगी कि तुम अपनी पत्नी के कहने पर उन युवा ब्राह्मणों को प्राण दण्ड दोगे, जिससे तुम्हें ब्रह्म हत्या का दोष लगेगा जिसके परिणामतः तुम्हें कुष्ठ रोग हो जायेगा और वही रोग तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।  अब तुम यह सब रोक सकते हो तो इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को रोक लो। महर्षि वेद व्यास जी की बात सुनकर राजा जन्मेजय ने उसके बाद सावधानी और सतर्कतावश शिकार पर जाना ही छोड़ दिया, किन्तु जब होनी का समय निकट आया तो राजा जन्मेजय को शिकार पर जाने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई। अपनी इच्छा के वशीभूत राजा जन्मेजय ने महल से शिकार के लिए निकलते समय निश्चय किया कि काला घोडा नहीं लूंगा किन्तु उस दिन अस्तबल में उन्हें काला घोडा ही मिला। 

राजा ने काले घोड़े पर सवार होते होते विचार किया कि अन्य घोडा नहीं है इसी से चलता हूँ किन्तु दक्षिण दिशा में नहीं जाऊंगा। घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए निकले तो कुछ दूर जाकर घोडा अनियंत्रित होकर दक्षिण दिशा की ओर दौड़ने लग गया और समुद्र तट पर जा पहुंचा। समुद्र तट पर राजा जन्मेजय ने एक अति सुन्दर स्त्री को देखा और उस पर मोहित हो गया किन्तु महर्षि की बातें भी उन्हें याद थी। उस समय उस स्त्री पर मोहित राजा जन्मेजय ने विचार किया कि मैं इसे महल में लेकर अवश्य जाऊंगा किन्तु इससे विवाह नहीं करूँगा। यह निश्चय करके राजा ने उस स्त्री के समक्ष प्रणय निवेदन किया और स्त्री द्वारा निवेदन स्वीकार किये जाने पर उसे अपने महल में ले आये। महलों में उस स्त्री को लेकर आने के बाद उसके मोह में पड़कर उसके साथ विवाह  भी कर लिया।   
महर्षि वेद व्यास जी द्वारा बताये अनुसार घटनाक्रम घटित होता जा रहा था। राजा जन्मेजय द्वारा रानी के कहने पर यज्ञ भी किया और उस यज्ञ में युवा ब्राह्मण ही बुलाये गए। उस समय रानी के किसी कार्य पर युवा ब्राह्मण रानी पर हँसने लगे जिससे रानी क्रोधित हो गई और रानी के कहने पर राजा जन्मेजय ने उन्हें प्राण दण्ड की सजा दे दी, जिस कारण राजा को ब्रह्म हत्या का दोष लगा और उसके फलस्वरूप उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। कुष्ठ रोग हो जाने पर राजा जन्मेजय घबरा गए और वे तत्काल ही महर्षि वेद व्यास जी की शरण में जा पहुंचे और उनसे अपने जीवन को बचाने की प्रार्थना करने लगे।     

महर्षि वेदव्यास जी बोले इस समस्त घटनाक्रम की मैंने पूर्व में ही चेतावनी दी थी और तुम्हें जिस जिस कार्य के लिए मना किया था वह सब तुमने किया, अब एक अंतिम अवसर तुम्हें अपने प्राण बचाने के लिए देता हूँ। मैं तुम्हें महाभारत की कथा श्रवण कराऊंगा, जिसे तुम्हें पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ सुनना होगा।  इस कथा को सुनने से तुम्हारा कोढ़ मिटता जायेगा, किन्तु यदि किसी भी प्रसंग पर तुमने अविश्वास किया तो मैं महाभारत कथा का वाचन रोक दूंगा, उसके बाद मै भी तुम्हारा जीवन नहीं बचा पाऊंगा। महर्षि वेद व्यास जी ने महाभारत कथा को प्रारम्भ करने के पूर्व राजा जन्मेजय को पुनः एक बार और चेतावनी दी कि याद रहे तुम्हारे पास अपने जीवन को बचाने का यह अंतिम अवसर है। राजा जन्मेजय को इतना सब कुछ होने पर महर्षि वेद व्यास जी की बातों पर पूरा विश्वास हो चुका था, इसलिए वे  पूरी श्रद्धा और विश्वास से कथा श्रवण करने लगे। 

महर्षि वेद व्यास जी जब पाण्डु पुत्र महाबली भीम  का प्रसंग सुनाते हुवे बता रहे थे कि किस प्रकार से महाबली भीम ने युद्ध में हाथियों को सूंडों से पकड़कर उन्हें अंतरिक्ष में उछाला था और वे हाथी आज भी अंतरिक्ष में ही घूम रहे हैं, तब राजा जन्मेजय अपनी आदत के अनुसार अपने आप को रोक नहीं पाए और बोल उठे कि यह कैसे संभव हो सकता है, यह सब असत्य कथानक लगता है। राजा जन्मेजय के इस प्रकार का संदेह जानकर महर्षि वेद व्यास जी ने महाभारत कथा का वाचन रोक दिया और कहा कि पुत्र मैंने तुम्हें कितना समझाया था कि किसी भी बात पर अविश्वास मत करना किन्तु तुम अपने स्वभाव को नियंत्रित नहीं कर पाए क्योंकि यह सब कुछ होनी द्वारा निश्चित था। उसके पश्चात महर्षि वेद व्यास जी ने मन्त्र शक्ति से आव्हान किया और वे हाथी पृथ्वी की आकर्षण शक्ति में आकर नीचे गिरने लगे तब महर्षि वेद व्यास जी बोले पुत्र ये हाथी कथा में उल्लेखित बातों  प्रमाण है। राजा जन्मेजय ने जितनी मात्रा में श्रद्धा और विश्वास के साथ महाभारत कथा श्रवण की थी उतनी मात्रा में वे उस कुष्ठ रोग से मुक्त हुवे किन्तु अपूर्ण कथा श्रवण से एक बिंदु रह गया था और वही पश्चात  में उनकी मृत्यु का कारण बना।

हमारे जीवन रूपी नाटक को भी परमात्मा ने ही रचा है, और होता वही है जो प्रभु चाहते हैं।  इसलिए अपने सत कर्म पूर्ण निष्ठां और ईमानदारी के साथ करते रहो और प्रभु को अर्पित कर दो, फल देना प्रभु का कार्य है।  श्रीमद भगवद गीता में भी स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है कि कर्म किये जाओ फल की आशा मत करो और किया गया कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं जायेगा। कोई भी ऐसा कार्य हम नहीं करें जो कि प्रभु की नजरों में अनुचित हो। आज से हम सभी यह संकल्प लें कि हम प्रभु की लीला पर अविश्वस नहीं करेंगे और न ही किसी प्रकार का कोई अनुचित कार्य करेंगे, सदैव सत्कर्म करते रहेंगे और अपने कर्मों को प्रभु के श्री चरणों में अर्पित करते रहेँगे।  इसी प्रकार से यह लेखन कार्य वाला पुष्प भी श्री हरि प्रभु के श्री चरणों में समर्पित जय श्री कृष्ण।  दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर। 

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