सर्वेक्षक और मानचित्रकार पंडित नैन जी रावत
मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर का सादर अभिनन्दन। हमें अपने ही देश में अपने ही देश के वास्तविक इतिहास से दूर रखने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन जब तक नहीं होता तब तक हम अपने देश के इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ ही रहेंगे और यदि यही स्थिति रही तो हमारी आने वाली पीढ़ी तो उस तक पहुँचने की कल्पना भी नहीं कर सकती है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि हम अपने प्राचीन इतिहास के विषय में जानकारी स्वयं भी रखें और अपने से जुड़े लोगों को भी उन जानकारियों से अवगत करावें। आज इस बेबसाईट के 134 वें लेख के माध्यम से हम उन महान व्यक्ति के कार्यो के बारे में जानने का प्रयास कर रहे है, जिन्होंने बिना किसी संसाधन के स्वयं की मेहनत से हिमालयीन इलाकों की खोज करते हुवे पैदल चल कर तिब्बत, मानसरोवर और ल्हासा का नक्शा भी तैयार किया था। कुमाऊँ क्षेत्र के पिथौरागढ़ जिले के मिलम नाम के एक गाँव में जन्में पंडित नैन जी रावत जिन्हें हिमालयी इलाकों की खोज करने वाले प्रथम भारतीय होने का श्रेय प्राप्त है, इस लेख के द्वारा हम उन्हीं के कुछ कार्यो की जानकारी प्राप्त करेंगे।
पंडित नैन जी रावत की प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई और आर्थिक तंगी कारण शिक्षा छोड़ वे अपने पिता के साथ भारत और तिब्बत के मध्य चलने वाले उनके पारम्परिक व्यापार से जुड़ गए। पिता से साथ उन्हें तिब्बत में कई स्थानों पर जाने और वहाँ की स्थिति को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। पंडित नैन जी रावत को हिन्दी भाषा के साथ साथ तिब्बती, फ़ारसी और अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था। ब्रिटिश शासनकाल में 19 वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे और उन्होंने लगभग सम्पूर्ण भारत का नक्शा बना भी लिया था किन्तु हिमालयीन क्षेत्र मेँ दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत में उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था और वे अपना कार्य नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि यह क्षेत्र दुनिया से अलग थलग तो था ही उसके बारे में कोई विशेष जानकारी भी जगजाहिर नहीं थी और सबसे मुख्य बात तो यह थी कि विदेशियों को वहाँ जाना सख्त मना था। इस स्थिति में ब्रिटिश सरकार के काफी प्रयास नाकाम हुवे।
कई बार विफल होने के बाद ब्रिटिश सरकार के उस समय के सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी ने यह निर्णय लिया कि अब उस जगह पर अंग्रेजों की बजाय स्थानीय भारतीयों को भेजा जाय। तब वहाँ की भौगोलिक स्थिति के जानकार और तिब्बत में व्यापार के लिए अक्सर आने जाने वाले लोगों की खोज प्रारम्भ हुई होकर आखिर में उन्हें दो ऐसे व्यक्ति मिल ही गए, यह दोनों व्यक्ति पंडित नैन जी रावत और उनके चचेरे भाई माणी सिंह थे। उस समय बगैर किसी संसाधन के पहाड़ी क्षेत्र का माप करना नक्शा बनाना इतना आसान कार्य नहीं था किन्तु पंडित नैन जी रावत ने इस कठिन चुनौती को स्वीकार कर दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत का नक्षा बनाने का अपना कार्य प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने विवेक से समाधान निकलते हुवे साढ़े 33 इंच लम्बी एक रस्सी अपने दोनों पैरों में बांधकर अपने हाथों में एक 100 मनकों की माला लेकर चल पड़े।
