पोला उत्सव

मेरा महान देश (विस्मृत संस्कृति से परिचय) में दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इंदौर का सादर अभिनन्दन। हमारा भारत देश एक कृषि प्रधान देश है और अब तो कृषि कार्य हेतु कई संसाधन उपलब्ध हो गए हैं किन्तु पहले केवल बैल जोड़ी के ही माध्यम से कृषि कार्य संपन्न होता रहा था। हमारे देश में किसानों के द्वारा कृषि कार्य के सहयोगी बैलों को भी धन्यवाद प्रदान करने के लिए एक उत्सव मनाया जाता है, जिस सम्बन्ध में हमारा यह 157 वां लेख आपके समक्ष प्रस्तुत है।  खेती बाड़ी के कार्यों के लिए एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे बैलों के महत्त्व को स्वीकार करने के लिए मनाया जाने वाला उत्सव है - पोला उत्सव। भाद्रपद मास की अमावस्या (महाराष्ट्र के सावन मास की अमावस्या) के दिन यह पर्व मनाया जाता है।  इस दिन महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना के कुछ क्षेत्रों में स्थानीय अवकाश भी होता है।  बैल भी इस दिन पूर्ण अवकाश पर रहते हैं। गोवर्धन पूजा के ही रूप में यह पर्व जिसे दक्षिण में इसे मट्टू पोंगल कहा जाता है तो उत्तर और पश्चिम भारत में इसे गोधन कहते हैं। तेलंगाना में पूर्णिमा को मनाये जाने के कारण इसे ऍरुवाका पूर्णिमा तथा एङ्गल्लू पोला भी कहते हैं। वहीँ कर्नाटक में इसे बेंदुर कहा जाता है। 
हमारे वेदों एवं धर्म ग्रंथों में गोवंश का काफी उल्लेख मिलता है। गोवंश में बैल को शक्ति का प्रतीक एवं कृषि का वाहन तो कहा ही गया है, साथ ही पुराणों में बैल को धर्म, धैर्य और परिश्रम प्रतीक भी माना गया है। कृषि कार्य को भी हमारे धर्म शास्त्रों मेँ एक यज्ञीय क्रिया माना गया है तथा बैल को यज्ञीय प्राणी माना गया है। वैसे भी बैल अर्थात नंदी को शिवजी के वाहन के रूप में भी पूजनीय माना जाता है। ग्रामीण समाज में बैल को पशु नहीं माना जाता है बल्कि परिवार के एक सदस्य के रूप मेँ सम्मान किया जाता है, उसे अन्नदाता का साथी कहा जाता है।

त्यौहार की तैयारी में बैलों को नहलाकर तेल मालिश की जाती है, उनके सींगों पर रंग बिरंगे पेंट पोते जाते हैं।  उन्हें शॉल, घंटियों और फूलों से सजाया जाता है तथा नई लगाम और रस्सियाँ दी जाती है। सजे धजे बैलों को गीत संगीत और नृत्य करते हुवे शोभायात्रा के रूप में घुमाया जाता है, सबसे आगे चलने वाला बैल एक बूढ़ा बैल होता है, जिसके सींगों पर (लकड़ी का एक फ्रेम जिसे माखर कहते हैं) बंधा होता है। इस बैल से दो खम्भों से बंधी आम के पत्तों से बनी तोरण रूपी रस्सी तुड़वाई जाती है। इसके पीछे पीछे गांव के सभी बैल चलते हैं। गांव में घरो को भी सजाया जाता है, रांगोली बनाई जाती है, तोरण लगाए जाते हैं। बैलों के वापस लौटने पर परिवार के सदस्य उनका स्वागत करते हैं तथा उनकी पूजा भी करते हैं। 

वैसे इस समय तक बुआई आदि की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी होती है, खेतों में फसल के पौधे लहलहाने लगते हैं तब कृषि कार्य से थके हुवे किसानों और बैलों के विश्राम के प्रतीक इस पर्व को बैलों को विश्राम और विशेष आहार प्रदान कर मनाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टी से भी यदि देखा जाय तो बरसात के मौसम में कृषि कार्य करने से जहाँ बैल थक जाते हैं, वहीं पशु स्वास्थ्य की दृष्टी से कीचड़ और नमी से बैलों में चर्मरोग और कीड़े लगने का खतरा बढ़ता है इसलिए बैलों को स्नान कराने, तेल लगाने और रंग लगाने से संक्रमण का खतरा कम हो जाता है, उन्हें आराम भी मिलता है और बैल स्वस्थ भी रहते हैं। 

आज आधुनिक कृषि यंत्रों ने उपज तो बढ़ा दी, बैलों की जगह भी ले ली किन्तु उनके उपयोग से जहाँ भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित हुई, फसलों में  भी पौष्टिकता प्रभावित हुई, वहीं अत्याधुनिक संसाधन एवं हानिकारक रासायनिक प्रयोग से पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है जबकि बैलो के साथ कार्य करने से प्राकृतिक संरक्षण तो होता ही है साथ ही उनके गोबर और मूत्र कृषि क्षेत्र मेँ जैविक खाद और कीटनाशक का भी कार्य करते हैं तथा प्रकिया भी कम खर्चीली होती है। तकनीक के बढ़ते प्रभाव में मानव प्रकृति और पशु से दूर होता जा रहा  है किन्तु फिर से आर्गेनिक फार्मिंग और जीवाश्म खेती में बैल तथा गोवंश की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही  है जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि बैल केवल अतीत का हिस्सा ही नहीं बल्कि भविष्य की टिकाऊ कृषि का आधार भी हो सकते हैं। केवल मशीन पर निर्भर रहना किसी खतरे से कम नहीं है बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्य भी आवश्यक  है। प्रकृति, पशु और मानव का संतुलन ही सच्चा विकास है। इस प्रकार से पोला उत्सव केवल धार्मिक उत्सव ही नहीं बल्कि कृषि विज्ञान, पशु स्वास्थ्य, सामाजिक एकता और पर्यावरणीय संतुलन की गहराई से जुडा हुआ पर्व है, आप सभी को पोला उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ - दुर्गा प्रसाद शर्मा, एडवोकेट, इन्दौर  

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