दोनों पैरोँ में रस्सी बंधी होने के कारण उनके कदम रस्सी की लम्बाई अनुसार ही दूरी तय करते थे, कम या अधिक नहीं। चलते समय कदमों की गिनती करते जाते 100 कदम पूरे चलने के बाद अपने हाथों की माला का एक मनका सरका देते थे, इस प्रकार से अपने 2000 कदमों को वे एक मील की दूरी मान लेते थे और 100 मनकों की माला पूरी होने पर पांच मील की दूरी तय हो जाती थी। इस प्रकार सपाट रास्तों के अलावा तिब्बत के पठारों और उबड़ खाबड़ दर्रों पर चलते हुवे पंडित नैन जी रावत ने अपने एक एक कदमों का हिसाब रखा। उन्होंने नेपाल से होते हुवे तिब्बत तक के व्यापारिक मार्ग का मानचित्रण किया। उन्होंने ही सबसे पहले ल्हासा की स्थिति तथा ऊँचाई ज्ञात की और तिब्बत से बहने वाली मुख्य नदी त्सांगपो के बहुत बड़े भाग का भी मानचित्रण किया। पंडित नैन जी रावत के इस कार्य को ब्रिटिश सरकार सहित अनेकों संस्थाओं द्वारा काफी सराहा गया, ब्रिटिश सरकार ने तो उनके इस कार्य के पारितोषिक स्वरुप बरेली के पास तीन गांवों की जागीरदारी प्रदान की थी। इसके अलावा उनके कार्यों के आधार पर उन्हें कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर का ख़िताब भी प्रदान किया गया।
पंडित नैन जी रावत द्वारा यह कार्य करने में 16 वर्ष का समय व्यतीत हुआ था और वे अपने इस कार्य को संपन्न करने के पहले अपने घर नहीं लौटे थे। उस समय सूचना तंत्र काफी कमजोर था, जिस कारण एक लम्बी अवधि तक पंडित नैन जी रावत की कोई खैर खबर नहीं मिली होने से लोगों ने तो उन्हें मृत मान लिया था। पंडित नैन जी रावत लोगों ने भले ही मृत मान लिया था किन्तु उनकी पत्नी को पूरा भरोसा था कि कि वे एक न एक दिन अवश्य लौटेंगे। पंडित नैन जी रावत की पत्नी प्रतिवर्ष ऊन कातकर एक कोट और एक पायजामा अपने पति के लिए बना कर रख देती थी। पंडित नैन जी रावत के 16 वर्ष बाद वापस अपने घर लौटने पर उनकी पत्नी ने उन्हें 16 कोट और 16 पायजामे उपहारस्वरूप भेंट किये थे।
तिब्बत का सर्वेक्षण करने वाले प्रथम व्यक्ति रहे पंडित नैन जी रावत तिब्बत भिक्षु के रूप में रावत कुमाऊं के अपने घर से काठमांडू, ल्हासा और तवांग तक गए थे। जर्मनी लोगों के साथ प्रारम्भ की गई अपनी यात्रा के बाद पंडित नैन जी रावत ने मानसरोवर और रकस ताल झील की यात्रा भी की थी, साथ ही वे गंगटोक और लद्दाख भी गए थे। ल्हासा का मानचित्रण करने के साथ ही त्सांगपो का भी मानचित्रण उन्होंने ही संपन्न किया था। थोक जालूंग की सोने की खदानों के बारे में भी उन्हीं के द्वारा जानकारी प्रदान की गई थी। पंडित नैन जी रावत आधुनिक विज्ञानं की सेवार्थ अक्षांश दर्पण नाम की पुस्तक लिखने वाले प्रथम भारतीय रहे, उनकी यह पुस्तक शोधार्थीगण के लिए एक पवित्र ग्रन्थ के समान है। भौगोलिक अन्वेषण में प्रशिक्षित, शिक्षित और बहादुर पंडित नैन जी रावत अपनी यात्राओं के दौरान डायरियां तैयार करते थे और यही डायरियां उनके कार्यों में उनकी सहायक होती थी।
बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे इतिहासकारों और भूगोलशास्त्रियों द्वारा अपनी पुस्तकों में वास्को डी गामा, कोलम्बस आदि को तो महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया किन्तु हमारे देश के महान सर्वेक्षक और मानचित्रकार पंडित नैन जी रावत के बारे में दुनिया को अनजान ही रखा, जिनके विषय में अपने एक बालसखा श्री कैलाश मालवीय द्वारा प्रदत्त सुझाव पर दो शब्द लिखकर आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। देश के महान सर्वेक्षक और मानचित्रकार पंडित नैन जी रावत को दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर नमन।
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